बिहार ,बंगाल ,उत्तर प्रदेश में बिछाए साम्प्रदायिक राजनीति की बिसात पर बीजेपी को लाभ देकर वापस गयें एआई एमआईएम प्रमुख
राजीव कुमार सिंह
यूपी में शर्मनाक हार के कारणों और बिना यूपी की जनता को धन्यवाद किए
ए आई एम आई एम के राष्ट्रीय अध्यक्ष असद्दुदीन ओवैसी वापस हैदराबाद लौट गए है ।इसके साथ ही साथ भागीदारी संकल्प मोर्चा के संयोजक बाबू सिंह कुशवाहा की राजनीतिक पार्टी की कोर जमीन भी खिसकाते गए ,जिसे बाबू सिंह कुशवाहा एवं उनके सहयोगियों ने काफी विषम परिस्थितियों में तैयार किया था ।
यूपी की विधानसभाओं में 500 से लेकर 20000 मतों पर सीधा असर डालते हुए भाजपा की सत्ता में वापसी का मार्ग आसान करने वाले असदुद्दीन ओवैसी की रणनीति को कुछ ही लोग समझ पाते है, जो राजनीति के विभिन्न पहलुओं से अवगत है । मीडिया ने ओवैसी को हिंदुत्व चेहरा विरोधी बनाते हुए इस्लाम का पक्षधर दर्शाते हुए लगातार दिखाया है ,जिससे अन्य पिछड़ी जातियों में मुसलमानों के प्रति द्वेष की भावना उत्पन्न हो, उधर अतिउत्साही कार्यकर्ता भी इस्लाम और ओवैसी को लेकर काफी संवेदनशील रहे है ।जिसका सीधा असर इस चुनाव परिणाम में देखने को मिला है ।
इसे नए तरीके से समझने की कोशिश करेंगे तो स्थिति और स्पष्ट हो जाएगी ।भारत में राजनीतिक तौर पर भले मजहबी बिखराव रहा हो,लेकिन ओवैसी की एंट्री के साथ ही हिन्दू और मुसलमान के मुद्दे सबसे शीर्ष पर रहे है । वे लगातार कभी हिंदुओ पर हमलावर रहे तो कभी इस्लाम की धार को तेज करने के बयान को लेकर विवादों में रहे । हैदराबाद में मेडिकल एवं इंजीनियरिंग कॉलेज के नेटवर्क को चलाने वाले ओवैसी पर किसी भी राजनीतिक पार्टी ने हाथ नही डाला बल्कि जौहर विश्वविद्यालय पर अवैध तरीके से निर्माण एवं अन्य मामलों को लेकर यूपी के कदावर नेता आज़म खाँ को जेल में रखा गया । आज़म खा के राजनीतिक गर्दिश में आने के बाद ओवैसी ने हैदराबाद के बाहर अपने संगठन को बढ़ाना और चुनाव लड़ना शुरू कर दिया । उनका पहला पायदान बिहार था, राजद और जेडीयू के आपसी बर्चस्व का लाभ लेते हुए , उपेंद्र कुशवाहा को विश्वास में लेकर ओवैसी ने नीतीश कुमार के कुशवाहा वोट बैंक को खिसकाते हुए नीतीश कुमार को 44 सीटों पर निपटा दिया ,बल्कि खुद जेडीयू की सहयोगी गठबंधन भाजपा ,जेडीयू से अधिक सीटें पाई । चुनाव में 4 सीटें लेने के बाद ए आई एम आई एम के राष्ट्रीय अध्यक्ष असद्दुदीन ओवैसी फिर बिहार में वहाँ जनता की खबर लेने नही गए ,और नीतीश कुमार को वैसाखी की सरकार चलाने के लिए मजबूर कर दिया जो कभी 2014 में प्रधानमंत्री पद की लाइन में खड़े होना चाहते थे ।
यूपी में भी असदुद्दीन ओवैसी को ठिकाने के तलाश थी ,जिसे बाबू सिंह कुशवाहा ने पूरा किया और मिलकर चुनाव लड़े ,जिसका परिणाम आपके सामने है । हालांकि यह सबसे अच्छी बात रही कि यूपी की आवाम ने असदुद्दीन ओवसी को वापस हैदराबाद तक सीमित कर दिया ,लेकिन बाबू सिंह कुशवाहा को अपने कोर वोट का नुकसान उठाना पड़ा ।
यूपी के कई शीर्ष नेता और जन अधिकार पार्टी से जुड़े लोग संवाद में यह बताते रहे कि ओवैसी लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों की बात कर रहे है , जो उनके विचारों से मेल खा रहे है, साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर ये नेता बोलते रहे कि ओवैसी में बहुत बदलाव आ गया है ।लेकिन मेरा सवाल उनसे बराबर रहा कि साम्प्रदायिकता के बुनियाद पर खड़े नेता में बदलाव कैसे आ सकता है? उसपर उनका कोई संतोषजनक उत्तर नही मिलता था ।
बिहार से लगभग 13 वर्षों तक राज्यसभा में सांसद रहे ,पसमांदा महाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष अली अनवर जी बताते है कि जब संसद में जब तक सामाजिक न्याय प्रेमी एवं इंटेलेक्चुअल राजनीतिक चेहरे रहे है ,तब तक ओवैसी पार्लियामेंट में साम्प्रदायिक बिखराव जैसे मुद्दों पर नही बोलते थे ।लेकिन लालू,नीतीश सहित जैसे कई नेता जब संसद से बाहर हुए तो ओवैसी के कद में इज़ाफ़ा हुआ और साम्प्रदायिक मुद्दों पर मुखरता आई । जो देश में भाजपा के लिए राजनीतिक ध्रुवीकरण में मददगार साबित हुई ।
ज्ञात हो कि ओवैसी पहले मुस्लिम सांसद है ,जिन्होंने 2019 के लोकसभा शपथ ग्रहण के दौरान लोकतंत्र के मंदिर में अल्लाहु अकबर के नारे लगाए,जिसके जवाब में भाजपा सांसदों ने जय श्री राम के नारे लगाए ,जो कि भारतीय संविधान के चरित्र के अनुरूप सही नही था । हालांकि राजनीतिक विश्लेषकों ने इसे सेकुलरिज्म के खिलाफ बताया है ,जिस तरह से भारतीय संविधान सेक्युलरिज्म का पक्षधर है ,इस तरह की किसी भी धर्म विशेष का बढ़ावा किसी भी संवैधानिक संस्था या निकाय में नही किया जा सकता । धर्म व्यक्ति का निजी मसला है ,और इसे उनके पास तक ही सीमित रखना चाहिए ।