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आत्मानुभूति के परमानंद की प्राप्ति की कामना यदि सच्ची है, लगन पक्की है तो निश्चिंत हो जाओ। जिसकी प्राप्ति के लिए तीर्थों में भटक रहे हो, मठ मंदिरों में खोज रहे हो, आवश्यक नहीं कि तुम्हारी खोज वहीं पूर्ण होगी। जिसकी प्राप्ति में समय लग रहा है, वह लीला जीवन में किसी भी क्षण घटित हो सकती है। जो तुम्हें उस आत्म अवस्था की अनुभूति कराएगी, जिसमें संसार के समस्त भोग-कामनाएँ अपना आकर्षण खो देंगी। परमानंद के सागर में सत्य के अतिरिक्त सब कुछ अनित्य ही लगेगा। जैसे जलती चिताओं के मध्य शिला पर परमानंद अवस्था में विराजे अघोरी के आनंद का स्रोत नहीं खोज सकते, वैसे ही बिना उस अवस्था को पाए, सच्चिदानंद की अनुभूति नहीं हो सकती।
जब तक तुम अपने आत्मरूपी द्वीप में विचरण नहीं करोगे, तीर्थ-मठ-मंदिरों में परम शांति कैसे पा सकते हो। खम्भे को तुमने कस कर पकड़ा हुआ है, और कह रहे हो मुझे इससे छुड़ाओ। तुम जो कुछ भी चाहते हो, वह किसके आनंद के लिए चाहते हो? क्या चाह का कारण संसार या संसार की वस्तुओं में है अथवा चाह का कारण तुम्हारे अंदर है? पत्नी, पति, पुत्र आदि को उनके लिए चाहते हो या ये तुम्हारी आत्मा को प्रिय हैं इसलिए इनके मोह में हो।
पत्नी बहुत सुख देती है, बहुत स्नेहिल स्वभाव है, इसके रहने से मेरे आसपास एक आभा सी रहती है, भजन गाती है तो हृदय झंकृत हो उठता है, इसके बिना में अधूरा ही हूँ, इसके बिना तो में धर्म -कर्म-पूजा-पाठ कुछ भी नहीं कर सकता, कौन बता रहा है तुम्हें यह सब? कौन है तुम्हारे भीतर जो यह सब ज्ञान दे रहा है ?
स्वामी रामतीर्थ ने कहा है- “मैं कौन हूँ जिसके चारों तरफ चांदत्तारे घूम रहे हैं? मैं कौन हूँ जिसके लिए सुबह होती है… सांझ होती है… आकाश में तारे टिमटिमा रहे हैं।
मैं कौन हूँ ? अर्थात् एक ऐसा प्रश्न जिसका उत्तर बिना जाने या बिना आत्मज्ञान प्राप्त किए शाश्वत लक्ष्य की प्राप्ति सम्भव नहीं है।
जीवन में तुमने जो भी चाहा उसके पीछे तुम्हारी इच्छाएं-कामनाएं ही तो हैं।
मधुर असत्य है वह जिसे कहना और सुनना दोनों ही अच्छे लगते हैं। मैं तुझे खुश देखना चाहता हूँ क्योंकि उसकी ख़ुशी में भी तुम्हारे हृदय में स्वयं आनंद प्राप्ति का भाव है। सत्य यही है कि हम जो कुछ चाहते हैं अथवा करते हैं, उसमें अपनी आत्मा की ख़ुशी और चाह की पूर्ति ही छुपी है। यदि चिन्तन कर सको तो तुम्हें लगेगा कि सारा प्रेम, राग, आसक्ति, चाह, वासना, तुम्हारे अपने ही सुख के लिए है। सब साधन मात्र हैं! साध्य तुम स्वयं हो।
उपनिषदों से प्रभावित यूरोप के दार्शनिक इमेनुएल कांट ने एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही है।
एक डूबते हुए व्यक्ति को बचाने के लिए तुम नदी में कूद गए। लोग तुमको परोपकारी ही कहेंगे क्योंकि तुमने दूसरे की जान बचाने को अपनी जान दांव पर लगा दी लेकिन जब ध्यान से सोचोगे तो समझ लोगे कि जब तुमने डूबते को बचा लिया तो तुम प्रसन्न हुए। इससे भी तुम प्रसन्न हुए कि तुम किसी अन्य के लिए अपनी जान दांव पर लगा सकते हो। सत्य यह है कि तुम्हारी आत्मा उसको डूबते हुए नहीं देख पायी और तुम कूद गए अपनी आत्मा की ख़ातिर नदी में। समस्त चराचर के लिए जो तुम्हारा मोह है, उसके मूल में तुम्हारी आत्मा ही है।
एक बार पाँच- सात साल की एक लड़की डेढ़-दो साल के तन्दुरुस्त लड़के को गोद में लिए खेत से घर की ओर जा रही थी। चार कदम चलती थी और बच्चे को गोद से उतारकर पसीना पोंछने लगती थी।
किसी ने पूछा-“भारी है?” लड़की ने बच्चे को गोद में सहेजते हुए कहा-“नहीं! भाई है।” लड़की कष्ट में भी प्रसन्न है क्योंकि भाई के लिए हृदय में चाहत है।
यह जो मोह रूपी खंभा है ! तुम्हीं ने पकड़ा हुआ है , छोड़ना भी तुमको ही पड़ेगा।
कौन है तो समझा रहा है की अपने गुणों, धार्मिक एवं सांसारिक उपलब्धियों/सम्पन्नता का प्रदर्शन करो!
सहज भाव अथवा किसी स्वार्थ-भय से ही सही, यदि अच्छे कर्म बन पड़ रहे हैं तो उससे आत्मविभोर क्यों हुए जा रहे हो ? इसमें अहंकार का भाव क्यों ? यह तो मानव का धर्म है। सारी ऊर्जा और इंद्रियाँ की शक्ति लगा रहे हो अपने को सदगुणी और सुंदर दिखाने में। अपने सद कर्मों अथवा उपलब्धियों के प्रचार से हृदय में श्रेष्ठता का ही भाव आता है, जो अहंकार का ही परिवर्तित रूप ही है। अहंकार किसी भी मार्ग से आए उससे बचना ही चाहिए।
कितने चतुर हो! जिन कार्यों से लगता है लोग प्रशंसा करेंगे उनके प्रचार और बखान पूरी शक्ति और युक्ति से कर रहे हो एवं यदि किसी कर्म से अपयश प्राप्ति का भय है तो उसको प्रकट करने से भी डरते हो! छुपते-छुपाते जीवन का मूल्यवान समय नष्ट करने पर तुले हो। जीवन में यदि तुम्हारी चाह के अनुरूप कार्य न हों तो सारी मर्यादा और नैतिकता भूल कर जुट जाते हो अपनी चाह पूरी करने में।भले ही जीवन में अशांति और वैर भाव प्रवेश कर जाए। जब जब आत्मा की स्वार्थ रूपी चाहतें पूरी नहीं होंगी! वो तुमको अस्थिर और बेचैन कर देगी। यदि अन्य की प्रसन्नता/उन्नति के लिए ही तो कार्य/सेवा कर रहे थे! अब नहीं कर पा रहे हो तो तुम दुःख के सागर में क्यों गोते लगा रहे हो? यह अनुभूति तो उसको होनी चाहिए, जो प्राप्ति से वंचित हो गया है। संत जन का तप, योग, भजन, मनन सब आत्मसुख के लिए ही तो है, इसमें जनकल्याण की भावना हो सकती है।
इसी प्रकार सभी ढोंग, प्रपंच, सदकर्मों का प्रदर्शन अपनी इच्छाओं का पोषण और महत्वाकांंक्षाओं की पूर्ति के निमित्त मात्र है।
प्रभु की प्रसन्नता के लिए बताए गए आध्यात्मिक यज्ञ-कथा आदि में भीड़ न आए तो दुखी हो जाते हो, विचार करो यह यज्ञ भी अपनी और संसार की प्रसन्नता के लिए ही तो कर रहे हो। यदि प्रभु के निमित्त होता तो तुम संसार की उपस्थिति नहीं, अपितु ठाकुर जी की कामना करते। जितना ध्यान तुम संसार को जिमाने में लगाते हो, मीनू बनाते हो, विचार विमर्श करते हो, हलवाई आदि खोजते हो, यदि हृदय में यही मनोभाव ठाकुर जी के प्रसादी के लिए आ जाए तो सार्थक आनंद की अनुभूति प्राप्त कर सकोगे।
यदि प्राण संकट आन पड़े तो सारे संसाधन लगा कर, जिस प्रकार रक्षा के लिए तुम डॉक्टर खोजते हो, यदि उसी जागरूकता के भाव से गुरु खोज लेते तो आज जीवन में परमानंद होता।
विचार करोगे तो समझ जाओगे कि तुम सभी कर्म अपनी ही प्रसन्नता के लिए कर रहे हो, अपने गुणों और कार्यों का बखान भी तुमको ही प्रिय है।
संसार के सामने यह जो अच्छा दिखने की लालसा है, उसी में सम्पूर्ण शक्ति से लगे हो। ज्ञान, वैराग्य, तप, त्याग, साधना सभी लगे हैं प्रदर्शनी में। दूसरे से श्रेष्ठ या कहें सर्वश्रेष्ठ की होड़ में भूल रहे हो अपना मूल मार्ग।
महापुरुष अपने स्वभाव अथवा आचरण जनसामान्य की प्रसन्नता के लिए न धारण करते हैं। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार गंगा जी की सुलभता सभी के लिए समान हैं! स्नानार्थी की प्रकृति, गुण-दोष, शारीरिक बनावट, लम्बाई-मोटाई, सम्पन्नता-विपन्नता के अनुसार माँ गंगा अपने प्रवाह और गुण में परिवर्तन नहीं करतीं ।
सन्त च्वांगत्सु एक अन्धेरी रात में शाही मरघट से गुजर रहा था और उसको नरमुण्ड से ठोकर लगी। वह खोपड़ी को घर ले आया और क्षमा याचना करने लगा।
लोगों पूछा यह क्या कर रहे हो ? च्वांगत्सु ने उत्तर दिया यदि यह आज जीवित सिंहासन पर विराजमान होती तो मेरा सर धड़ से अलग हो जाता। अतः क्षमा याचना कर रहा हूँ।
दूसरा मैं इसको यह भी बता रहा हूँ कि ए खोपड़ी! तू सोच कि कभी तू सिंहासन के अहंकार में मदमस्त रही और आज फकीर की ठोकर खा रही है लेकिन ‘उफ’ भी नहीं कर सकती। कहाँ गया तेरा अहंकार?”
प्रदर्शन अथवा प्रचार जीवन में कठिनाई और अहंकार ही उत्पन्न करते हैं अतः इनसे बचना चाहिए।
स्वामी राम कृष्ण परमहंस ने कभी अपनी साधना का प्रदर्शन नहीं किया! किसी शिष्य ने कहा, गुरुदेव एक संत समीप में ही निवास कर रहे हैं, वह खड़ाऊँ पहन कर गंगा के प्रवाह को चलते हुए पार कर लेते हैं।
परमहंस जी ने कहा, जो कार्य दो टका देकर हो सकता है, उसके लिए वर्षों की साधना क्यों नष्ट करें ?
आज सम्पूर्ण विश्व स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी को पूरी श्रद्धा से नमन करता है किंतु बिना नौका गंगा पार करने का प्रदर्शन करने वाले संत के नाम का भी कहीं उल्लेख नहीं है।
भाव यही है की सांसारिक यश के लिए यदि प्रयत्नशील हो तो वह यश तुम्हारे साथ ही चला जाएगा और हो सकता है तुम्हारे इसी जीवन काल में ही नष्ट हो जाए ! फिर क्यों अज्ञानी की तरह रेत को मुट्ठी में बंद करने के प्रयास में लगे हो।
भ्रम छोड़ो तुम स्वयं के ही कर्मों से विचलित हो रहे हो! तुम्हारे बारे में कोई कुछ नहीं सोच रहा है और न ही तुम्हारे बारे में उसकी कोई धारणा है। यह तुम्हीं हो जो स्वयं के विषय में धारणा बना कर बैठे हो और उसी को दूसरों की आँखों में देख दुखी अथवा प्रसन्न हो रहे हो।
अंतर्जगत की प्रसन्नता के लिए समर्पित सद कर्म आत्म उन्नति में सहायक होते हैं। एक ही कर्म से अंतर्जगत और बहिर्जगत दोनों में ही समान प्राप्ति सम्भव नहीं हैं अतः दिखावे और प्रदर्शन से यथासम्भव बचो।
एक ब्रह्मचारी जी अपने परिकर के साथ आश्रम लौट रहे थे। रात्रि का समय था।
शिष्यों ने कहा कि महाराज आपके पास टॉर्च है, जला क्यों नहीं लेते। संत ने जवाब दिया, यदि बिना अपनी उपस्थिति का आभास कराए, रास्ता पार हो रहा है तो टॉर्च क्यों जलाएँ? टॉर्च का प्रकाश हो सकता है कि जंगल में चोर डाकुओं को भी आकर्षित करे। ठीक इसी प्रकार अध्यात्म अथवा सांसारिक उपलब्धियों का बखान अँतोगत्वा कष्टप्रद ही होता है।
अज्ञः सुखमाराध्यः सुखातारामाराध्यते विशेषज्ञः|
ज्ञानलवदुर्विदग्धम ब्रह्मापि तं न रंजयति॥
अज्ञानी व्यक्ति को सहज ही समझाया जा सकता है, विशेष ज्ञानी को और भी आसानी से समझाया जा सकता है परन्तु लेशमात्र ज्ञान पाकर ही स्वयं को विद्वान् समझने वाले गर्वोन्मत्त (अभिमानी) व्यक्ति को साक्षात् ब्रह्मा भी संतुष्ट नहीं कर सकते।
संसार के सामने अपनी कलाओं और का प्रदर्शन क्षणिक सांसारिक सुख दे सकता है किंतु अपने गुणों के सदुपयोग से लोक और परलोक दोनों जगह सुख पाओगे। संसार के सामने सम्पूर्ण नृत्य कला का प्रदर्शन भी किसी को को क्या दे सकता है? यदि प्रभु के समक्ष सम्पूर्ण भाव से नाचते तो मीरा हो जाते। भाव यही है संसार को साधन बनाओ, साध्य नहीं। इसी में मानव जीवन की सार्थकता है।
– कपिल शर्मा ,
सचिव,
श्री कृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान,
मथुरा
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