मोदी सरकार ने 140 करोड़ भारतीयों का किया अपमान, शहीदों की भावना का भी नही रखा मान
क्रिकेट के नाम पर राष्ट्रवाद का छलावा : मोदी सरकार का दोहरा खेल

~ एशिया कप से वर्ल्ड कप तक राजनीति ने तय किए खेल के नियम
~ अंतर्राष्ट्रीय मजबूरी : मोदी सरकार का सबसे बड़ा झूठ
~ भाजपा का राष्ट्रवाद टीवी की चीख वो जोंबी समाज का नाच
~ मीडिया की चुप्पी और सत्ता की लाठी, क्रिकेट का मैदान या मोदी सरकार का चुनावी स्टेज?
~ खेल व कूटनीति की झूठी जुगलबंदी, मोदी सरकार का दोहरा चेहरा जबरदस्ती की मजबूरी का आख्यान
जब राजनीति खेल को बंधक बना ले और राष्ट्रवाद का झंडा केवल सत्ता की जरूरत के हिसाब से फहराया जाए, तब क्रिकेट का हर चौका-छक्का एक सवाल बन जाता है। सवाल यह कि क्या वाक़ई खेल कूटनीति से बड़ा है, या फिर यह सिर्फ सत्ता का झूठा आख्यान है? इतिहास गवाह है कि खेल के बहिष्कार और टूर्नामेंट रद्द होने की लंबी परंपरा रही है, लेकिन आज के भारत में जब क्रिकेट भारत-पाक मैच खेला जा रहा है, तो इसे ‘अंतर्राष्ट्रीय मजबूरी’ कहकर पेश किया जा रहा है। यही है नकली राष्ट्रवाद का असली चेहरा। कहानी साफ है जब विपक्ष की सरकारें थीं तो खेल का बहिष्कार राष्ट्रवाद” कहलाता था, और जब मोदी सरकार आई तो वही खेल अंतर्राष्ट्रीय मजबूरी बन गया। यही है भाजपा के राष्ट्रवाद का असली चेहरा सत्ता की जरूरत के हिसाब से बदलता हुआ। मोदी सरकार ने क्रिकेट को महज चुनावी तमाशा बना दिया है और देशभक्ति को ट्रोल आर्मी की चीख़ में बदल डाला है।
- खेल हमेशा से राजनीति और राष्ट्रवाद के दायरे में रहे हैं
मोदी सरकार का अंतर्राष्ट्रीय मजबूरी का तर्क पूरी तरह से झूठ और पाखंड - अगर विपक्ष की सरकार होती तो भाजपा और उसके ट्रोल गिरोह यही कदम देशद्रोह कहकर प्रचारित करते
- मीडिया का पाखंड और जनता की भूलने की आदत, इस दोहरे राष्ट्रवाद को मजबूत करती
- क्रिकेट और राष्ट्रवाद का यह छलावा, असल मुद्दों से ध्यान हटाने की साजिश
खेल और राजनीति का पुराना रिश्ता
खेल और राजनीति का रिश्ता कोई नया नहीं है। इतिहास बताता है कि जब-जब अंतर्राष्ट्रीय संबंध बिगड़े हैं, खेल सबसे पहले उसका शिकार बना। भारत भी इस इतिहास से अछूता नहीं रहा।
1974 डेविस कप: भारत ने फाइनल तक पहुंचने के बावजूद दक्षिण अफ्रीका से मैच खेलने से इंकार कर दिया कारण दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद नीति। यह निर्णय खेल से ऊपर उठकर राजनीतिक और नैतिक मूल्यों की जीत थी।
1986 एशिया कप: भारत ने श्रीलंका में आयोजित टूर्नामेंट में हिस्सा लेने से इंकार कर दिया। वजह दोनों देशों के बीच राजनीतिक और सुरक्षा तनाव।
1990-91 एशिया कप कश्मीर में विद्रोह और तनाव के चलते पाकिस्तान ने टूर्नामेंट छोड़ दिया।
1993 एशिया कप भारत-पाक संबंधों में तनाव इतना बढ़ा कि पूरा टूर्नामेंट ही रद्द करना पड़ा। ये उदाहरण बताते हैं कि खेल कभी भी राजनीति से अलग नहीं रहे। खेल को खेल की तरह की देखने का तर्क बार-बार सत्ता के हिसाब से बदलता रहा है।
विश्व राजनीति बनी खेल का निर्णायक
शीत युद्ध के दौर में अमेरिका और सोवियत संघ ने ओलंपिक का बहिष्कार किया। रंगभेद विरोधी आंदोलन के दौरान कई देशों ने दक्षिण अफ्रीका को खेलों से बाहर रखा। खेल आयोजनों का बहिष्कार, स्थगन और रद्द होना यह सब राजनीतिक निर्णयों का हिस्सा रहे हैं। इसलिए जब आज अंतर्राष्ट्रीय मजबूरी का झूठा राग अलापा जाता है, तो यह इतिहास की अनदेखी है।
1996 विश्व कप का काला पन्ना
1996 क्रिकेट विश्व कप का इतिहास बताता है कि खेल को राजनीतिक अस्थिरता से अलग नहीं किया जा सकता। उस समय ऑस्ट्रेलिया और वेस्टइंडीज़ ने श्रीलंका के खिलाफ खेलने से इनकार कर दिया। उन्होंने मैच का वॉकओवर दिया। कारण सुरक्षा बहाना और राजनीतिक दबाव। इस घटना से यह साबित होता है कि विश्व कप जैसे बड़े टूर्नामेंट भी राजनीति के दबाव से बच नहीं सकते।
पाकिस्तान का हॉकी से बॉयकॉट
अभी हाल ही में पाकिस्तान ने एशिया कप हॉकी टूर्नामेंट का बहिष्कार कर दिया। उसने अपनी टीम भेजने से इंकार कर दिया। यह दर्शाता है कि खेल आयोजनों से दूरी बनाना आज भी राजनीतिक और कूटनीतिक कारणों से होता है।
मोदी सरकार और अंतर्राष्ट्रीय मजबूरी का मिथक
आज भाजपा और उसके समर्थक गिरोह यह तर्क दे रहे हैं कि भारत-पाक क्रिकेट मैच खेलना अंतर्राष्ट्रीय मजबूरी है जो सरासर झूठ है। जब 1993 में एशिया कप रद्द हो सकता था, तो क्या तब मजबूरी नहीं थी। भारत ने 1986 में श्रीलंका जाने से इनकार किया, तो क्या तब मजबूरी नहीं थी। जब ऑस्ट्रेलिया और वेस्टइंडीज ने वर्ल्ड कप में वॉकओवर दिया, तो क्या तब मजबूरी थी।यह सिर्फ सत्ता का नैरेटिव है। यही लोग अगर विपक्ष की सरकार होती तो सोशल मीडिया पर ‘देशद्रोह’, ‘आतंकवाद पर झुकाव’ जैसे हैशटैग ट्रेंड करवा चुके होते।
राष्ट्रवाद का ढोंग और जनता की स्मृति
आज गर्म सिंदूर और नकली राष्ट्रवाद का ढोल पीटा जा रहा है। लेकिन यह राष्ट्रवाद सत्ता की सुविधा के हिसाब से चलता है। यही वजह है कि जनता को असली मुद्दों, बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार से भटकाने के लिए क्रिकेट का मैदान इस्तेमाल किया जाता है। सोशल मीडिया पर ट्रोल आर्मी तैयार है। विपक्ष को गाली देना, सरकार को मसीहा दिखाना और नकली राष्ट्रवाद को महिमा मंडित करना यही उनका काम है।
मीडिया का पाखंड और चुप्पी
मीडिया जो कभी 1990 और 2000 के दशक में सत्ता से सवाल करता था, अब पूरी तरह सत्ता का भोंपू बन चुका है। भारत-पाक क्रिकेट मैच को मजबूरी बताना और इसे राष्ट्र की ‘शान’ कहना यही मीडिया का नया धर्म है। पत्रकारिता अब सत्ता का प्रवक्ता है। क्रिकेट का मैदान अब सिर्फ खेल नहीं है, यह राजनीतिक प्रचार का मंच है। मैच को राष्ट्रवाद से जोड़ना, जीत को देश की जीत कहना, हार पर विपक्ष को जिम्मेदार ठहराना
यह सब सत्ता की रणनीति का हिस्सा है।
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति बनाम घरेलू राष्ट्रवाद
दुनिया के उदाहरण भी बताते हैं कि खेल को राजनीति से अलग नहीं रखा जा सकता। इजरायल-फिलिस्तीन विवाद, अमेरिका-ईरान टकराव, रूस-यूक्रेन युद्ध
हर जगह खेल बहिष्कार का हथियार बना है।
लेकिन भारत में राष्ट्रवाद का चेहरा इतना पाखंडी है कि वही कदम कभी देशभक्ति और कभी मजबूरी कहा जाता है।
क्रिकेट का हर मैच एक आईना
क्रिकेट मैच अब केवल खेल नहीं है। यह राजनीति का आईना है। इसमें साफ झलकता है कि सत्ता किस तरह जनता को मूर्ख बना रही है। इतिहास गवाह है कि खेलों का बहिष्कार, टूर्नामेंट का रद्द होना और वॉकओवर देना कोई नई बात नहीं। लेकिन आज जब मोदी सरकार के दौर में वही चीज़ होती है, तो इसे मजबूरी बताकर पेश किया जाता है। यही है राष्ट्रवाद का असली छलावा।
- खेल हमेशा राजनीति से प्रभावित रहे हैं।
- 1974, 1986, 1990-91, 1993, 1996 के उदाहरण इसका प्रमाण हैं।
- मोदी सरकार का अंतर्राष्ट्रीय मजबूरी का तर्क झूठा और पाखंडी है।
- मीडिया पूरी तरह सत्ता का भोंपू बना।
- क्रिकेट और राष्ट्रवाद का यह छलावा जनता को असली मुद्दों से भटकाने का जरिया है।
मोदी का राष्ट्रवाद सुविधा का खेल
मोदी सरकार और भाजपा का राष्ट्रवाद एक लचीली रबर की तरह है। जब विपक्ष खेलता है तो यह देशद्रोह कहलाता है। जब खुद खेलते हैं तो यह अंतर्राष्ट्रीय मजबूरी बन जाता है। यही है भाजपा की असली पहचान राजनीति के लिए झूठ गढ़ों, जनता को अफीम पिलाओ और खुद को राष्ट्रभक्त बताओ।
ट्रोल आर्मी और गर्म सिंदूर का झूठ
भाजपा की सोशल मीडिया फैक्ट्री दिन-रात यही काम करती है झूठ गढ़ना। अगर आज विपक्ष की सरकार होती और भारत-पाक मैच होता तो यही जोंबी समुदाय सोशल मीडिया पर कैबरे कर रहा होता। लेकिन अब सत्ता मोदी के हाथ में है, तो वही काम राष्ट्रभक्ति कहलाता है। यह नकली राष्ट्रवाद का सबसे वीभत्स चेहरा है।
मोदी सरकार का प्रचार बना क्रिकेट
क्रिकेट का हर मैच अब मोदी सरकार के लिए प्रचार का मंच है। जीत होगी तो मोदी का करिश्मा। हार होगी तो टीम का कमजोर प्रदर्शन, लेकिन सरकार पर सवाल नहीं। यही कारण है कि सरकार असली मुद्दों बेरोजगारी, महंगाई, किसान संकट से जनता का ध्यान भटकाने के लिए क्रिकेट का तमाशा परोसती है।