ज्ञानवापी मुद्दे पर साम्प्रदायिकता की तलाश, भाजपा को 2024 में बस इसी की आस

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विकास के एजेंडे पर ध्वस्त है भाजपा, हिंदुत्व ध्रुवीकरण पर जोर

महंगाई, बेरोजगारी, निजीकरण के मुद्दे पर जवाब देना पड़ रहा है भारी

अमित मौर्या
पंचशील”अमित मौर्या

देश में 2014 में लोकसभा चुनाव के दौरान दो करोड़ रोजगार प्रतिवर्ष ,महंगाई भ्रष्टाचार ,कानून व्यवस्था ,आर्थिक पक्ष पर मजबूती देने का दावा करने के वाद अपने वादों पर विफल भाजपा वर्ष 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले साम्प्रदायिक एवं राजनीतिक ध्रुवीकरण पर जोर दे रही है .इसके साथ ही समूची भाजपा जनता के सवालों से उसे डायवर्ट करते हुए अब पुनः साम्प्रदायिक मुद्दों में उलझाने पर जोर दे रही है .

हिंदुत्ववादी संगठन की ओर से अयोध्या तो झांकी है ,काशी ,मथुरा बाकी है नारे के क्रम में अब खुद प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर के निकट ज्ञानवापी मस्जिद निशाने पर है .जिसमें भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा न्यायालय के आदेश के बाद उसकी सत्यता जानने के लिए सर्वेक्षण किए जा रहे है .जिसका परिणाम अभी आने वाला है

उत्तर प्रदेश के वाराणसी में स्थित ज्ञानवापी मस्जिद से जुड़े कई मामले अदालतों में चल रहे हैं. उनमें से एक मामला ज्ञानवापी परिसर स्थित देवी श्रृंगार गौरी के पूजन-दर्शन का है. अभी अंजुमन इंजामिया मसाजिद कमेटी परिसर की देखभाल करती है. पिछले दिनों वाराणसी की अदालत के आदेश पर परिसर का सर्वे किया गया था. पांच महिला याचिकाकर्ताओं (लक्ष्मी देवी, राखी सिंह, सीता साहू, मंजू व्यास और रेखा पाठक) की याचिका पर निचली अदालत ने ज्ञानवापी परिसर का सर्वेक्षण करने का आदेश दिया था. पांच याचिकाकर्ताओं में राखी सिंह मामले की अगुवाई कर रही हैं.

इस सर्वे में एक शिवलिंग के मिलने का दावा किया गया था. एक याचिकाकर्ता लक्ष्मी देवी के पति डॉक्टर सोहन लाल आर्य ने 1996 में ज्ञानवापी को लेकर एक मामला दर्ज कराया था. सर्वे में परिसर की वीडियोग्राफी और फोटोग्राफी कर साक्ष्य जुटाए गए थे. अदालत ने सर्वे के लिए एडवोकेट कमिश्नर नियुक्त किए थे. दो कोर्ट कमिश्नर अजय मित्रा और विशाल सिंह ने अलग-अलग सर्वे किए थे और अदालत में रिपोर्ट सौंपी थी. एडवोकेट कमिश्नर के सहायक, मुकदमे के पक्ष और विपक्ष के वकील भी सर्वे की टीम में शामिल थे.

कोर्ट कमिश्वर अजय मिश्रा ने 6-7 मई को ज्ञानवापी परिसर का सर्वे किया था. उनकी रिपोर्ट में परिसर की दीवार पर देवी-देवताओं की कलाकृति, कमल की कुछ कलाकृतियां और शेषनाग जैसी आकृति मिलने का जिक्र किया गया था. रिपोर्ट में तहखाना खोलकर देखे जाने के बारे में नहीं बताया गया था.

कोर्ट कमिश्नर विशाल सिंह ने 14 से 16 मई के बीच ज्ञानवापी परिसर का सर्वे किया था. विशाल सिंह की रिपोर्ट में परिसर के भीतर शिवलिंग मिलने का जिक्र किया गया था. इसके अलावा रिपोर्ट में सनातन संस्कृति से जुड़े निशान मिलने की बात कही गई थी. रिपोर्ट में बताया गया था कि परिसर के तहखाने में सनातन धर्म के निशान- कमल, डमरू, त्रिशूल आदि के चिन्ह मिले.

सर्वे के बाद सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत की कार्यवाही पर रोक नहीं लगाई थी. सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि परिसर में शिवलिंग के दावे वाली जगह को सुरक्षित रखा जाए. अदालत ने कहा था कि अगर कोई शिवलिंग मिला तो उसका संरक्षण जरूरी है. शीर्ष अदालत ने नमाजियों की संख्या सीमित न करने और नमाज में दिक्कत न हो, यह सुनिश्चित करने का आदेश दिया था.

इस बीच हिंदू पक्ष ने मांग की थी पूरा ज्ञानवापी परिसर हिंदुओं को सौंपा जाए, भगवान विश्वेश्वर की नियमित पूजा के इंतजाम किए जाएं, ज्ञानवापी में मुसलमानों का प्रवेश बंद किया जाए और मस्जिद के गुंबद को ध्वस्त करने का आदेश दिया जाए.

ज्ञानवापी परिसर में सर्वेक्षण करने का आदेश देने वाले सिविल जज (सीनियर डिवीजन) रवि कुमार दिवाकर का तबादला 20 मई को बरेली कर दिया गया था. रवि कुमार ने कथित शिवलिंग वाली जगह को सील करने का आदेश दिया था.

यह है ज्ञानवापी मस्जिद का इतिहास :

ज्ञानवापी मस्जिद वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर से सटी हुई है. दावा किया जाता है कि मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी. ज्ञानवापी परिसर एक बीघा, नौ बिस्वा और छह धूर में फैला क्षेत्र है. हिंदू पक्ष दावा करता है कि ज्ञानवापी मस्जिद के नीचे 100 फीट ऊंचा विशेश्वर का स्वयंभू ज्योतिर्लिंग है.

काशी विश्वनाथ मंदिर के निर्माण को लेकर कई दावे किए जाते हैं. कहा जाता है कि काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण 2050 साल पहले महाराजा विक्रमादित्य ने करवाया था. मुगल सम्राट अकबर के नौ रत्नों में से एक राजा टोडरमल ने 1585 में काशी विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निमाण कराया था. 18 अप्रैल 1669 में मुगल आक्रंता औरंगजेब ने मंदिर को ध्वस्त करने का आदेश दिया था. इसके बाद मंदिर गिराकर इसकी जगह मस्जिद बना दी गई थी. मस्जिद के निर्माण में मंदिर के अवशेषों का इस्तेमाल किया गया था. इसके बाद मराठा साम्राज्य की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने 1780 में मौजूदा काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण शुरू कराया था.

ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर पहली बार मुकदमा 1991 में वाराणसी की अदालत में दाखिल किया गया था. याचिका में ज्ञानवापी में पूजा करने की अनुमति मांगी गई थी. प्राचीन मूर्ति स्वयंभू भगवान विश्वेशर की ओर से सोमनाथ व्यास, रामरंग शर्मा और हरिहर पांडेय इस मामले के याचिकाकर्ता थे.

1991 में ही केंद्र सरकार ने प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट बनाया था. इस कानून के मुताबिक, आजादी के बाद इतिहासिक और पौराणिक स्थलों को उनकी यथास्थिति में बरकरार रखने का विधान है. मस्जिद कमेटी ने इसी कानून का हवाला देते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट में सोमनाथ व्यास, रामरंग शर्मा और हरिहर पांडेय की याचिका को चुनौती दी थी. हाई कोर्ट ने 1993 में विवादित जगह को लेकर स्टे लगा दिया था और यथास्थिति कायम रखने का आदेश दिया था. सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद स्टे के आदेश की वैधता को लेकर 2019 को वाराणसी कोर्ट में फिर सुनवाई हुई. 18 अगस्त 2021 को राखी सिंह, लक्ष्मी देवी, सीता शाहू, मंजू व्यास और रेखा पाठक की ने ज्ञानवापी परिसर में श्रृंगार गौरी की पूजा-दर्शन की मांग करते हुए अदालत में याचिका दायर की.

याचिका में कहा गया कि संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत गारंटी के अनुसार अपने धर्म को मानने का अधिकार भंग हो गया है. कई तारीखों के बाद आखिरकार इस साल ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वेक्षण की मंजूरी वाराणसी की अदालत ने दी. श्रृंगार गौरी और अन्य देव विग्रहों के बारे में पता लगाने के लिए 8 अप्रैल 2022 को अदालत ने एडवोकेट कमिश्नर को नियुक्त किया. 26 अप्रैल को वाराणसी के सिविल जज सिनियर डिवीजन रवि कुमार दिवाकर की अदालत ने पुराने आदेश को बरकरार रखते हुए ज्ञानवापी परिसर के सर्वेक्षण का आदेश दे दिया.

आजादी से पहले भी इस मामले में कई विवाद हुए थे. एक विवाद मस्जिद परिसर के बाहर मंदिर के क्षेत्र में नमाज पढ़ने का भी था. 1809 में विवाद को लेकर सांप्रदायिक दंगा भड़क गया था. 1991 के बाद ज्ञानवापी मस्जिद के चारों तरफ लोहे की बाड़ बना दी गई थी.

हिंदू धर्म में श्रृंगार गौरी वैभव और सौंदर्य की देवी मानी जाती हैं. श्रृंगार गौरी पर सिंदूर चढ़ाकर महिलाएं अपने सुहाग रक्षा के लिए प्रार्थना करती हैं. मान्यता है कि चैत नवरात्र या वासंतिक नवरात्र के चौथे दिन मां श्रृंगार गौरी का विशेष पूजन किया जाता है. काशी में इसी के साथ कुष्‍मांडा की पूजा के भी पूजन की मान्यता है. श्रृंगार गौरी का मंदिर काशी विश्वनाथ मंदिर से सटी ज्ञानवापी मस्जिद के पीछे की ओर पड़ता है. 2004 में प्रशासन ने चैत्र की नवरात्रि के चतुर्थी के दिन पूजन की अनुमति दे दी थी लेकिन विवाद गरमाने पर इस जगह पूजा-अर्चना बंद कर दी गई थी.

ज्ञानवापी का मतलब?

‘ज्ञानवापी’ दो शब्दों- ज्ञान और वापी से मिलकर बना है. वापी का मतलब बावली, तालाब या चौड़ा और बड़ा कुंआ होता है. इस प्रकार ज्ञानवापी का मतलब ज्ञान का कुआं हुआ. इसी कुंए की वजह से मस्जिद का नाम ज्ञानवापी पड़ा. कहा जाता है कि एक समय इस स्थान पर गुरुकुल भी चलता था, जहां शिष्यों को वेदांत की शिक्षा दी जाती थी.

प्लेसेज़ ऑफ वर्शिप एक्ट का खुला उल्लंघन तो नही ?

वाराणसी के ज्ञानवापी विवाद मामले को लेकर कानून के जानकारों का मानना है कि अयोध्या के बाद काशी में ज्ञानवापी एवं मथुरा के विवादों को प्लेसेज़ ऑफ़ वर्शिप एक्ट 1991 का उल्लंघन है ,यह विवाद राजनीतिक स्वार्थ के लिए जानबूझकर पैदा किया गया है .

उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991

धर्म, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और आस्था यह सब ऐसे विषय हैं जिनके एक पहलू की कानूनी व्याख्या की जाती है तो दूसरी प्रश्नवत खड़ी हो जाती है। काशी की शाही परिवार की बेटी, कुमारी कृष्णा प्रिया ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर किया है। याचिका में कृष्ण प्रिया ने पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 पर सवाल उठाते हुए इसकी धारा- 2, धारा- 3 और धारा- 4(1) को चुनौती दिया है। याचिकाकर्ता ने इस बारे में अदालत से हस्तक्षेप करने की गुहार लगाई है। सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को स्वीकार भी कर लिया है और अब वह इन प्रावधानों की वैधता की जांच करेगा।

क्या है पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991?

पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991 एक अधिनियम है, जो 15 अगस्त 1947 तक अस्तित्व में आए हुए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को एक आस्था से दूसरे धर्म में परिवर्तित करने और किसी स्मारक के धार्मिक आधार पर रखरखाव पर रोक लगाता है। यह केंद्रीय कानून 18 सितंबर, 1991 को पारित किया गया था।

क्या है इस कानून का इतिहास?

दरअसल 1990 के दशक के शुरुआती सालों में भारत की राजनीति एक नया मोड़ ले रही थी। इस दौरान राजनीति पर सांप्रदायिकता का रंग और भारत के सामाजिक ताने-बाने की दशा और दिशा दोनों बदल रही थी। अयोध्या मामला पूरी तरह से तूल पकड़ चुका था। साथ ही, काशी और मथुरा जैसे कई धार्मिक स्थल ऐसे थे जहां पर अयोध्या विवाद जैसी स्थिति बन रही थी। इनमें बनारस का ज्ञानवापी मस्जिद विवाद और मथुरा का ईदगाह मस्जिद विवाद शामिल था।

ऐसे में, मौके की नज़ाकत को भांपते हुए केंद्र की तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार ने एक नया कानून लाने की योजना बनाई। 11 जुलाई, 1991 को लागू हुए इस कानून का नाम पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 रखा गया। अंग्रेजी में इस कानून का शीर्षक प्लेसेज़ ऑफ़ वर्शिप (स्पेशल प्रोविज़न) एक्ट, 1991 है।

यह कानून क्यों लाया गया?

इस कानून को लाने का मकसद था कि मस्जिदों और मंदिरों के जरिए जो सांप्रदायिक विवाद उभर कर सामने आ रहे थे, उन पर लगाम लगाई जा सके। हालांकि जब इस कानून को लाया गया था तब तक बाबरी विध्वंस की घटना नहीं हुई थी, लेकिन शायद केंद्र सरकार को इसका भान हो चुका था और इसीलिए एहतियातन इस कानून को लाया गया था।

इस कानून के महत्वपूर्ण प्रावधान कौन-कौन से हैं?

इस कानून का जो सबसे प्रमुख प्रावधान था वह यह कि 15 अगस्त 1947 को भारत में विद्यमान पूजा स्थलों पर जिस कौम या संप्रदाय का हक था वह यथावत बना रहेगा। यानी इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि उस पूजा स्थल को किसी मंदिर या मस्जिद को तोड़कर बनाया गया था या उस पर कितने लंबे समय से किसी समुदाय विशेष का अधिकार था। बस 15 अगस्त 1947 को जो पूजा स्थल जिस भी समुदाय का था वह उसी का है और आगे भी बना रहेगा। हालांकि उस दौरान अयोध्या मामले को इस कानून की जद से बाहर रखा गया था। शायद इसके पीछे कारण यह था कि जब तक यह कानून बना तब तक अयोध्या मामला पूरी तरह से जनमानस के बीच तूल पकड़ चुका था।

कानून के उल्लंघन पर किस तरह की सजा है?

इस क़ानून की धारा 6 अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करने पर जुर्माने के साथ अधिकतम तीन वर्ष के कारावास की सज़ा का प्रावधान करती है।

इस कानून की आलोचना किस आधार पर की जाती है?

इस कानून की इस आधार पर आलोचना की जाती है कि यह न्यायिक समीक्षा पर रोक लगाता है। इसी आधार पर इस बारे में याचिका भी दायर की गई है कि न्यायिक समीक्षा संविधान की एक बुनियादी विशेषता है। साथ ही इस कानून में एक “मनमाना तर्कहीन पूर्वव्यापी कटऑफ तिथि” तय कर दिया गया है जो हिंदू, जैन, बौद्ध और सिखों के धार्मिक अधिकारों को सीमित करता है।

यहां यह बताना दिलचस्प होगा कि साल 2018 में एक मुस्लिम संगठन ने इस इस कानून का विरोध किया था। इस संगठन का तर्क था कि अगर हम विवाद सुलझाने या अवैध तरीके से किसी मस्जिद को हिंदू समुदाय को वापस करना चाहे तो इस कानून के चलते वापस नहीं कर पाएंगे और इस तरह पूजा स्थलों को लेकर दो समुदायों के बीच विवाद लंबा चलता रहेगा।

अयोध्या फैसले के दौरान इस क़ानून पर सुप्रीम कोर्ट की क्या राय थी?

अयोध्या मामले में अपनी सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून के बारे में सकारात्मक बात कही है। बकौल सुप्रीम कोर्ट ‘देश ने इस एक्ट को लागू करके संवैधानिक प्रतिबद्धता को मजबूत करने और सभी धर्मों को समान मानने और सेक्युलरिज्म को बनाए रखने की पहल की है।’ इस तरह सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात का पूरी तरह से संकेत दे दिया था कि देश में अब मंदिर-मस्जिद को लेकर और विवाद नहीं होने चाहिए। हालांकि इस मौजूदा याचिका को सुप्रीम कोर्ट स्वीकार कर लिया है और इस पर क्या फैसला होगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा।

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