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प्रियंका गांधी का वार सच्चा भारतीय का प्रमाणपत्र न बांटे मी लार्ड,आप से ही जनता की उम्मीदें आप ही करते है संविधान को गार्ड

प्रियंका का कहना सच्चा भारतीय तय करने का हक किसी जज को नहीं

∼  जस्टिस दत्ता का ट्रैक रिकॉर्ड राहुल गांधी पर बार-बार टिप्पणी

∼  सावरकर विवाद स्वतंत्रता सेनानी या विभाजन के सूत्रधार

∼  1997 की न्यायिक आचार संहिता और जस्टिस दत्ता का उल्लंघन

∼  न्यायपालिका में सत्ता और वंशवाद का गठजोड़

∼  रेस्टेटमेंट ऑफ वैल्यूज कागज पर आदर्श, व्यवहार में अपवाद

∼  विगत 11 सालों में न्यायपालिका का गिरता भरोसा

∼  लोकतंत्र के चार स्तंभ और सत्ता का अघोषित कब्जा

एडवोकेट माया रानी अग्रहरि

प्रियंका का कहना सच्चा भारतीय तय करने का हक किसी जज को नहीं

प्रियंका गांधी का जस्टिस दीपांकर दत्ता पर वार केवल एक बयान पर प्रतिक्रिया नहीं था। यह भारतीय न्यायपालिका की उस तस्वीर पर चोट थी जिसमें निष्पक्षता के रंग धुंधले पड़ते जा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के इस न्यायाधीश का राजनीतिक रूप से संवेदनशील विषयों पर बार-बार टिप्पणी करना, आचार संहिता की अवहेलना और सत्ता से नजदीकी के संकेत, न्याय के मंदिर की दीवारों में पड़ी दरारों को और गहरा कर रहे हैं। सवाल यह है कि जब जज ही अपने सार्वजनिक आचरण में संविधान और ‘रेस्टेटमेंट ऑफ वैल्यूज ऑफ ज्यूडिशियल लाइफ’ के नियम तोड़ेंगे, तब न्याय की देवी की आंखों पर बंधी पट्टी सच में बचेगी या नहीं।

सच्चा भारतीय तय करने का हक किसी जज को नहीं

प्रियंका गांधी ने अपने बयान में कहा कि किसी भी जज को यह तय करने का अधिकार नहीं है कि कौन ‘सच्चा भारतीय’ है। उनका निशाना साफ तौर पर जस्टिस दीपांकर दत्ता पर था, जिन्होंने राहुल गांधी के संदर्भ में ‘सच्चे भारतीय’ होने की कसौटी जैसी टिप्पणी की थी। प्रियंका का तर्क था कि यह लोकतंत्र का गंभीर सवाल है। जज को न केवल निष्पक्ष होना चाहिए बल्कि ऐसा भी दिखना चाहिए कि वह निष्पक्ष है। इस बयान ने सोशल मीडिया पर तूफान खड़ा कर दिया। ट्विटर से लेकर व्हाट्सऐप ग्रुप तक, हर जगह यह बहस छिड़ गई कि क्या सुप्रीम कोर्ट के जज को इस तरह के वैचारिक और राजनीतिक विवादों में खुलकर बोलना चाहिए।

जस्टिस दत्ता का राहुल गांधी पर बार-बार टिप्पणी क्यों

जस्टिस दत्ता का नाम पहली बार तब सुर्खियों में आया जब उन्होंने राहुल गांधी की सावरकर पर टिप्पणी को ‘गैर-जिम्मेदाराना’ बताया और चेतावनी दी कि भविष्य में इस तरह की टिप्पणी पर अदालत स्वतः संज्ञान ले सकती है। यह बात वहीं खत्म नहीं हुई। बाद में भी उन्होंने राहुल गांधी को लेकर तीखे और राजनीतिक रंग लिए हुए बयान दिए। अगर यह किसी साधारण नागरिक ने किया होता तो उसे ‘सीरियल अफेंडर’ कहा जाता है। बार-बार वही गलती करने वाला। लेकिन यहां मामला सुप्रीम कोर्ट के जज का है, इसलिए आलोचना में भी एक सावधानी बरती जाती है।

सावरकर विवाद स्वतंत्रता सेनानी या विभाजन के सूत्रधार

जस्टिस दत्ता का यह कहना कि महाराष्ट्र में सावरकर की पूजा होती है। एक ऐतिहासिक बहस को राजनीतिक बना देता है। सावरकर के समर्थक उन्हें राष्ट्रभक्त मानते हैं, लेकिन दस्तावेज बताते हैं कि उन्होंने द्वि-राष्ट्र सिद्धांत जिन्ना से पहले दिया, ब्रिटिश सरकार को कई माफीनामे लिखे, और जीवन भर सरकारी पेंशन ली। ऐसे व्यक्ति की आलोचना करना क्या लोकतांत्रिक अधिकार नहीं है? और अगर कोई विपक्षी नेता ऐसा करता है तो क्या अदालत को ‘नैतिकता का उपदेश’ देना चाहिए या केवल कानून की व्याख्या करनी चाहिए?

1997 की न्यायिक आचार संहिता और जस्टिस दत्ता का उल्लंघन

14 मई 1997 को सुप्रीम कोर्ट ने ‘रेस्टेटमेंट ऑफ वैल्यूज ऑफ ज्यूडिशियल लाइफ’ जारी किया था, जिसमें जजों के सार्वजनिक और निजी आचरण की स्पष्ट सीमाएं तय की गईं। इसमें साफ लिखा है कि जज राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहेंगे, विवादास्पद मुद्दों पर सार्वजनिक टिप्पणी से बचेंगे, और मीडिया में ऐसे बयान नहीं देंगे जो न्यायपालिका की गरिमा को प्रभावित कर सकते हैं। लेकिन जस्टिस दत्ता ने न केवल राजनीतिक रूप से संवेदनशील बयान दिए, बल्कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के साथ अनौपचारिक फोटो सेशन भी करवाया, जो आचार संहिता की भावना के खिलाफ है।

न्यायपालिका में सत्ता और वंशवाद का गठजोड़

जस्टिस दत्ता का पारिवारिक बैकग्राउंड इस बहस को और गहरा करता है। उनके पिता स्वर्गीय सलिल कुमार दत्ता कलकत्ता हाईकोर्ट के न्यायाधीश थे और उनके बहनोई जस्टिस अमिताव रॉय सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज। सवाल यह है कि जब मजिस्ट्रेट बनने के लिए भी कठिन परीक्षाएं देनी पड़ती हैं, तो हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के लिए यह ‘पारिवारिक रास्ता’ क्यों खुला है। नियुक्ति का कोलेजियम सिस्टम अक्सर पारदर्शिता से ज्यादा नेटवर्क और संपर्कों पर निर्भर करता है, जिससे वंशवाद को बढ़ावा मिलता है।

रेस्टेटमेंट ऑफ वैल्यूज कागज पर आदर्श, व्यवहार में अपवाद

1997 की आचार संहिता कागज पर भले पवित्र लगे, लेकिन विगत 11 वर्षों में इसके उल्लंघन के उदाहरण बढ़े हैं। कई जज रिटायरमेंट के बाद सीधे राजनीति में गए। जस्टिस अभिजीत गंगोपाध्याय, जस्टिस रविंदर रेड्डी, जस्टिस पी.एन. रविंद्रन, जस्टिस वी. चितंबरेश, जस्टिस रोहित आर्य और तो और, भाजपा में शामिल हो गए। हाल ही में महाराष्ट्र भाजपा की प्रवक्ता आरती साठे को बंबई हाईकोर्ट में जज बनाया गया। जो पहले अपवाद था, अब सामान्य होता जा रहा है।

विगत 11 सालों में न्यायपालिका का गिरता भरोसा

पिछले दशक में भारतीय न्यायपालिका ने अपनी साख खोई है। रिटायरमेंट के बाद पद पाने की होड़, सत्ता से करीबी, और राजनीतिक बयानबाजी ने ‘न्याय की देवी’ की आंखों से पट्टी हटा दी है। अब ऐसा लगता है जैसे देवी खुद देख रही हों कि कौन सा फैसला किसे खुश करेगा और उसके बदले में कौन सा पद मिलेगा। यही वजह है कि जब विपक्ष सरकार से चीन के सीमा विवाद पर सबूत मांगता है, तो न्यायपालिका के कुछ चेहरे उसे राष्ट्रभक्ति के पैमाने पर कसने लगते हैं।

लोकतंत्र के चार स्तंभ और सत्ता का अघोषित कब्जा

लोकतंत्र में चार स्तंभ होते हैं विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस। पहले दो पर तो सत्तापक्ष का नियंत्रण होता ही है, लेकिन अब न्यायपालिका और मीडिया भी उससे मुक्त नहीं हैं। आज ‘सच्चा भारतीय’ का सर्टिफिकेट उसी से मांगा जा रहा है जिसके परिवार के दो प्रधानमंत्री देश के लिए शहीद हुए, और जिसका परिवार स्वतंत्रता संग्राम में जेल जाने का लंबा इतिहास रखता है। प्रियंका गांधी ने सही कहा कोई जज यह तय नहीं कर सकता कि सच्चा भारतीय कौन है। यह फैसला जनता का है, संविधान का है, और लोकतांत्रिक विमर्श का है।

    • * प्रियंका गांधी का सीधा हमला जस्टिस दीपांकर दत्ता द्वारा राहुल गांधी के संदर्भ में ‘सच्चा भारतीय’ जैसी टिप्पणी पर सवाल, और न्यायपालिका की निष्पक्षता पर चोट
    • * जस्टिस दत्ता का पैटर्न राहुल गांधी पर बार-बार राजनीतिक रंग लिए बयान, जिससे यह संयोग नहीं बल्कि एक निरंतर रुख जैसा प्रतीत होना
    • * सावरकर विवाद का राजनीतिकरण स्वतंत्रता सेनानी या विभाजन के सूत्रधार की ऐतिहासिक बहस को जज का बयान और राजनीतिक दिशा देना
    • * 1997 की न्यायिक आचार संहिता का उल्लंघन ‘रेस्टेटमेंट ऑफ वैल्यूज ऑफ ज्यूडिशियल लाइफ’ के नियमों के खिलाफ राजनीतिक बयान और सत्ता से करीबी के संकेत
    • * वंशवाद और कोलेजियम सिस्टम जस्टिस दत्ता का न्यायिक परिवार से आना, और ऊंचे न्यायिक पदों पर परिवारिक नेटवर्क का असर
    • * जजों का सत्ता में प्रवेश विगत 11 वर्षों में कई जजों का रिटायरमेंट के बाद सीधे राजनीति में जाना; आचार संहिता का कमजोर पड़ना
    • * सत्ता के पक्ष में झुकाव, राजनीतिक बयानबाजी और पदलोलुपता के कारण आम जनता का विश्वास डगमगाना
    • * विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया पर सत्ता का अघोषित नियंत्रण बढ़ना
    • * ‘सच्चा भारतीय’ का निर्णय जनता का अधिकार यह परिभाषा संविधान और लोकतांत्रिक विमर्श तय करेगा, न कि कोई जज या सत्ता पक्ष

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