तारीख पर तारीख नहीं अब न्याय की पुकार कानून में सुधार की दरकार, वरना अन्याय का व्यापार
मिताली ममता शर्मा

● डर अब कानून में नहीं, अपराधियों में होना चाहिए
● न्यायालयों में जज की कमी, मुकदमे ज्यादा
● भ्रष्ट तंत्र और राजनीतिक हस्तक्षेप की भूमिका
● जजों और अभियोजन पर समय सीमा लागू हो
भारत में जब कोई आम नागरिक न्याय की उम्मीद लेकर अदालत का दरवाजा खटखटाता है, तो उसे सबसे पहले मिलता है एक और तारीख। वही तारीखें महीने बन जाती हैं, महीने सालों में, और साल एक ऐसी अंतहीन प्रतीक्षा में बदल जाते हैं, जिसमें न्याय किताबों में लिखा आदर्श बनकर रह जाता है सत्यमेव जयते। न्याय की यह यात्रा इतनी लंबी और थकाऊ हो चुकी है कि कई बार पीड़ित की जिंदगी खत्म हो जाती है, लेकिन फैसला नहीं आता। अदालतों में पांच करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं, यानी देश के हर दसवें नागरिक का कोई न कोई विवाद अब भी न्याय की प्रतीक्षा में है। यह केवल आंकड़ा नहीं, बल्कि उस व्यवस्था की तस्वीर है, जिसने न्याय को प्रक्रिया में उलझाकर जनता से दूर कर दिया है।देश की अदालतों में फाइलों का अंबार इतना बढ़ गया है कि अब न्याय का रास्ता कागज़ों और तारीखों के जंगल में खो गया है। हर सुनवाई एक नई उम्मीद जगाती है, और हर अगली तारीख उस उम्मीद को थोड़ा और कमजोर कर देती है। इस देरी का सबसे बड़ा शिकार वे लोग हैं जिनके पास न तो धनबल है, न ही राजनीतिक संबंध। एक गरीब किसान की जमीन का मुकदमा तीस-तीस साल तक चलता है, एक रेप पीड़िता अपनी पूरी जवानी कोर्ट के चक्कर काटते हुए गुजार देती है, और एक निर्दोष कैदी बिना सजा पाए सालों जेल में सड़ता रहता है। दूसरी ओर, अपराधी बेखौफ हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि भारतीय कानून में सजा से ज्यादा ताकत देरी की है। कानून का डर अब जनता के लिए है, अपराधियों के लिए नहीं। जब किसी हत्यारे को यह पता हो कि उसका केस बीस साल तक चलेगा, तो उसके लिए न्यायपालिका मज़ाक बन जाती है। यही वजह है कि आज अपराध बढ़ रहे हैं, पर सजा नहीं। न्याय की रफ्तार कछुए की चाल से भी धीमी है और अपराध का प्रवाह बाढ़ की तरह अनियंत्रित। भारत की न्याय प्रणाली का यह विरोधाभास आज सबसे बड़ा सवाल बन गया है। अदालतों में जजों की कमी, पुलिस की लापरवाह जांच, राजनीतिक हस्तक्षेप और अभियोजन की निष्क्रियता सबने मिलकर एक ऐसी प्रणाली गढ़ दी है जो न्याय देने में नहीं, उसे टालने में अधिक सक्षम है।
लाखों केसों में तो गवाह मर चुके हैं, सबूत नष्ट हो चुके हैं, लेकिन तारीखें अब भी जारी हैं। वक्त आ गया है कि भारत अपनी न्याय व्यवस्था को केवल आदर्शों पर नहीं, बल्कि जनहित और समयबद्ध न्याय के सिद्धांत पर पुनर्गठित करे। जब तक अपराधी कानून से डरना नहीं सीखेंगे और जब तक पीड़ित को त्वरित राहत नहीं मिलेगी, तब तक सत्यमेव जयते केवल न्यायालय की दीवारों पर लिखा एक नारा ही रहेगा, न कि समाज की आत्मा में गूंजता हुआ सत्य। भारत के लिए अब सबसे बड़ा सुधार यही है न्याय को आमजन तक पहुंचाना, और न्याय को समयबद्ध, पारदर्शी और भययुक्त बनाना। क्योंकि न्याय में देरी सिर्फ कानून की कमजोरी नहीं, राष्ट्र की नैतिक पराजय है।
न्याय में देरी का मतलब है अन्याय
भारत के न्यायिक ढांचे में देरी अब सामान्य बात बन चुकी है। लाखों केस दशकों से लंबित हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, ज़िला अदालतों में 4.3 करोड़ और हाईकोर्ट में 60 लाख से अधिक केस लटके पड़े हैं।
न्याय मिलने में देरी का अर्थ है न्याय से वंचित होना।
इस देरी ने जनता का विश्वास कमजोर किया और अपराधियों का मनोबल बढ़ाया।
अपराधी बेखौफ, जनता बेबस
जब किसी को पता हो कि सजा मिलने में 20 साल लगेंगे, तो कानून का डर खत्म हो जाता है। बलात्कार, हत्या, साइबर अपराध, भ्रष्ट्राचार हर अपराध की फाइलों में सिर्फ तारीखें हैं, नतीजे नहीं।
कानून का असर वहीं दिखता है जहां सजा त्वरित हो।
अपराधी का भय नहीं, जनता का अविश्वास बढ़ा है।
न्यायालयों की जकड़न
भारत में प्रति दस लाख आबादी पर औसतन सिर्फ 21 जज हैं, जबकि अमेरिका में 107। न्यायाधीशों की कमी, सुनवाई में देरी और प्रशासनिक ढिलाई ने पूरा तंत्र जाम कर रखा है।
70 फीसदी कैदी वे हैं जिनका ट्रायल अब तक पूरा नहीं हुआ।
न्यायालयों के आधे से अधिक केसों में गवाह और जांच कमजोर पड़ते हैं।
कानून का डर कैसे मिटा ?
अक्सर अपराधी सत्ता या धनबल के कारण सजा से बच निकलते हैं। पुलिस जांच पर राजनीतिक दबाव, कमजोर अभियोजन, और केस में देरी अपराधियों के लिए वरदान बन जाते हैं।
वीआईपी अपराधियों को जमानत और सामान्य जनता को जेल यही है भारतीय न्याय का दोहरा चेहरा।
न्याय तभी सार्थक है जब वह समान रूप से लागू हो।
दूसरे देशों से सीख जहां न्याय त्वरित और भय सटीक है
● सऊदी अरब में हत्या, बलात्कार के लिए सार्वजनिक फांसी समय 3-6 माह
● चीन में भ्रष्टाचार की सजा मौत या आजीवन कारावास समय 6 माह
● सिंगापुर में ड्रग तस्करी, बलात्कार की सजा फांसी 6 माह में निर्णय
भारत में अपराध 10-20 वर्ष तक लंबित मुकदमे
त्वरित सजा से अपराध दर घटती है।
भारत में मानवाधिकार के नाम पर अपराधियों को वर्षों तक ढील मिलती है।
जनता का दर्द ‘तारीख पर तारीख’ का श्राप
हर अदालत के बाहर ऐसी भीड़ मिलेगी जो सालों से ‘अगली तारीख’ का इंतजार कर रही है।
एक किसान अपनी जमीन के केस में बूढ़ा हो गया।
एक बलात्कार पीड़िता 12 साल से न्याय की उम्मीद में कोर्ट जाती है।
एक मजदूर का बेटा 8 साल से निर्दोष साबित होने की प्रतीक्षा कर रहा है।
ये सब आंकड़े नहीं, जख्म हैं उस व्यवस्था के, जो जनता के लिए बनी थी
● कानून सुधार की दिशा में जरूरी कदम
● फास्ट ट्रैक कोर्ट का विस्तार विशेषकर बलात्कार, हत्या, और भ्रष्टाचार के मामलों के लिए।
● डिजिटल केस मैनेजमेंट सिस्टम ताकि हर केस का रीयल टाइम ट्रैकिंग हो सके
● न्यायाधीशों की नियुक्ति में पारदर्शिता और वृद्धि।
● पुलिस जांच प्रणाली का आधुनिकीकरण।
● कानूनी साक्षरता अभियान ताकि जनता अपने अधिकार समझे।
न्यायिक जवाबदेही अधिनियम: न्याय नहीं, सुधार चाहिए
रामचरितमानस में तुलसीदास ने कहा है कि भय बिन होई न प्रीत। जब तक अपराधियों में कानून का भय नहीं होगा, न्याय का सम्मान नहीं लौटेगा। भारत को ‘करुणा’ और ‘दया’ के साथ-साथ सख्ती और जवाबदेही भी चाहिए। कानून में सुधार ही अपराध रोकने का स्थाई समाधान है। अब वक्त है कि संसद में कानूनी सुधार आयोग गठित हो जो हर वर्ष न्यायिक देरी, लंबित मामलों और दंड प्रक्रिया को लेकर ठोस सिफारिशें दे।
* भारत में 5.2 करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित (2025 के आंकड़े)।
* 70 प्रतिशत कैदी अंडर ट्रायल हैं यानी बिना सजा के जेल में।
* महिलाओं के विरुद्ध अपराध में दोषसिद्धि दर सिर्फ 23 प्रतिशत
* सीजेआई ने कहा है कि न्याय में देरी, न्याय से वंचित करने के समान है
* सिंगापुर, चीन, सऊदी अरब में अपराध दर भारत की तुलना में 70 प्रतिशत कम।
* 75,000 जजों के बजाय सिर्फ 21,000 कार्यरत।
* फास्ट ट्रैक कोर्ट का कामकाज कई राज्यों में बजट और स्टाफ की कमी से प्रभावित।
न्याय जब देर से आता है तो वह केवल निर्णय नहीं, एक त्रासदी बन जाता है। आज भारत को न नए नारे चाहिए, न दिखावटी अभियानों की जरूरत है। जरूरत है कानून में सुधार की, ताकि अपराधी कानून से डरें और पीड़ित को जल्द राहत मिले। कानून तब तक जिंदा नहीं जब तक जनता को उस पर भरोसा न रहे। अगर व्यवस्था खुद अन्याय का प्रतीक बन जाए, तो समाज में अराजकता तय है। तारीख पर तारीख नहीं, न्याय पर सुधार चाहिए! डर जनता को नहीं, अपराधी को होना चाहिए!