राजद्रोह (Sedition) – लोकतंत्र में फिरंगी कानून का खात्मा, उच्चतम न्यायालय ने लोकतंत्र की बचाई आत्मा

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 सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह कानून के इस्तेमाल पर लगाई रोक

 केंद्र सरकार कानून पर कर रही है पुनर्विचार

 पुनर्विचार तक नहीं दर्ज होगा कोई नया केस

राजद्रोह (Sediton Law) के मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने इतिहास बनाया है, क्योंकि सत्तर साल के इतिहास में अब तक ऐसा नहीं हुआ कि सुनवाई के दौरान किसी कानून को कोर्ट ने अपने एक आदेश से बेहोश कर दिया हो. यानी राजद्रोह के अपराध और सजा को लेकर एक वैक्यूम, खालीपन और रिक्तता आ गयी है।”

निखिलेश मिश्रा

हमारी IPC १८६० में आस्तित्व में आई थी। १८३४ में लार्ड मैकाले की अध्यक्षता में प्रथम विधिक आयोग बनाया गया था जिन्होंने इसका ड्राफ्ट तैयार किया था। यह पूरे भारत मे १८६२ में लागू की गई थी। तब भारत का “देश” के रूप में अस्तित्व नही था। तब भारतीय उपमहाद्वीप कई रियासतों में बंटा हुआ था। राजा राज्य पर शासन करता था। इस क्षेत्र को अंग्रेजो ने भारतीय उपमहाद्वीप नाम दिया था। सरदार पटेल को भारत मे एकीकरण का दायित्व दिया गया था। जब संविधान बना तब देश का नाम भारत अर्थात इंडिया रखा गया।

संविधान के अनुच्छेद १ में देश का नाम दिया गया है जिसमे हमारे देश के दो नाम दिए गए है “भारत” और “इंडिया”। इसका अर्थ यह है कि अंग्रेजी में भी यही दो नाम “Bharat” और “India” है। इसका यह अर्थ कतई नही है कि एक नाम भारत को ही अंग्रेजी में इंडिया कहा गया है। भारत २८ राज्यो, ८संघ और १ एनसीआर का संघ है अर्थात इनसे मिलकर भारत “देश” बनता है।

देशद्रोह जैसा कोई अपराध IPC में नही है। IPC १८६० सेक्शन १२४(क) में “Sedition” शब्द की बात करता है जिसका हिंदी में अर्थ होता है “राजद्रोह” अर्थात वह राजा जो अंग्रेजो के समय हमारे भूभाग पर राज करता था मतलब जार्ज पंचम। यह तब हमारे भूभाग पर शासन कर रहा था हम इसके गुलाम थे। यदि कोई वयक्ति उसके खिलाफ कुछ बोलता था तो उसे इस सेक्शन के अंतर्गत जेल भेजने का प्राविधान किया गया था। आज भी “राजद्रोह” शब्द ही है “देशद्रोह” नही है।

राजद्रोह के विषय मे प्राविधान करने वाली धारा १२४(क) के अनुसार विधि द्वारा स्थापित सरकार के विरुद्ध लिखकर बोलकर संकेतों द्वारा अथवा अभिव्यक्ति के जरिए अप्रीति अथवा नफरत फैलाता है या ऐसी कोशिश करता है तब मामले में १२४(क) के तहत केस बनता है। इस कानून के तहत दोषी पाए जाने पर अधिकतम उम्रकैद की सजा का प्रावधान है, वही इस कानून के दायरे में स्वस्थ आलोचना नहीं आती है।

स्पष्ट है कि इस धारा के अनुसार देश के खिलाफ कुछ कहना अपराध नही कहा गया है। इस धारा में स्पष्टीकरण भी है। पहला स्पष्टीकरण(एक्सप्लेनेशन) कहता है कि अप्रीति के अंतर्गत अभक्ति और शत्रुता की समस्त भावनाये आती हैं। दूसरा स्पष्टीकरण(एक्सप्लेनेशन) कहता है कि घृणा, अपमान या अप्रीति को प्रदीप्त किये बिना या प्रदीप्त करने का प्रयत्न किए बिना सरकार के कामो के प्रति विधिपूर्ण साधनों द्वारा उनको परिवर्तित कराने की दृष्टि से अनुमोदन प्रकट करने वाली टीका टिप्पणियां इस धारा के अंतर्गत अपराध नही है।

तीसरा स्पष्टीकरण(एक्सप्लेनेशन) कहता है कि घृणा, अपमान और अप्रीति को प्रदीप्त किये बिना या प्रदीप्त करने का प्रयत्न किए बिना सरकार की प्रशासनिक या अन्य क्रिया के प्रति अनुमोदन प्रकट करने वाली टीका टिप्पणियां इस धारा के अंतर्गत अपराध का गठन नही करती।

स्पष्ट है कि भारतीय दंड संहिता की यह धारा राजद्रोह के विषय मे प्राविधान करती है जिसके अंतर्गत युक्तियुक्त तरह से यदि सरकार के प्रति या उसके भृष्टाचार के प्रति की जाने वाली बात हो या किसी अन्य क्रिया कलाप में ऊपर उंगली उठाई जा रही है तो यह अपराध नही है तथा देशद्रोह शब्द इसमें नही है।

नाजिर खान बनाम स्टेट ऑफ दिल्ली वर्ष २००३ मामले में कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति ऐसे शब्दो का प्रयोग करता है जिससे सरकार के खिलाफ घृणा फैलती हो तो यह उस व्यक्ति को सजा देने का पर्याप्त आधार है।

केदारनाथ सिंह बनाम स्टेट ऑफ बिहार वर्ष १९६२ मामले में स्पष्ट रूप से कहा है कि सेक्शन १२४(क)व ५०५ अति महत्वपूर्ण सेक्शंस है जो अव्यवस्था पैदा करने से लोगो को रोकते हैं, सरकार के खिलाफ किसी बात को करने और घृणा पैदा करने से रोकते हैं। ऐसा कोई कृत्य जो सरकार के खिलाफ घृणा पैदा करता हो या अव्यवस्था फैलता हो, दण्डनीय अपराध होगा।

मेरे अनुसार सरकार को इस प्राविधान में सँशोधन करना चाहिए क्योंकि हम जिस आलोचनात्मक लोकतंत्र में रहते हैं वहां सरकार की आलोचना करने का अधिकार नागरिको को होना चाहिए लेकिन देश के खिलाफ बोलना भी अपराध अवश्य होना चाहिए जिसे देशद्रोह के अपराध के अंतर्गत लाया जाना चाहिए। सरकारो को इसकी नई परिभाषा गढ़ने की आवश्यकता है जो आज समय की मांग बन चुकी है।

संविधान में पीएम और सीएम के कामो की आलोचना करने की मनाही कहीं नही है। अगर ऐसा होता तो लोकतंत्र नही बल्कि तानाशाही कहलाती। जो लोग अपनी समस्याओं के निस्तारण के लिए पीएम और सीएम को चुनकर सत्ता में बैठाते है उन्हें ही पीएम और सीएम के बारे में अपनी सन्तुष्टि या असन्तुष्टि जाहिर करने का हक ना हो यह प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध तो है ही बल्कि लोकतंत्र की विचारधारा के भी विपरीत है।

आलोचना आहत करने वाली नही होनी चाहिए यह अवश्य कहा गया है यानी लोकव्यवस्था और समाज के लिए खतरा पैदा करने में सक्षम नही होनी चाहिए किन्तु पीएम और सीएम के कामो से लोग सन्तुष्ट नही है तो वे अपनी अप्रीति जाहिर कर सकते हैं किंतु अन्य में वह अप्रीति ना फैल पावे ऐसी ठेकेदारी की ना तो कोई व्यवस्था की गई है और ना ही कोई उपचार किया गया है।परिणामतः हर आलोचना को अप्रीति मानकर अप्रीति फैलाने में सक्षम मानकर 124A में बुक कर दिया जाता है। खामियां संविधान में भाषा और मर्यादाये स्पष्ट ना होने में है लेकिन खामियाजा लोग भुगतते आ रहे हैं।

क्या सम्पूर्ण विश्व मे कोई ऐसी आलोचना हो सकती है जो अप्रीति ना हो और अप्रीति फैलाने में सक्षम ना हो?

यदि नही तो खुद में सुधार करने के बजाय लोगो को 124A में बुक करना अतार्किक है न्यायोचित नही है। राजद्रोह नही देशद्रोह को 124A में परिभाषित किया जाना चाहिए। राजा के कामो से असन्तुष्टि की दशा में उसे जाहिर करने का पूरा हक होना चाहिए।यदि उसे जाहिर करने से अप्रीति फैलती है तो इसका जिम्मा सत्ता का होना चाहिए, कि वह खुद में सुधार करे। सामने वाले के खिलाफ कार्यवाही केवल तब बनती है जब उसके द्वारा लगाए गए आरोप असत्य पाए गए हों ताकि उसकी दुर्भावना स्पष्ट हो सके।

इस बाबत कानून व संविधान में आंशिक संशोधन आवश्यक है।

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