अदालतों में बैठे न्‍याय के देवताओं पर क्‍यों उठने लगी हैं उंगलियां?

अदालतों में बैठे न्‍याय के देवताओं पर क्‍यों उठने लगी हैं उंगलियां?

अन्तर्द्वन्द

[ad_1]

न्‍याय का मंदिर कही जाती हैं अदालतें और इसमें बैठे लोग न्‍याय की आस लगाए आम आदमी के लिए किसी भगवान से कम नहीं होते परंतु इन ‘भगवानों’ द्वारा दिए गए उपदेश और हर मंच पर ‘केस अधिक होने और जज कम होने मजबूरियों’ का रोया जाने वाला रोना इन्‍हीं के कार्यकलापों की बखिया उधेड़ता नज़र आ रहा है आजकल।

अब देखिए ना, 2 मई को हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में न्यायाधीशों की सुरक्षा का मुद्दा उठाया गया। बेशक न्यायाधीश विशेष सुरक्षा के अधिकारी हैं, लेकिन विचारणीय प्रश्‍न यह भी है कि आखिर ये स्‍थिति आई ही क्‍यों, कि अतिरिक्‍त सुरक्षा मांगनी पड़ रही है…”मीलॉर्ड” क्‍यों भयभीत हैं…और किससे भय है…ज़ाहिर है न्‍यायालयों की कार्यप्रणाली से आमजन इतना आज़िज़ आ चुका है कि अब उनके प्रति ना तो पहले जैसा सम्‍मान बचा है और ना ही भरोसा…तभी तो लगभग परमेश्‍वर माने वाले न्‍यायिक अधिकारी आज स्‍वयं को ही असुरक्षित पा रहे हैं। ऐसा क्‍यों हुआ…क्‍यों साख में गिरावट आई, कुछ उदाहरण देखिए…

1. मध्‍यप्रदेश के एक हाईकोर्ट ने 13 साल जेल में रहकर सजा काटने वाले एमबीबीएस के छात्र को अपनी प्रेमिका ही हत्‍या किये जाने के आरोप से बरी कर दिया।
2.पूर्वी उत्‍तरप्रदेश के एक पोस्‍टमास्‍टर को मात्र 89 रुपये गबन करने के आरोप में विभाग द्वारा सस्‍पेंड किये जाने के बाद अब 30 साल बाद कोर्ट ने उन्‍हें निर्दोष माना और बरी किया गया।
3. मध्‍यप्रदेश के सिओनी का 17 अप्रैल 2013 में घटित केस, जिसमें रामकुमारी यादव द्वारा मकान किराए पर देने से मना करने की सज़ा ‘फिरोज़’ ने उनकी 4 साल की बेटी का बलात्‍कार कर उसे मौत के घाट उतार कर दी। इस केस में फिरोज़ को स्‍थानीय कोर्ट ने मौत की सजा सुनाई…परंतु Oscar Wilde द्वारा कहे गए वाक्‍य ”every sinner has a future” (हर पापी का एक भविष्य होता है), कहकर सर्वोच्च न्यायालय के 3 न्यायाधीशों की बेंच ने हैवान फिरोज़ की मौत की सजा रद्द कर आजीवन कारावास में बदल दी जबकि 4 साल की बच्‍ची का रेप कोई भवावेश में आकर नहीं कर सकता।
4. आपसी दुश्‍मनी निकालने के लिए पॉक्‍सो एक्‍ट, एसएसटी एक्‍ट, दहेज एक्‍ट का दुरुपयोग अब किसी से छुपा नहीं है।

ये तो कुछ मामले हैं जहां न्‍याय या तो अधूरा मिलता दिख रहा है या फिर देरी से जो कि अन्‍याय के अतिरिक्‍त और कुछ नहीं है। इसकी कई वजहें सामने आई हैं –

पहली वजह है- कोर्ट्स में न्यायाधीशों की संख्‍या कम और केस ज्‍यादा, निचली अदालतों में जजों के करीब 5500 के आस पास रिक्त पद खाली हैं, और इसके लिए हाईकोर्ट्स की कोई जवाबदेही तय नहीं की गई, इसी तरह देश की सभी 25 हाईकोर्ट्स में 281 पद अब भी खाली हैं। अभी कल ही 7 मई को सुप्रीम कोर्ट में जजों की संख्‍या पहली बार पूरी हुई है।

सुप्रीम कोर्ट एवं नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड (NJDG) के अनुसार जिला एवं सब आर्डिनेट अदालतों में करीब 3.9 करोड़ मामले, देश के सभी 25 हाईकोर्ट्स में लगभग 58.5 लाख तथा 69 हजार से अधिक मामले सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं जो कि जजों की कमी के चलते ऐसा होना लाजिमी है।

दूसरी वजह है- ”एक ही कानून की” लोअर कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक अपने अपने तरह से की गई अलग अलग व्‍याख्‍याएं और उसके अनुसार सुनाए जाने वाले फैसले दर फैसले। इसी वजह से दशकों तक चलते रहते हैं केस। इस तरह तो पेंडिंग केसों की संख्‍या कभी कम नहीं की जा सकती चाहे कितने भी जज बढ़ा दिये जायें। सुप्रीम कोर्ट को समझना होगा कि केवल न्यायाधीशों के खाली पदों को भरने से बात नहीं बनेगी न्यायिक तंत्र को और अधिक समर्थ, त्वरित और संवेदनशील बनाने की भी जरूरत है।

तीसरी वजह है- अदालतों लंबी छुट्टियां, कभी ग्रीष्म कालीन तो कभी त्योहार और कभी तो वकीलों की स्‍ट्राइक जबकि छुट्टियों को ध्‍यान में रखे बिना ही केस लिस्टिंग किया जाना।

चौथी वजह है- बड़े वकीलों द्वारा कोर्ट में समय जाया करने वाले तारीख पर तारीख वाले हथकंडे अपनाना, आजकल इन्‍हीं रसूखदार वकीलों द्वारा तो सुप्रीम कोर्ट में मामले की ”जल्द सुनवाई” के लिए चीफ जस्टिस (chief justice) के सामने मेंशनिंग (mentioning) करने का चलन और चलाया जा चुका है केस को नया मोड़ देने की कोशिश में ”नए सिरे” से मामले की सुनवाई का शिगूफा। जाहिर है इस आग्रह को कोई भी जज नहीं टालता और ना ही न्याय प्रक्रिया में देरी पर रोता है।

अदालत द्वारा फैसलों में देरी का कोई विस्तृत कारण नहीं दिया जाता जो कि संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है। फैसलों में शीघ्रता लाने के लिए कानून मंत्रालय द्वारा कोड ऑफ सिविल प्रोसीजर -1999 संशोधन में केवल तीन तारीख में फैसला देने की व्‍यवस्‍था की गई थी मगर यहां भी सुप्रीम कोर्ट ने 2005 में सलेम अधिवक्‍ता बार एसोसिएशन मामले को आधार मानते हुए इस बाध्‍यता को खत्‍म कर दिया। और फिर वही तारीख दर तारीख का सिलसिला चल निकला और आम आदमी पिसता रहा, साल दर साल।

इन तारीखों के बीच पिसने वाले उन निर्दोषों की बात तो छोड़ ही दें जो विचाराधीन कैदी हैं। इन न्‍यायाधीशों से पूछा जाना चाहिए कि बताइये असली खतरा किसे है और किससे है। खतरा उन्‍हें नहीं जो इतने ”पेंडिंग केसों की चिंताओं के बीच” भी आलीशान सुविधाओं के संग लंबी छुट्टियों का दस्‍तूर आज भी जारी रखे हुए हैं बल्‍कि उन्‍हें हैं जिनके घरबार तक इनकी चौखट पढ़ते ही बिकने लगते हैं और इनके द्वारा दी गई तरीखों के भरोसे पीढ़ियां कंगाल होती रहती हैं। बहरहाल, इतना अवश्‍य है कि अब ‘मीलॉर्ड्स’ के ‘हाउस-रिफॉर्म्स’ का भी वक्‍त आ गया है, ये एक ऐसा विषय है जिस पर जितना लिखा जाये उतना कम है, आदलत की अवमानना का डंडे से आखिर कितने दिन तक आमजन को चुप रखा जा सकता है।

– सुमित्रा सिंह चतुर्वेदी

 

[ad_2]

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *