शासन प्रशासन

वक्फ बोर्ड कानून: सुप्रीम कोर्ट से नही हुआ पूरा समाधान, आगे क्या होगा ये तो जज ही जाने श्रीमान

तुषार मौर्य

~ आधे-अधूरे फैसले से न्याय अधर में, सवालों के घेरे में सुप्रीम कोर्ट

~ आधा है चंद्रमा सुप्रीम कोर्ट का आधा-अधूरा न्याय

~ वक्फ संपत्तियों पर सरकार की नजर, पारदर्शिता या कब्जे की साजिश

~ धाराओं पर रोक, पर कानून की आत्मा बरकरार जनता के हिस्से में निराशा

~ धार्मिक अधिकार बनाम कार्यपालिका की मनमानी कौन तय करेगा ‘कौन मुस्लिम’

~ इलेक्टोरल बॉन्ड से वक्फ कानून तक आधे फैसलों का सिलसिला

~ न्यायपालिका बनाम विधायिका टकराव से बचने की मजबूरी

~ जनसंघर्ष ही अंतिम विकल्प किसानों की जीत इसका प्रमाण

~ संघर्ष जारी रहेगा वक्फ पीड़ित पक्ष की दो टूक चेतावनी

 

देश की विडंबना यही है कि यहां जनता को कभी पूरा न्याय नहीं मिलता। हर बार आधा-अधूरा फैसला जनता की झोली में डाल दिया जाता है। जनता जिसे सर्वोच्च न्यायालय से अंतिम उम्मीद होती है, वहीं से भी जब निचोड़ केवल अंतरिम राहत निकल कर आए, तो न्याय की गरिमा और व्यवस्था दोनों सवालों के कटघरे में खड़े हो जाते हैं। वक्फ बोर्ड कानून पर सुप्रीम कोर्ट का ताज़ा फैसला भी वही कहानी दोहराता है न पूरी राहत, न पूरा समाधान, बस अधर में लटका न्याय। अदालत ने देश को निराश किया है या एक सुनियोजित राजनीतिक और कानूनी चाल का हिस्सा है।

आधा है चंद्रमा सुप्रीम कोर्ट का आधा-अधूरा न्याय

भारत का लोकतांत्रिक ढांचा हमेशा से न्यायपालिका को सर्वोच्च स्थान देता आया है। जनता का विश्वास यह रहा है कि जब सत्ता, कानून और व्यवस्था सब विफल हो जाते हैं, तो आखिरी सहारा सुप्रीम कोर्ट ही है। लेकिन यह विश्वास अब दरकता जा रहा है। वक्फ बोर्ड कानून पर आए सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले ने इस धारणा को और मजबूत कर दिया है कि अदालत अब पूर्ण न्याय देने में सक्षम या इच्छुक नहीं रह गई है। सुप्रीम कोर्ट ने वक्फ अधिनियम में किए गए कुछ संशोधनों को लेकर महत्वपूर्ण टिप्पणियां की और तीन धाराओं पर रोक भी लगाई, लेकिन पूरे कानून को निरस्त करने या रोकने से साफ इनकार कर दिया। यानी एक तरफ जनता को राहत की झलक दिखाई गई और दूसरी तरफ पूरा दरवाजा बंद कर दिया गया। अदालत ने कहा कि उसके पास पूरे कानून को रोकने का अधिकार नहीं है।

वक्फ संपत्तियों पर सरकार की नजर, पारदर्शिता या कब्जे की साजिश

केंद्र की मोदी सरकार ने वक्फ कानून में संशोधन करते हुए दावा किया था कि इसका उद्देश्य वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन में पारदर्शिता लाना और दुरुपयोग रोकना है। लेकिन हकीकत यह है कि सरकार की नजर अरबों-खरबों की वक्फ संपत्तियों पर थी। इन संपत्तियों पर नियंत्रण पाने के लिए ही कानून में गैर-मुस्लिम और महिला सदस्यों को वक्फ बोर्ड में शामिल करने का प्रावधान किया गया। कलेक्टर को संपत्ति सर्वे का अधिकार देना और वक्फ ट्रिब्यूनल के फैसलों को हाईकोर्ट में चुनौती देने का रास्ता खोलना भी इसी रणनीति का हिस्सा था। जाहिर है कि सरकार यह सुनिश्चित करना चाहती थी कि वक्फ संपत्तियों पर उसकी सीधी पकड़ हो सके और कोई भी समुदाय इसके खिलाफ खड़ा न हो सके। सुप्रीम कोर्ट का आधा-अधूरा फैसला इस साजिश को ही मजबूत करता दिखाई दे रहा है।

  • सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने तीन महत्वपूर्ण प्रावधानों पर रोक लगाई।
  • पहला, बोर्ड में तीन से ज्यादा गैर-मुस्लिम सदस्यों की नियुक्ति पर रोक।
  • दूसरा, वक्फ एक्ट की धारा 3(74) के तहत मुस्लिम पहचान की शर्तों पर रोक।
  • तीसरा, राजस्व रिकॉर्ड से जुड़े प्रावधान पर रोक।

इसके बावजूद कानून की आत्मा जस की तस बनी हुई है। कोर्ट ने साफ कहा कि वक्फ संपत्तियों का पंजीकरण अनिवार्य होगा। यही प्रावधान पहले भी था, और अब भी जारी रहेगा। सवाल यह है कि क्या इन तीन प्रावधानों पर रोक से सचमुच वक्फ संपत्तियों को बचाया जा सकेगा। सरकार का मुख्य इरादा और कानून की मूल संरचना कायम है क्योंकि उसके पास जवाब नहीं है।

धार्मिक अधिकार बनाम कार्यपालिका की मनमानी

सबसे बड़ा विवादास्पद मुद्दा यही था कि कानून में प्रावधान किया गया कि केवल वही व्यक्ति अपनी संपत्ति वक्फ घोषित कर सकता है जो पिछले पांच साल से इस्लाम का पालन कर रहा हो। यानी कार्यपालिका यह तय करेगी कि कौन मुस्लिम है और कौन नहीं। यह न सिर्फ धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि संविधान की मूल भावना के भी खिलाफ है। सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रावधान पर रोक लगाते हुए कहा कि किसी व्यक्ति की धार्मिक पहचान तय करने का अधिकार कार्यपालिका के पास नहीं हो सकता। लेकिन अदालत ने यह नहीं बताया कि इसका हल क्या होगा। अदालत का यह कहना कि राज्य अपने स्तर पर नियम बनाए जो स्थिति को और भी जटिल बना देता है। यानी गेंद फिर से सरकार के पाले में डाल दी गई और जनता के हिस्से में अनिश्चितता ही आई।

पीड़ित पक्ष की दो टूक चेतावनी

वक्फ से जुड़े संगठनों और पीड़ित पक्षों ने सुप्रीम कोर्ट के इस आधे-अधूरे फैसले पर निराशा जताई है। उनका कहना है कि जब तक यह कानून पूरी तरह वापस नहीं होता, संघर्ष जारी रहेगा। उनकी नजर में यह फैसला केवल अस्थाई राहत है, अंतिम जीत नहीं। कानून की मूल भावना को देखते हुए साफ है कि सरकार का मकसद वक्फ संपत्तियों को नियंत्रण में लेना है। अरबों की संपत्ति पर दावा करना ही असल एजेंडा है। ऐसे में पीड़ित पक्ष का संघर्ष केवल अदालतों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि सड़क पर भी दिखेगा। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारतीय लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था के सामने कई सवाल खड़े करता है। एक बात साफ है यह फैसला न्याय की तलाश करने वालों को राहत नहीं, बल्कि और गहरे संघर्ष में धकेलने वाला है। जनता आज भी आशा भोसले के गाए गीत की पंक्ति को जी रही है ‘आधा है चंद्रमा, रात आधी।’

  • सुप्रीम कोर्ट ने वक्फ कानून की तीन धाराओं पर रोक लगाई, पूरे कानून को निरस्त करने से इनकार।
  • बोर्ड में तीन से ज्यादा गैर-मुस्लिम सदस्य न हों प्रावधान पर रोक।
  • पांच साल से इस्लाम मानने की शर्त और धारा 3(74) पर रोक।
  • राजस्व रिकॉर्ड से जुड़े प्रावधान पर भी रोक लगाई गई।
  • वक्फ संपत्तियों का पंजीकरण अनिवार्य रहेगा।
  • कार्यपालिका को धार्मिक पहचान तय करने का अधिकार नहीं।
  • पीड़ित पक्ष का कहना जब तक कानून वापस नहीं होगा, संघर्ष जारी रहेगा।
  • मोदी सरकार का मकसद वक्फ संपत्तियों पर नियंत्रण और दखल।
  • सुप्रीम कोर्ट का फैसला आधा-अधूरा, जनता के हिस्से में फिर निराशा।
  • लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था पर गहरे सवाल खड़े।

जब सुप्रीम कोर्ट भी जनता को अधर में छोड़ देता है

भारत के लोकतंत्र की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि जनता को कभी पूरा न्याय नहीं मिलता। कानून बनाने वाली सरकारें जनता के हक पर हमला करती हैं और जब जनता अंतिम उम्मीद लेकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाती है, तब वहां से भी आधा-अधूरा फैसला ही मिलता है। वक्फ बोर्ड कानून पर हालिया आदेश से लेकर इलेक्टोरल बॉन्ड तक, बार-बार यही साबित हुआ है कि न्यायपालिका सांप भी मारना चाहती है और लाठी भी नहीं तोड़ना चाहती। सवाल यह है कि यदि सुप्रीम कोर्ट भी पूरे न्याय से कतराएगा तो क्या लोकतंत्र में जनसंघर्ष ही आखिरी विकल्प नहीं बचेगा।

जब अदालत भी अधर में छोड़ दे जनता को

भारत के संविधान में सुप्रीम कोर्ट को जनता की अंतिम उम्मीद माना गया है। लेकिन यह उम्मीद बार-बार आधे-अधूरे फैसलों में टूट जाती है। हालिया उदाहरण वक्फ बोर्ड कानून का है। जब अदालत से पूरे कानून पर रोक की उम्मीद थी, तब अदालत ने महज तीन धाराओं पर अंतरिम रोक लगाई और यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि पूरे कानून को निरस्त करने का अधिकार उसके पास नहीं है। अगर सर्वोच्च अदालत भी कह दे कि वह कानून को पूरी तरह नहीं रोक सकती, तो फिर इस देश में न्याय का अंतिम स्तंभ कौन है। कानून बनाना भले विधायिका का काम हो, लेकिन संविधान-विरोधी कानूनों पर रोक लगाना न्यायपालिका का दायित्व है। मगर अदालत जब इस दायित्व से बचती है, तो यह जनता के साथ धोखा ही है।

इलेक्टोरल बॉन्ड से वक्फ कानून तक

सुप्रीम कोर्ट से आधे-अधूरे फैसलों की यह परंपरा नई नहीं है। इलेक्टोरल बॉन्ड पर दिए गए फैसले को ही देखिए। अदालत ने चुनावी चंदे के इस हथकंडे को असंवैधानिक बताया और आगे की बिक्री पर रोक भी लगा दी। लेकिन पहले से बेचे जा चुके बांड से राजनीतिक दलों ने जो हजारों करोड़ रुपए हथियाए, उस पर कोई ठोस आदेश नहीं दिया। न तो यह पैसा वापसी का सवाल उठा, न ही जिम्मेदारी तय हुई। ठीक वही स्थिति अब वक्फ बोर्ड कानून के मामले में भी दिखाई दे रही है। अदालत ने कुछ धाराओं पर रोक लगा दी, लेकिन कानून की मूल संरचना जस की तस बनी रही। यानी जनता को राहत का भ्रम दिखा दिया गया, जबकि असल समस्या जस की तस खड़ी है। यही न्यायपालिका की कार्यशैली है न पूरी राहत, न पूरी चोट। न सरकार पूरी तरह जीते, न जनता पूरी तरह जीते। नतीजा यह कि लोकतंत्र अधर में झूलता रहता है।

न्यायपालिका बनाम विधायिका

आखिर सुप्रीम कोर्ट बार-बार आधा-अधूरा फैसला क्यों सुनाता है? इसका जवाब खुद न्यायपालिका की संरचना में छिपा है। न्यायपालिका को सब कुछ विधायिका से ही मिलता है। जजों की नियुक्ति से लेकर उनका बजट तक। ऐसे में अदालत खुलकर विधायिका से टकराव मोल नहीं लेना चाहती। अदालत की सीमाएं हमसे ज्यादा खुद अदालत को मालूम हैं। यही कारण है कि हर बार ऐसा फैसला आता है जिससे न सरकार पूरी तरह नाराज हो और न जनता पूरी तरह खुश। सांप भी मरे और लाठी भी न टूटे वाली रणनीति है। लेकिन इस रणनीति से सबसे ज्यादा नुकसान जनता का होता है। क्योंकि जनता न तो सरकार से न्याय पाती है और न अदालत से। अदालत जब जनता को अधर में छोड़ देती है, तब लोकतंत्र की पूरी नींव हिल जाती है।

जनसंघर्ष ही अंतिम विकल्प

जब अदालतें भी पूरी राहत देने से बचती हैं, तब जनता के सामने एक ही रास्ता बचता है जनसंघर्ष। इतिहास गवाह है कि जब-जब जनता ने एकजुट होकर सरकार पर दबाव बनाया है, तब-तब अन्यायपूर्ण कानून वापस हुए हैं। हालिया उदाहरण तीन कृषि कानूनों का है। देश के किसानों ने दिल्ली की सीमाओं पर 700 से ज्यादा शहादते दीं, एक साल से ज्यादा सत्याग्रह किया और आखिरकार मोदी सरकार को कानून वापस लेने पड़े। यह प्रमाण है कि जनसंघर्ष ही अंतिम और असली न्याय दिलाने का माध्यम है। आज वक्फ बोर्ड कानून के खिलाफ संघर्ष कर रहे लोग भी इसी रास्ते पर चलने को मजबूर हैं। जब अदालत पूरी राहत नहीं देती, तब जनता को गांधीवादी सत्याग्रह और जनदबाव से लड़ाई लड़नी पड़ती है। यही लोकतंत्र का सबसे सशक्त हथियार है। वक्फ बोर्ड कानून पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला जनता की निराशा बढ़ाने वाला है। यह न पहली बार हुआ है और न आखिरी बार। इलेक्टोरल बॉन्ड से लेकर कई संवेदनशील मामलों तक सुप्रीम कोर्ट ने आधे-अधूरे फैसले सुनाए हैं।

  • सुप्रीम कोर्ट का वक्फ बोर्ड कानून पर फैसला कुछ धाराओं पर रोक, लेकिन पूरे कानून पर नहीं।
  • जनता को मिला आधा-अधूरा न्याय, असली समस्या जस की तस।
  • इलेक्टोरल बॉन्ड मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने यही किया बिक्री रोकी, पर पहले से जुटाए पैसे पर चुप्पी।
  • अदालत विधायिका से टकराव लेने से बचती है, क्योंकि सब कुछ वहीं से आता है।
  • सांप भी मरे और लाठी भी न टूटे वाली रणनीति में सबसे ज्यादा नुकसान जनता का।
  • किसानों के संघर्ष ने साबित किया कि जनसंघर्ष ही कानून वापस कराने का सबसे सशक्त हथियार है।
  • वक्फ बोर्ड कानून पर भी पीड़ित पक्ष संघर्ष जारी रखने को मजबूर।
  • जनता को अब आधे-अधूरे फैसलों की आदत डालनी होगी, या फिर संघर्ष के रास्ते पर चलना होगा।

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