उत्तर प्रदेशवाराणसी

बकौल जस्टिस मुल्ला ‘पुलिस इज द वेल ऑर्गेनाइज्ड गैंग ऑफ गुंडाज इन यूनिफॉर्म’, अधिवक्ताओं को भी संयम से लेना होगा काम

बकौल जस्टिस मुल्ला "Police is the well organized gang of gundas in uniform", अधिवक्ताओं को भी संयम से लेना होगा काम

 

~ खाकी बनाम काला कोट जनता के विश्वास का हत्यारा गठजोड़

~ अहंकार की जंग सड़क पर खाकी बनाम काला कोट

~ जनता के रक्षक या जनता के लुटेरे ?

~ कचहरी की गुंडागर्दी बनाम थाने का आतंक

~ हाईकोर्ट के आदेश और निचली अदालतों की लाचारी

~ स्पा सेंटर कांड जब काला कोट ने ढका काला धंधा

~ ‘पुलिस इज वेल ऑर्गेनाइज्ड गैंग’ जस्टिस मुल्ला की सटीक टिप्पणी

~ लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहां खड़ा है ?

~ जनता की दुर्दशा बचाव के नाम पर दोहरी लूट

 

माया रानी अग्रहरि (एडवोकेट)

 

वाराणसी। सड़कों और अदालतों में इन दिनों जो नजारा दिख रहा है, वह लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था के माथे पर कलंक की तरह है। खाकी वर्दी वाले पुलिसकर्मी और काला कोट पहने वकील दोनों ही जनता के सबसे बड़े हितैषी माने जाते हैं। एक अपराधियों को पकड़ने और समाज को सुरक्षित बनाने का जिम्मेदार है, दूसरा अदालत में खड़ा होकर न्याय दिलाने का ठेका लेता है। लेकिन हकीकत यह है कि दोनों ही जनता की रक्षा के बजाय जनता को लूटने और अपने वर्चस्व की लड़ाई लड़ने में व्यस्त हैं। सड़क हो या कचहरी, दोनों की भिड़ंत अब आम बात हो चली है। कभी दरोगा वकील को अधमरा करता है, तो कभी वकील मिलकर दरोगा की हड्डियां तोड़ डालते हैं। यह लड़ाई केवल अहंकार की है कौन बड़ा? कौन ताकतवर? कौन जनता और अदालत को ज्यादा बंधक बना सकता है?

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खाकी बनाम काला कोट

खाकी वर्दी और काला कोट दोनों ही लाइसेंसधारी ताकत हैं। एक को सत्ता का बल मिला है तो दूसरे को कानून की किताब का। पुलिस कहती है कि वह अपराधियों को पकड़कर समाज को अपराधमुक्त करती है, जबकि वकील दावा करते हैं कि वे न्याय के रक्षक हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि दोनों ही अपने-अपने पेशे की मर्यादा भूल चुके हैं। थानों में खाकी का मतलब पैसे दो और काम लो। कचहरी में काले कोट का मतलब है मुंह खोलो तो फीस दो और तारीख पर तारीख लो। दरअसल दोनों के बीच चल रही लड़ाई महज सत्ता और अहंकार की लड़ाई है। पुलिस खुद को सरकारी शक्ति मानती है, तो वकील खुद को कानून का देवता समझते हैं। दोनों ही मानते हैं कि वे कानून से ऊपर हैं। 16 सितंबर को कचहरी में बड़ागांव थाने के एक दरोगा को वकीलों ने अधमरा कर दिया। इससे पहले रथयात्रा चौराहे पर एक वकील को दरोगा ने इस कदर पीटा कि बीएचयू ट्रॉमा सेंटर में भर्ती कराना पड़ा। ये घटनाएं इस बात का प्रमाण हैं कि अहंकार ने इन दोनों तबकों को कानून का पालन करने वाला नहीं, बल्कि कानून तोड़ने वाला बना दिया है।

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जनता के रक्षक या जनता के लुटेरे

पुलिस और वकील दोनों ही जनता के रक्षक कहलाते हैं, लेकिन आज उनकी असलियत जनता से छिपी नहीं है।पुलिस का काम अपराधियों को पकड़ना और समाज को सुरक्षित बनाना है। लेकिन थानों की हकीकत यह है कि बिना रुपए दिए एफआईआर तक दर्ज नहीं होती। थाना अब न्याय का मंदिर नहीं, दलालों का अड्डा बन गया है। वकीलों का काम अदालत में गरीब, पीड़ित और शोषित को न्याय दिलाना है। लेकिन कचहरी की हकीकत यह है कि वहां केस लटकाने और फीस बढ़ाने का खेल ज्यादा चलता है। जनता इन दोनों को अब गुंडे से अलग नहीं मानती। पुलिस वाला सड़क पर रोकता है तो जनता को लगता है पकड़ा नहीं गया, लूटा गया। वकील से सामना होता है तो पीड़ित सोचता है अब न्याय तो दूर की बात है, पहले जेब ढीली करनी पड़ेगी। यानी सुरक्षा और न्याय, दोनों ही अब महंगे सौदे बन गए हैं। जनता को बचाने का जिम्मा जिन पर था, वही जनता को डराने और लूटने में आगे हैं।

कचहरी की गुंडागर्दी बनाम थाने का आतंक

कचहरी और थाने दोनों ही जनता की नजर में डरावने अड्डे बन चुके हैं। कहा जाता है कि कचहरी में वकीलों के आगे किसी की नहीं चलती। अदालतों का कामकाज उनकी मर्जी पर चलता है। अगर वकीलों ने हड़ताल का ऐलान कर दिया तो पूरा न्यायिक तंत्र ठप्प हो जाता है।

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हाईकोर्ट ने बार-बार वकीलों की हड़ताल पर प्रतिबंध लगाया है, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि वकील आदेशों को ठेंगा दिखाते हैं। वे न्यायाधीशों को भी लाचार बना देते हैं। अदालत की कार्यवाही ठप हो जाती है और पीड़ित वर्षों तक न्याय के इंतजार में भटकता रह जाता है। वहीं थाने में पुलिस से बड़ा कोई गुंडा नहीं दिखता। जमानत, तहरीर, जांच सब पैसों के बिना अधूरी रहती है। जो विरोध करता है उसे झूठे मुकदमों में फंसा देना पुलिस के लिए मुश्किल काम नहीं। दरोगा और सिपाही से जनता इतना डरती है कि थाने जाने को ही सजा मानती है। यही कारण है कि लोग अपराध सहने को तैयार रहते हैं लेकिन थाने जाने से बचते हैं।

टकराव का ताजा रूप

16 सितंबर को वाराणसी कचहरी में जो हुआ उसने साबित कर दिया कि कचहरी और थाना अब कानून के नहीं, गुंडागर्दी के प्रतीक बन चुके हैं। दरोगा सरकारी कार्य से कचहरी आए थे, लेकिन वकीलों ने उन्हें बुरी तरह पीटा। उनकी हालत इतनी खराब हुई कि बीएचयू ट्रॉमा सेंटर में भर्ती कराना पड़ा। इससे पहले रथयात्रा चौराहे पर वकील की पिटाई का मामला सामने आया था। यानी अब मामला सिर्फ वकील बनाम पुलिस नहीं है, बल्कि पूरा सिस्टम जनता की नजर में अराजक हो चुका है।

हाईकोर्ट के आदेश और निचली अदालतों की लाचारी

हाईकोर्ट ने साफ कहा है कि वकील हड़ताल नहीं कर सकते। न्याय प्रक्रिया को बाधित करने का कोई हक उन्हें नहीं है। लेकिन वाराणसी सहित पूरे यूपी में वकील इस आदेश को कचरे की टोकरी में डालते रहे हैं। जब वकील काम बंद करते हैं तो पूरा न्यायिक ढांचा ठप हो जाता है। न्यायाधीश भी मजबूर दिखते हैं क्योंकि अदालत की प्रक्रिया वकीलों के बिना चल नहीं सकती। पीड़ित पक्ष अदालत के चक्कर काटते रह जाते हैं लेकिन उन्हें तारीख पर तारीख के सिवा कुछ नहीं मिलता। पुलिस ने भी इसका जवाब अपने तरीके से दिया है। अब थाने में वकीलों की सिफारिश को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा। पुलिसकर्मी मानते हैं कि अगर वकील हड़ताल कराकर अदालत बंद करा सकते हैं तो वे भी उन्हें नजर अंदाज कर सकते हैं। यह टकराव अब इतना गहरा हो गया है कि दोनों ही वर्ग जनता को बंधक बनाकर अपने-अपने अहंकार की लड़ाई लड़ रहे हैं। न्यायाधीश और प्रशासन इस लड़ाई में मूकदर्शक बने हुए हैं। निचली अदालतें वकीलों के दबाव में लाचार दिखती हैं और पुलिस सत्ता के दबाव में मनमानी करती है।

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स्पा सेंटर कांड और काले कोट की सच्चाई

वाराणसी के सुसवाही इलाके के एक होटल में हाल ही में छापा पड़ा। नाम था स्पा सेंटर लेकिन अंदर देह व्यापार का धंधा फल-फूल रहा था। पुलिस ने छापा मारकर 19 लड़के-लड़कियों समेत होटल मालिक को गिरफ्तार किया। मामला गंभीर था। होटल मालिक पर सीधे-सीधे सेक्स रैकेट चलाने का आरोप था। लेकिन होटल मालिक कोई आम आदमी नहीं था, बल्कि काले कोट वाला शख्स था। जब मामला अदालत में पहुंचा तो जज साहब ने पहले होटल मालिक की जमानत मंजूर की। सूत्रों की मानें तो लोगों ने कहा कि अगर मालिक को जमानत मिल गई तो बाकियों को क्यों नहीं? इस पर जज ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि स्पा सेंटर के मालिक को ही क्यों, सबको जमानत क्यों नहीं? सबको निजी मुचलके पर रिहा किया जाए। यह टिप्पणी न्यायिक व्यवस्था की विवशता और वकीलों की शक्ति दोनों को उजागर करती है। अदालतें कानून की किताब खोलकर बैठती हैं, लेकिन काले कोट वालों का दबाव इतना होता है कि फैसला अक्सर कानून नहीं, ताक़त और दबाव से निकलता है। इस पूरे मामले ने जनता को दोहरा संदेश दिया। पुलिस चाहे कितनी भी कार्रवाई करे, अगर आरोपी वकील है तो बच निकलना तय है। अदालतें भी वकीलों की शक्ति से डरकर अपनी विवशता जाहिर करती हैं। यानी न्याय व्यवस्था के दो पहिए पुलिस और वकील जनता को नहीं, ताकतवर को बचाने में व्यस्त हैं।

‘Police is well organized gang’ – जस्टिस मुल्ला का सच

जस्टिस आनंद नारायण मुल्ला का कथन आज भी उतना ही सटीक है जितना आज से दशकों पहले था कि पुलिस इज द वेल ऑर्गेनाइज्ड गैंग ऑफ गुंडाज इन यूनिफॉर्म। क्यों कहा था ऐसा? जस्टिस मुल्ला ने यह टिप्पणी तब दी थी जब यूपी पुलिस के आचरण पर सवाल उठ रहे थे। उन्होंने साफ कहा था कि पुलिस अपराध मिटाने के बजाय खुद संगठित गुंडों का गिरोह बन गई है। आज की तस्वीर और भयावह है। सड़क पर चेकिंग के नाम पर वसूली। थाने में एफआईआर दर्ज करने से पहले रिश्वत। अपराधी से सांठगांठ कर निर्दोष को फंसाना। यह सब जस्टिस मुल्ला के कथन को बार-बार सही साबित करता है। अगर पुलिस खाकी में संगठित गुंडे हैं तो काले कोट में सफेदपोश दलाल बन चुके हैं। वे अपराधियों को सजा दिलाने के बजाय बचाने की रणनीति खोजते हैं। वे अदालत में बहस से ज्यादा हड़ताल और दबाव की राजनीति करते हैं। वे आम आदमी को न्याय से ज्यादा तारीखें दिलाते हैं। इस तरह पुलिस और वकील दोनों ही जनता के लिए नहीं, अपने हितों के लिए काम करने लगे हैं।

लोकतंत्र और जनता की दुर्दशा

भारत का लोकतंत्र पुलिस और वकील दोनों पर निर्भर करता है। पुलिस जनता को सुरक्षा देती है। वकील अदालत में न्याय दिलाते हैं। लेकिन जब दोनों ही अपने कर्तव्यों से भटक जाएं तो लोकतंत्र भाग्य भरोसे ही चलता है।

  • अपराधी से बचाने वाली पुलिस ही जब अपराधी से मिल जाए तो जनता कहां जाए?
  • अदालत में न्याय दिलाने वाले वकील ही जब केस लटकाने लगें तो पीड़ित किसके पास जाए?
  • न्यायाधीश लाचार हैं क्योंकि अदालत का काम वकीलों पर निर्भर है।
  • प्रशासन पंगु है क्योंकि पुलिस राजनीतिक दबाव में काम करती है।
  • लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया भी इस पर चुप रहता है। कभी पुलिस को बचाने की खबर छापी जाती है, कभी वकीलों के पक्ष में मोर्चा खोला जाता है। नतीजा यह होता है कि जनता की आवाज कहीं सुनाई ही नहीं देती।
  • जनता के लिए थाने और कचहरी दोनों ही लूट और डर का प्रतीक बन गए हैं।
  • थाने में जाने का मतलब जेब खाली करना।
  • कचहरी में जाने का मतलब सालों तक केस में फंसना।

दोहरी लूट का शिकार समाज

आज पुलिस और वकील दोनों ही जनता के लिए मुसीबत बन चुके हैं। दोनों ही वर्गों ने अपने पेशे की गरिमा और जिम्मेदारी भुला दी है। पुलिस जनता की सुरक्षा के बजाय सत्ता की ढाल बन गई है। वकील जनता को न्याय दिलाने के बजाय अदालतों को बंधक बना चुके हैं। दोनों ही जनता से ज्यादा अपने-अपने ‘गैंग’ के लिए काम करते हैं। जनता की छवि में दोनों की स्थिति एक जैसी है चोर-चोर मौसेरे भाई। सड़क पर पुलिस रोक ले तो डर लगता है, कचहरी में वकील पकड़ ले तो जेब कांप जाती है। लोकतंत्र की असली तस्वीर यही है कि जनता अकेली, असहाय और ठगी-सी खड़ी है। उसे न पुलिस पर भरोसा है, न वकीलों पर। न्याय और सुरक्षा का सपना अब केवल किताबों में है, ज़मीनी सच्चाई यह है कि जनता दोहरी लूट की शिकार है।

  • खाकी और काला कोट दोनों अहंकार की लड़ाई में जनता को बंधक बनाए हुए हैं।
  • पुलिस सत्ता की ढाल, वकील कचहरी के तानाशाह बन चुके हैं।
  • थानों में वसूली और कचहरी में हड़ताल जनता की सबसे बड़ी मुसीबत।
  • स्पा सेंटर कांड ने दिखा दिया कि काले कोट की आड़ में काला धंधा फल-फूल रहा है।
  • जस्टिस मुल्ला की टिप्पणी ‘पुलिस इज द वेल ऑर्गेनाइज्ड गैंग ऑफ गुंडाज’ आज भी उतनी ही प्रासंगिक।
  • अदालतें लाचार, न्यायाधीश विवश और जनता बेबस।
  • लोकतंत्र भाग्य भरोसे चल रहा है, जनता के लिए न सुरक्षा है, न न्याय।
  • जनता अब पुलिस और वकील दोनों को ही गुंडा मानती है और दूरी बनाना ही अपनी भलाई समझती है।

E-Paper: अचूक संघर्ष 26 सिंतबर-2 अक्टूबर 2025

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