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अल्पमपि क्षितौ क्षिप्तं वटबीजं प्रवर्धते।
जलयोगात् यथा दानात् पुण्यवृक्षोऽपि वर्धते॥
जमीन पर डाला हुआ वटवृक्ष का छोटा सा बीज जैसे जल के योग से बढ़ता है, वैसे पुण्य का वृक्ष भी दान से बढ़ता है। सनातन धर्म में धार्मिक एवं पुण्य कार्यों में दान के महत्व का विशद वर्णन तो किया ही गया है, दान कर्म को श्रेष्ठ भी बताया गया है।
दान के लिए कृत-संकल्पित राजा बली के मस्तिष्क पर भगवान विष्णु के पंचम और त्रेतायुग के प्रथम अवतार वामन भगवान ने स्वयं अपना चरण रखा है। मनुज, देव, दानव किसी के लिए भी इससे सुंदर प्राप्ति और क्या हो सकती है, जो राजा बली ने दान के प्रताप से सहज प्राप्त कर ली।
वीर बर्बरीक, सूर्य पुत्र कर्ण, राजा हरिश्चन्द्र, राजा शिवि, महर्षि दधीचि, एकलव्य, आदि दानवीर के लिए हृदय श्रद्धा और प्रेम से भर उठता है। सहज नहीं था राजा बली के लिए, गुरु, बन्धु-बांधवों के निर्देश अथवा आग्रह की अवहेलना कर बटुक रूप श्री हरि: को सर्वस्व समर्पित कर देना, परमवीर बर्बरीक का श्रीहरि को अपना शीश समर्पित करना, राजा हरिश्चन्द्र के लिए राजपाट का विश्वामित्र जी को दान और सत्य की रक्षा के लिए अशेष बलिदान करना, राजा शिवि के द्वारा एक कबूतर की रक्षा के लिए अपना देह दान। धर्म की रक्षा के लिए महर्षि दधीचि का देह दान, महान धनुर्धर एकलव्य द्वारा अपनी सम्पूर्ण साधना रूपी अँगूठे को गुरु दक्षिणा में देना। न ढिंढोरा पीटा, न कोई योजना बनायी, न कोई तिथि निश्चित की और बिना किसी प्रतिफल की अभिलाषा, बिना विचलित हुए, बिना अभिमान, सहज प्रेम से न्योछावर कर दिया सर्वस्व। दान सर्वदा प्रेम से ही सम्भव है। शास्त्रों में दान का स्वरूप बताया है कि :
दाता प्रतिगृहीता च शुद्धि र्देयं च धर्मयुक्।
देशकालौ च दानानाम ङ्गन्येतानि षड् विदुः॥
दाता, लेने वाला, पावित्र्य, देय वस्तु, देश, और काल– ये छ: दान के अंग हैं। भाव यही है कि देने वाला अभिमान से रहित-प्रेम और मैत्री भाव से दान करे। ग्रहण करने वाला पात्र हो और उसके हृदय में ग्लानि, कष्ट एवं हीनता का भाव उत्पन्न न हो। पावित्र्य अर्थात् धन, आचरण और भाव की पवित्रता हो। देय वस्तु अर्थात् जो वस्तु दान करें उसकी उपयोगिता होनी चाहिए। देश और काल के अनुरूप अर्थात् दान परिस्थितियों एवं समय के अनुरूप होना चाहिए।
यदि दान का उद्ग़म प्रेम और कृपा से है तो आपको स्वयं ही अनुभव नहीं होगा कि आप दान कर रहे हो। आपको दान का स्मरण तो नहीं होगा अपितु आप अनुगृहीत हो उठेंगे उनके प्रति जिन्होंने आपको सेवा का अवसर दिया। देने में अपार सुख मिल रहा है, कृतकृत्य हो रहे हैं कि कृपा हो गयी। मुझसे कुछ स्वीकार करने को राज़ी हो गए। दान का चिन्तन ही नहीं हो रहा, सहज प्रेम से किए जा रहे हैं। कर्म में दान का भाव ही नहीं आ रहा है , समर्पण में ही परमानन्द मिल रहा है।
जहां दाता का अहंकार ऊपर हो, प्राप्त करने वाला दीनता और हीनता के बोझ से ही दबा जा रहा हो तो दान का यह स्वरूप कदापि नहीं है।
वर्तमान समय में सभी कार्य बुद्धि से ही सम्पन्न हो रहे हैं, दान कर्म में भी बुद्धि अपना कार्य कर रही, परिणामतः दान में प्रेम की जगह अहंकार ने ले ली है।
क्या समानता है निर्मल पवित्र दान कर्म और कुछ देने में ? किसी महापुरुष ने कहा कि इनमें वही अन्तर है जो असली फूल और नक़ली फूल में होता है। भय दिखा कर, स्वर्ग-नर्क का भ्रमण करा कर अथवा फुसला कर कराए गया दान तो मात्र स्वार्थ की पूर्ति के लिए किया गया कर्म है, दान नहीं। किसी स्वार्थ अथवा भय से किये गये दान से तो दान करने वाले की ही सेवा – सहायता हो रही है। जैसे धन दे जाओ और पाप मुक्त हो स्वर्ग की सीढ़ी चढ़ जाओगे। जितना बड़ा दान उतना ही बड़ा आश्वासन मिल रहा है।
जीवन स्वप्न में ही तो गुजर रहा है, दान भी सपने देख देख कर अथवा सपने बेच कर ही तो सम्पन्न हो रहे हैं। जिन्होंने स्वर्ग-नर्क का ज्ञान कराया, वही स्वर्ग प्राप्ति का मार्ग भी बता रहे हैं, या कहें कि स्वप्न बेच रहे हैं। यदि दो चार कमरे दान करने से स्वर्ग में आलीशान महल का आश्वासन मिल रहा है, तो सौदा घाटे का तो नहीं है। कैसी मानसिकता हो गयी है कि सपने भी वही ख़रीद रहे हैं, जिनमें फ़ायदा दिख रहा है। खरे सपने भी डरा रहे हैं।
किसी को फुसलाकर-पटाकर, दान के लिए तैयार कर रहे हैं तो इससे तो उसके हृदय में दाता का अहंकार ही आएगा और और वह देगा भी बड़े बड़े होर्डिंग और नाम के पत्थर लगवाने के लिए ही। यह दान की श्रेणी में आएगा क्या ? संत मत से कदापि नहीं क्योंकि दान तो प्रेम का पर्यायवाची है।
कहीं सुना है कि एक वृद्ध भिक्षुक ने एक व्यक्ति के आगे हाथ फैलाया और कहा बहुत भूखा हूँ, कुछ दो। उस व्यक्ति ने अपनी जेबें टटोली, परेशान हो उठा, कुछ नहीं मिला जेबों में।
उस व्यक्ति ने भिक्षुक के हाथ पर अपना हाथ रख कर प्रेम से बोला, भैया क्षमा करना! आज क़ुछ नहीं है मेरे पास।
मैं कल जब आऊँगा तो तुम्हारे लिए अवश्य कुछ लाऊँगा। वृद्ध भिक्षुक बिलख बिलख कर रोने लगा, बोला आज तुमने मुझे अपना हाथ दे दिया, भैया बोला, इतना प्रेम दिया, मैं तृप्त हो गया। ऐसी दिव्य भिक्षा तो पहले कभी मिली ही नहीं।
भोजन, पैसा तो मिलता रहा परंतु यह प्रेम पहली बार मिला है, स्वयं के लिए भैया पहली बार सुना है। कुछ समय और ठहर जाओ, मैं इस आनंद में कुछ पल और जी लूँ।
दान का अर्थ मात्र धन के दान में निहित नहीं है अपितु जो है पास में उसको बाँटो। ज्ञान है तो लोगों को शिक्षित करो, शक्ति है तो निर्बल की रक्षा करो, संगीत है तो आनंद बाँटो। हृदय से प्रेम तो बाँट ही सकते हो। संत मत से, धन अथवा जो भी सामर्थ्य पास है, यदि उसको बाँट नहीं सकते तो स्वयं भी उसका सार्थक भोग नहीं कर सकते।
एक सेठ थे, भारी कंजूस। अपने धन से कभी किसी की सहायता नहीं की और न ही कभी अपने ऊपर खर्च किया। गाँव में अकाल पड़ा, सभी सहायता की आशा में सेठ के पास गए। अपना दुखड़ा रो रहे थे और दान का महिमा गान करते हुए सेठ जी से सहायता की आशा लगाए हुए थे। सेठ जी की आँखों में आंसू आ रहे थे, बड़े प्रेम भाव से सुन रहे थे। लोगों को आशा बंधीं कि सेठ जी आज अवश्य सहायता करेंगे। सेठ जी बोले उठो अब में और बैठा नहीं रह सकता। लोगों ने कहा कहाँ उठें? आप कुछ दान दें, जिससे हमारे कष्ट कुछ कम हो सकें।
सेठ बोला नहीं, चलो मेरे साथ। मैं भी लोगों को समझाऊँगा दान की महिमा, जब मैं जान गया हूँ तो औरों को समझाना और दान के लिए प्रेरित करना मेरा कर्तव्य है। कैसी विडम्बनापूर्ण कृपणता है कि सेठ जी साथ जाने को, ज्ञान बाँटने को, दान माँगने को तैयार हैं किंतु अपने धन से कुछ देने को तैयार नहीं है। यह वही स्थिति है कि अपने कुंए से जल नहीं ले रहे कि सूखा -अकाल के समय क्या पीएँगे? कुँआ ढक दिया है, जल सड़ रहा है, कीड़े पनप रहे हैं और सत्य को स्वीकार करने में कृपणता आड़े आ रही है।
किसी संत ने सत्य ही कहा है कि जो स्वयं नहीं त्याग सकते और अन्य से अपेक्षा कर रहे हो तो इसमें निश्चित ही कपट और स्वार्थ निहित हैं। संसार को बदलने की सामर्थ्य नहीं है किंतु स्वयं को बदल सकते हैं, दयालु ही नहीं उदार भी होना चाहिए, ज्ञान चरित्र में दिखना भी चाहिए।
पाप-प्रपंच और बेइमानी के धन से ग़रीबों को भोजन करा कर अथवा अन्य समाजिक कार्यों में धन देकर प्रतिष्ठा मिल रही है। यह दान कैसे हो सकता है। यह कोई सदगुण नहीं अपितु उपक्रम है, स्वयं को सांत्वना है कि मैंने सिर्फ़ शोषण नहीं किया सहायता भी की है। यदि यह भाव नहीं आया तो स्वयं अकर्मण्य हो जाएँगे, धर्म के भय से मानसिक संतुलन ख़राब हो जाएगा। ऐसे दान में एक सांत्वना है कि मैं सदकर्म भी कर रहा हूँ। यह अपराध बोध से मुक्त होने का प्रयास भी हो सकता है। जिसको दान कह रहे हैं, हो सकता है कि वह पश्चाताप का परिवर्तित रूप हो अथवा लोगों को भ्रमित करने का प्रयास हो। यह तो ऐसा ही है कि चमड़े का व्यापारी गौ सेवा कर रहा है, जिससे उसकी पहचान गौ सेवक के रूप में बन सके।
दान सब जानते हैं सभी धर्मों और स्थानों में लोग अपने अपने तरीक़े से करते भी हैं, किंतु दक्षिणा सनातन धर्म का ही भाव है।
दान में देने वाले के प्रति अनुग्रह का भाव आता है किंतु दक्षिणा स्वीकार हो गयी तो देने वाला ही अनुगृहीत हो रहा है कि बड़ी कृपा, तुच्छ भेंट स्वीकार हो गयी।
सामान्य दृष्टि से तो जिसको दक्षिणा मिली है उसको आभारी होना चाहिए। किंतु सनातन धर्म का समृद्ध ज्ञान बताता है कि जिसने दक्षिणा दी है, उसके भीतर कृतज्ञता का भाव आना चाहिए, कृपानुभूति होनी चाहिए। क्योंकि शास्त्र कहते हैं कि देने वाले को ही दक्षिणा का पुण्य और प्रतिफल मिलेगा। जिसको दक्षिणा मिली उसकी तो उसी में पूर्ण प्राप्ति हो गयी।
दान का कितना सुंदर भाव निहित है दक्षिणा में और यही अहंकार रहित दान है। दान के लिए तो क्षमता और देने की कला का ज्ञान होना चाहिए। जब भी किसी को दें, बहुत प्रसादपूर्ण होना चाहिये ताकि लेने वाला आनंदित – प्रफुल्लित हो उठे, न कि उसके अंदर दीनता का भाव आ जाए। जब हृदय में प्रेम होगा-श्रद्धा होगी तो बिना प्रचार के विरक्त संतों को अन्न वस्त्र पहुँच रहे होंगे, दरिद्र नारायण की सेवा चल रही होगी, सुन भी लिया कि कहीं बंदर, पक्षी, गौ भूखे हैं तो लग जाओगे सम्पूर्ण सामर्थ्य से व्यवस्था बनाने में। इसी में भाव और सम्पन्नता की सार्थकता भी है और ठाकुर जी की कृपा भी।
जिस दिन परमात्मा और प्रकृति के आभारी हो जाएँगे, हृदय में प्रेम हिलोरें लेने लगेगा, यही प्रेम आधार है दान का और दान तो धर्म का सार है। स्मरण रखना चाहिए कि अहंकार तो इन सभी दिव्य भाव को नष्ट करता है, अतः यदि दान में तनिक भी अहंकार का समावेश है तो चूक जाएँगे दान के सुन्दर प्रभाव से क्योंकि अहंकार और प्रेम का तो कोई तालमेल ही नहीं है।
“त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये”
दान का भाव तो जब अन्दर आएगा तो मैं और मेरा नष्ट हो जाएगा, तभी जाग्रत होगा प्रेम। सब प्रभु का हैं और उन्हीं को अर्पण। जैसे नदी अपना सम्पूर्ण जल सागर में उड़ेल देती है, उसी से पाया, उसी को लौटा दिया। जब इस भाव का अनुभव करोगे, तब इस अनुभूति में गोविंद तुम्हारे समक्ष होंगे।
– कपिल शर्मा ,
सचिव, श्रीकृष्ण जन्मस्थान,
मथुरा
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