तारीख पर तारीख का हाल ,बिना दोषसिद्ध इंसान जेल में हो जाता बेहाल व कंगाल

- इंसाफ नहीं, बेइंसाफी की फैक्ट्री बनती अदालतें
- सुप्रीम कोर्ट की फटकार ने खोली हाईकोर्ट की कलई
- जमानत जैसे बुनियादी अधिकार को बना दिया गया मजाक
- बेइंसाफी घटाने के लिए तकनीक-आधारित सख्त प्रणाली बनाने की जरूरत
- इलाहाबाद हाईकोर्ट की लापरवाही 43 बार टली सुनवाई
- सुप्रीम कोर्ट की बेचैनी नागरिक स्वतंत्रता का अपमान बर्दाश्त नहीं
- पांच साल जेल में कैद, इंसाफ अब भी दूर
- जांच एजेंसियों का हथियार जमानत पर टालमटोल और नए केस दर्ज
- मालेगांव से मुंबई ब्लास्ट तक निर्दोष साबित पर कौन भरेगा वर्षों की कैद का हिसाब
- अदालतें बनीं ‘मुसद्दीलाल’ की दास्तान तारीखें ही तारीखें
- एआई और टेक्नोलॉजी से बन सकती है निगरानी प्रणाली
(सुनील कुमार)
इंसाफ की गारंटी अदालतें ही बनें अपने काम की पहरेदार
तारीख पर तारीख यह डायलॉग अब केवल फिल्मों का नहीं, बल्कि हिंदुस्तानी अदालतों का जीवंत सच बन चुका है। जमानत जैसे बुनियादी अधिकार को भी मजाक बना दिया गया है, जहां इलाहाबाद हाईकोर्ट जैसे संस्थान किसी की अर्जी पर 21 बार तो किसी पर 43 बार सुनवाई टाल देते हैं। सुप्रीम कोर्ट को खुद दख़ल देना पड़ा और कठोर शब्दों में कहना पड़ा कि निजी आज़ादी से जुड़े मामलों में ऐसी लापरवाही स्वीकार्य नहीं। लेकिन यह समस्या सिर्फ एक अदालत या एक केस की नहीं है, बल्कि पूरे न्यायिक ढांचे में फैली गहरी बीमारी है। निर्दोष लोग सालों जेल में सड़ते रहते हैं और जब बरी होते हैं तो लोकतंत्र के पास उनकी बरबाद ज़िंदगी का कोई हिसाब नहीं होता। यह न्याय नहीं, बेइंसाफी की फैक्ट्री है। अब वक्त आ गया है कि अदालतें खुद को तकनीक और सख़्त निगरानी तंत्र से लैस करें, वरना इंसाफ आम नागरिक के लिए केवल किताबों तक सिमट कर रह जाएगा।
नागरिकों से जुड़े मामलों को तेजी से सुना, और तय किया जाए
सुप्रीम कोर्ट ने अभी इलाहाबाद हाईकोर्ट के दो मामलों को लेकर सख्त बेचैनी जाहिर की है और एक किस्म से हाईकोर्ट को यह याद दिलाया है कि वह किसी की जमानत की अर्जी पर तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख नहीं बढ़ा सकता। इस मामले में जमानत अर्जी पर सुनवाई 21 बार टल चुकी थी। मुख्य न्यायाधीश और दो अन्य जजों की बेंच के सामने जेल मे बंद इस आरोपी के वकील ने याद दिलाया कि कुछ दिन पहले ही एक दूसरे केस में सुप्रीम कोर्ट ने एक व्यक्ति को यह देखकर जमानत दे दी थी कि हाईकोर्ट ने उसकी जमानत अर्जी पर सुनवाई 43 बार टाल दी थी। यह आदमी साढ़े तीन बरस से जेल में बंद था, और उसकी जमानत अर्जी पर सुनवाई हो ही नहीं रही थी, इलाहाबाद हाईकोर्ट जाने क्या सोचकर उस सुनवाई को आगे टालते चल रहा था। सुप्रीम कोर्ट ने अभी यह सब देखकर कहा- हम बार-बार कह रहे हैं कि नागरिकों से जुड़े मामलों को तेजी से सुना, और तय किया जाए। हम हाईकोर्ट की इस आदत को मंजूर नहीं कर सकते कि निजी आजादी से जुड़े मामलों को बार-बार टाल दिया जाए। ऐसे मामलों को सबसे तेजी से निपटाना चाहिए। हम इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से गुजारिश करते हैं कि इस मामले को जल्द निपटाएं। अब कम से कम अगली तारीख पर हाईकोर्ट को उसकी जमानत अर्जी पर फैसला करना ही होगा।
मुंबई ट्रेन ब्लॉस्ट और मालेगांव बम धमाकों के सभी आरोपी बरी हुए
ये दोनों मामले देश की कई केंद्रीय जांच एजेंसियों और राज्य की पुलिस या दूसरी जांच एजेंसियों के चलाए जा रहे बहुत से दूसरे मुकदमों की तरह हैं जिनमें एजेंसियां किसी एक या दूसरे बहाने से जमानत का विरोध करती हैं। दिल्ली में हुए दंगों में जिनके खिलाफ यूएपीए के तहत मामले दर्ज किए गए थे उनमें से बहुत सारे लोगों को पांच बरस गुजर जाने पर भी जमानत नहीं मिली है, और मामले की सुनवाई भी आगे नहीं बढ़ी है। अब अगर ये लोग अदालत से बेकसूर साबित होते हैं, तो पांच बरस की इस कैद की यह लोकतंत्र क्या भरपाई कर सकता है? और ऐसी बेगुनाही कई दूसरे मामलों में साबित होती रहती है, उसमें अनोखा कुछ भी नहीं है। अभी-अभी एक हफ्ते के फासले में ही मुंबई ट्रेन ब्लॉस्ट और मालेगांव बम धमाकों के दो अलग अलग मामलों में सारे ही आरोपी छूट गए। इनमें साध्वी प्रज्ञा ठाकुर जैसी चर्चित भूतपूर्व सांसद भी शामिल थीं। देश की एक सबसे ताकतवर बनाई गई जांच एजेंसी ने बम धमाकों के इन मामलों के मुकदमे चलाए थे।
हिंदुस्तानी इंसान मुसद्दीलाल बनकर रह गए
भारत की अदालतों में मुकदमों और अर्जियों की तारीखें आगे बढऩे का सिलसिला उसी तरह चलता है जिस तरह भारत के सरकारी दफ्तरों पर बने हुए एक टीवी सीरियल में दिखाया गया था। हिंदुस्तानी इंसान मुसद्दीलाल बनकर रह गए हैं। अब ऐसे कितने फीसदी लोग होंगे जो हाईकोर्ट का फैसला होने से पहले सुप्रीम कोर्ट तक जा सकें? भारत के कानून में सुप्रीम कोर्ट कई बार कह चुका है कि जमानत एक अधिकार होना चाहिए, और उसे खारिज करके जेल एक अपवाद रहना चाहिए। हाल ही के महीनों में सुप्रीम कोर्ट ने ईडी और सीबीआई सरीखी कई जांच एजेंसियों को जमकर फटकारा है कि वे लगातार जमानत का विरोध करते चलते हैं या किसी-किसी मामले में एक मामले में जमानत का आसार दिखते ही दूसरा मामला दर्ज कर लेते हैं। लेकिन जेल में अधिक से अधिक समय तक रखने की अंग्रेजों के समय से चली आ रही सोच भारत की बड़ी जांच एजेंसियों और राज्य की पुलिस तक में बराबरी से हावी है।
43 बार पेशी क्या यही है इंसाफ
हमारा मानना है कि अगर सुप्रीम कोर्ट सचमुच ही देश की अदालतों पर से वजन हटाना चाहता है, जेलों से कैदियों को कम करना चाहता है और नागरिकों को इंसाफ देना चाहता है तो उसे सारी अदालती कार्रवाई का कम्प्यूटरीकरण करके यह व्यवस्था करनी चाहिए कि किसी मामले में सुनवाई कितने बार आगे बढने पर कम्प्यूटर ही जज को याद दिला दे कि इसे और आगे बढ़ाने का अधिकार अब खत्म हो चुका है। अगर एक हाईकोर्ट में जमानत अर्जी पर 43 बार पेशी बढ़ चुकी है, तो ऐसे मामले में सुप्रीम कोर्ट में वकील के पहुंचने पर ही जजों को यह क्यों पता लगे? क्या यही जनता का इंसाफ पाने का हक है? होना तो यह चाहिए था कि सुप्रीम कोर्ट को अदालत का सॉफ्टवेयर यह बताते चलता कि हाईकोर्ट में किस-किस मामले की सुनवाई अब तक कितनी बार बढ़ चुकी है? बहुत मामूली से सॉफ्टवेयर से यह काम हो सकता था, हो सकता है। और अब तो एआई की मेहरबानी से ऐसी निगरानी और भी आसान हो गई है। आज के वक्त मुजरिम भी एआई के मामूली औजार इस्तेमाल करके अपने शिकार छांट रहे हैं, ऐसे में भारत की न्यायपालिका को तो अपने कामकाज को बेहतर बनाने के लिए अब साधारण हो चली ऐसी तकनीक का इस्तेमाल करना चाहिए। हाईकोर्ट में 43 बार वकील खड़े कर चुके इंसान के पास सुप्रीम कोर्ट में फिर वकील खड़ा करने की ताकत हो सकता है कि बची भी न हो। अदालत को ही निगरानी का एक साधारण सा सॉफ्टवेयर बनवाना चाहिए जिससे अदालतों और जेलों का वजन भी कम होगा।
* इलाहाबाद हाईकोर्ट की लापरवाही एक मामले में जमानत की सुनवाई 21 बार, तो दूसरे में 43 बार टल चुकी।
* सुप्रीम कोर्ट की सख़्ती मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि निजी आजादी से जुड़े मामलों को बार-बार टालना अस्वीकार्य है।
* दिल्ली दंगों और यूएपीए मामलों में आरोपी वर्षों से जेल में, जमानत तक नहीं मिली।
* मुंबई ट्रेन ब्लास्ट और मालेगांव बम धमाके के सभी आरोपी बरी हुए, पर वर्षों की कैद का हिसाब कौन देगा?
* जांच एजेंसियों का हथियार ईडी-सीबीआई जैसी संस्थाएं जमानत टालने के लिए लगातार नए केस दर्ज करती हैं।
* मुसद्दीलाल की दास्तान अदालतों में तारीख पर तारीख का खेल आम नागरिकों को थका देता है।
* 43 बार पेशी का खेल यह न्याय नहीं, बेइंसाफी का बोझ है जो नागरिक अधिकारों को कुचलता है।
* तकनीक से समाधान कम्प्यूटरीकरण और एआई आधारित प्रणाली अदालतों को तारीखें टालने से रोकेगी।
* इंसाफ की गारंटी अदालतें खुद निगरानी तंत्र बनाकर नागरिकों को त्वरित न्याय दें।
* लोकतंत्र की असली परीक्षा न्याय में देरी, इंसाफ से इंकार के बराबर है।