उत्तर प्रदेश

परिवहन आयुक्त पीटते है ईमानदारी का ढोल,योगी सरकार के जीरो टॉलरेंस का खुल गया पोल

परिवहन विभाग के इतिहास में अब तक के महाभ्र्ष्टाचारी के रूप में हमेशा याद किये जायेंगे

〈विशेष संवाददाता〉

उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज योगी आदित्यनाथ बार-बार यह दावा करते हैं कि उनकी सरकार भ्रष्टाचार मुक्त है। मंच से लेकर विधान सभा तक उनके भाषणों में ईमानदारी, पारदर्शिता और अनुशासन का मंत्र गूंजता है। मगर सवाल यह है कि क्या ये दावे सिर्फ भाषणों तक ही सीमित रह गए हैं? क्योंकि जमीनी हकीकत इससे बिल्कुल अलग तस्वीर दिखाती है। परिवहन विभाग इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। यह विभाग जनता की सुरक्षा और सुविधा का आधार होना चाहिए था, लेकिन भ्रष्टाचार ने इसे अपनी जकड़ में कस लिया है। यहां मुख्यमंत्री के आदेशों का कोई मोल नहीं बचा है। अफसरशाही ने सीएम की सख्ती को ठेंगा दिखा दिया है। बीएन सिंह जैसे अधिकारी खुलेआम मुख्यमंत्री की गरिमा और उनके शासन की छवि को तार-तार कर रहे हैं। अखबारों की सुर्खियां, मीडिया की बहसें और अदालतों के आदेश भी इन अधिकारियों के सामने बौने साबित हो रहे हैं। एक तरफ सीएम मंच से जनता को विश्वास दिलाते हैं कि उनकी सरकार में रिश्वतखोरी की कोई जगह नहीं, दूसरी तरफ यही विभाग जनता से खुलेआम वसूली कर रहा है।

बीएन सिंह का रिश्वत उद्योग

इस पूरे सिस्टम का सबसे बड़ा ठेकेदार है परिवहन आयुक्त बीएन सिंह। विभाग के भीतर उनका नाम भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुका है। उनका ‘रेट कार्ड’ अब किसी रहस्य की बात नहीं रहा। हर कर्मचारी और अधिकारी जानता है कि किस पद के लिए कितना चढ़ावा देना है और उसमें बीएन सिंह का कितना हिस्सा जाएगा। ट्रांसफर सीजन आते ही यह रिश्वत उद्योग अपने चरम पर होता है। फाइलों पर चढ़ावे की परत चढ़ाई जाती है। बिना रिश्वत कोई फाइल आगे नहीं बढ़ती। नियम और कानून महज दिखावा रह जाते हैं, असली नियम होता है पैसा दो, पद लो। सूत्रों की मानें तो हर रिश्वत का 50 प्रतिशत हिस्सा सीधा बीएन सिंह की जेब में जाता है। बाकी रकम ऊपर से नीचे तक बंट जाती है। इस बंटवारे को ही ‘सिस्टम’ का नाम दिया गया है। यानी रिश्वतखोरी को वैध ठहराने के लिए एक नया शब्द गढ़ लिया गया। इसने विभाग को जनता की सेवा करने वाली संस्था से एक ‘रिश्वत उद्योग’ में तब्दील कर दिया। गाड़ियों का पंजीकरण, फिटनेस सर्टिफिकेट, परमिट, यहां तक कि साधारण लाइसेंस तक हर जगह बिना रिश्वत कोई काम नहीं होता। अफसरों का मुख्य काम जनता की सेवा नहीं, बल्कि पैसा कमाना हो गया है। ट्रांसफर सीजन तो मानो ‘मौसम-ए-वसूली’ बन जाता है। बीएन सिंह का यह रिश्वत उद्योग इस बात का प्रतीक है कि किस तरह एक व्यक्ति पूरे सिस्टम को अपनी जेब भरने की मशीन में बदल सकता है। जब तक इस पर सख्त कार्रवाई नहीं होती, तब तक न तो भ्रष्टाचार रुकेगा और न ही जनता को राहत मिलेगी।

परिवहन आयुक्त बृजेश नारायण सिंह की भूमिका

पूरे प्रकरण में सबसे ज्यादा जिस नाम की चर्चा होती है, वह है बृजेश नारायण सिंह। फर्जी पंजीकरणों से लेकर चालानों की साजिश तक, हर जगह उंगलियां उन्हीं की ओर उठती हैं। जिनके कार्यकाल में यह खेल हुआ, जिनके दफ्तर से संदिग्ध कागजात निकले, जिनकी निगरानी में सिस्टम की धज्जियां उड़ाई गईं—उनकी भूमिका पर सवाल उठना स्वाभाविक है। लेकिन हैरत की बात है कि हर बार उनकी प्रतिक्रिया सिर्फ एक ही रही मौन। अगर वाकई उनका इससे कोई लेना-देना नहीं होता, तो वे सामने आकर सफाई देते, जिम्मेदारी तय करते और दोषियों को कटघरे में खड़ा करते। मगर बृजेश नारायण सिंह का मौन ही सबसे बड़ा सबूत है कि कहीं न कहीं गड़बड़ जरूर है। प्रशासनिक चुप्पी और राजनीतिक संरक्षण भी उन्हें बचाते रहे। आरोपों की आंच जब तेज हुई, तब भी उच्चाधिकारियों ने आंख मूंद ली। निलंबन या जांच जैसी कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। उलटे, मामला एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर, एक जिले से दूसरे जिले तक घुमाकर ठंडा करने की कोशिश की गई। यह सवाल उठना लाजमी है कि आखिर किस ताकत के सहारे बृजेश नारायण सिंह अब तक बचे हुए हैं। बृजेश नारायण के खिलाफ कई बार चिट्ठियां लिखी गईं, रजिस्टर्ड डाक से शिकायतें भेजी गईं, यहां तक कि अदालत का दरवाजा भी खटखटाया गया। मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात। सरकार की तरफ से कोई सख्त कदम नहीं उठाया गया। यह स्थिति साफ बताती है कि कहीं न कहीं राजनीतिक रसूख और अफसरशाही का गठजोड़ उन्हें ढाल बनाकर बचा रहा है। बृजेश नारायण सिंह की भूमिका इस पूरे प्रकरण का सबसे बड़ा सवाल बन चुकी है। और जब तक इस सवाल का जवाब नहीं मिलता, तब तक परिवहन विभाग का भ्रष्टाचार सिर्फ बढ़ता ही रहेगा।

‘नारायणी कोठा’ ट्रांसफर-पोस्टिंग का अड्डा

परिवहन आयुक्त कार्यालय अब ‘नारायणी कोठा’ के नाम से बदनाम हो चुका है। वजह साफ है यहां ट्रांसफर-पोस्टिंग खुले बाजार की तरह होती है। सिपाही से लेकर पीटीओ तक हर पद पर बोली लगती है। अफसरों की तैनाती उसी तरह होती है जैसे किसी बाजार में माल बिकता है। बोली लगती है, सौदे होते हैं और पैसा चढ़ाकर पद खरीदे जाते हैं। इस व्यवस्था की तुलना लोग ‘नगर वधुओं’ की नीलामी से करने लगे हैं। दो लाख में सिपाही, पांच लाख में बाबू-लिपिक और दस लाख में पीटीओ की कुर्सी। इस भ्रष्ट व्यवस्था ने पूरे सिस्टम को खोखला कर दिया है। मेरिट, ईमानदारी और मेहनत का कोई मोल नहीं। जिसने जितना चढ़ावा चढ़ाया, उसे मनचाही तैनाती मिल गई। जो पैसे नहीं जुटा पाया, उसकी फाइल धूल फांकती रहती है। यही कारण है कि विभागीय कामकाज ठप रहता है और जनता को सेवा के बजाय शोषण मिलता है। ‘नारायणी कोठा’ अब अफसरों के लिए एक प्रतीक बन चुका है जहां नियुक्तियां और ट्रांसफर किसी नीति या जरूरत से नहीं, बल्कि पैसे के हिसाब से तय होते हैं। इस वजह से विभाग में ऐसे लोग आसीन हो जाते हैं जिनकी प्राथमिकता जनता की सेवा नहीं, बल्कि अपनी जेब भरना होती है। यह खेल किसी एक या दो अफसर तक सीमित नहीं है। इसमें पूरा नेटवर्क सक्रिय है मध्यस्थ, दलाल, और दफ्तरों में बैठे बाबू तक। हर किसी का हिस्सा तय है। और यह सब खुलेआम हो रहा है, मानो यह कोई छुपा हुआ अपराध न होकर सरकारी नियम ही हो। यही वजह है कि अब परिवहन आयुक्त कार्यालय को लोग सीधे-सीधे ‘नारायणी कोठा’ कहने लगे हैं

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