धर्म की चटनी चटा, कर रहें जनमुद्दों से दगा: राजनीति में धर्म के मेल से असल मुद्दों पर बड़ा खेल खेल रहे राजनेता

Cover Story अन्तर्द्वन्द

कभी प्यासों को पानी तक न पूछने वाले आजकल धार्मिक बन रहे है, धर्म के बहाने ऊँचे पदो पर आसीन

अजय पटेल वाग्मी
अजय पटेल वाग्मी

समय सदैव गतिमान है यह अकाट्य सत्य है मगर वर्तमान राजनीति में नीति को किनारे रखकर केवल राज करने की मंशा ने भारत के आम जनमानस का जीवन बुरी तरह त्रस्त कर दिया है। जिस डिजिटल प्लेटफार्मो का उपयोग देश के विकास में होना था आज उसका अधिकतर प्रयोग एक ऊर्जावान पीढ़ी को अपंग और निरीह बनाने में किया जा रहा है।

भारत इस समय विश्व की सबसे बड़ी युवा आबादी वाला देश है और यही चीज इसे विश्व का अगुआ बनाती मगर अफसोस कि कुशल नेतृत्व के अभाव में भारत की यही सबसे बड़ी शक्ति उसके लिये बेरोजगारी रूपी अभिशाप बनी हुई है।

हम अपने देश के युवाओं का उचित दिशा में सदुपयोग तो कर नही पा रहे बल्कि राजनैतिक दलो के द्वारा बने बनाये जाल में फंसकर केवल फैशन हेतु धार्मिक बनने का ढोंग रचा रहे है।

हमारा सबसे पहला धर्म यह होता है कि हम अपने राष्ट्र की रक्षा अखण्डता और एकता हेतु सर्वस्व न्यौछावर कर दे मगर आप गौर करेंगे तो आपको पता चलेगा कि बड़ी चालाकी से आपको वास्तविक भक्ति, धर्म, ज्ञान की अपेक्षा बाजारू धर्म का आदी बनाया जा रहा है।

जिस प्रकार से एक किसान का धर्म अनाज पैदा करना होता है ठीक उसी प्रकार एक सरकार का धर्म आम जन का कल्याण करना होता है मगर यहाँ तो ऐसा भाव पैदा किया जा रहा है कि महंगाई बढ़ने पर यह महसूस कीजिए कि आपने शेर पाला है तो महंगा पड़ेगा ही।

सही ही है, शेर हिंसक होता है और खून पीता है मगर आम जनता का खून पीकर आपके शेर ने हाय बटोरी है हाय।
कहा भी गया है कि—दुर्बल को न सताईए जाकी मोटी हाय,
मुई खाल की श्वास से सार भसम हो जाए

आम जरूरत की चीजो के दामो में जिस प्रकार से लगातार उछाल हो रहा है इससे साफ पता चलता है कि राजनीति धर्म का उपयोग कर अधर्म को पोषित कर रही है.

इस देश के इन बेकार पड़े युवाओ को ये धार्मिक नारे कितने भारी पड़ेगे यह तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन इतना साफ-साफ परिलक्षित हो रहा है कि जिस देश को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, तकनीकि और अन्वेषण पर चर्चा करनी चाहिए उस देश में कौन क्या खायेगा?

कौन किस जाति और धर्म का है?

इस विषय पर घंटो लाखो खर्च करके बकैती हो रही है।
धर्म का ‘ध’ भी न जानने वाले बस एक दो नारो को चिल्लाकर स्वयं को धार्मिक घोषित कर रहे है कभी प्यासों को पानी तक न पूछने वाले धार्मिक बन रहे है और इतना ही नही जनता हेतु सेवा धर्म के बहाने ऊँचे पदो पर आसीन लोग उसी जनता से जानवरो जैसा व्यवहार कर रहे है और कह रहे है कि हम धार्मिक है ।

अरे साहब आज किसी भी घर के मुखिया से पूछिये कि परिवार के संचालन हेतु उसकी रीढ़ की हड्डी कितनी झुक चुकी है और आपके धर्म की चटनी के कारण उसके मुँह से उफ्फ़ तक नही निकल रही है क्योकि उसने भी सीना ठोक के कहा था—अच्छे दिन आने वाले है ऐसे धार्मिक लोगो से तो कई गुना वे विधर्मी ही ठीक थे।

-अचूक संघर्ष-

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