मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार बेहयाई व थेथरलाजी पर आमादा,राहुल गांधी को धमका रहे कभी कम कभी ज्यादा!
चुनाव आयोग या चुनाव मंत्रालय? लोकतंत्र के प्रहरी की गिरती साख और भयावह संकट लोकतंत्र का प्रहरी या सत्ता का सेवक?

- लोकतंत्र का प्रहरी या सत्ता का सेवक?
- आयोग पर उठते सवाल और जनता का अविश्वास
- राहुल गांधी के सबूत बनाम अनुराग ठाकुर के आरोप
- फर्जी मतदाताओं का खेल महादेवपुरा से लेकर बिहार तक
- मतदाता सूची संशोधन पर बवाल और एसआईआर की सच्चाई
- सुप्रीम कोर्ट की अनदेखी और आयोग की चुप्पी
- ‘चुनाव मंत्रालय’ की छवि से कितना नुकसान
- लोकतंत्र के भविष्य पर मंडराता भयावह संकट!

देश के लोकतंत्र पर सबसे बड़ा खतरा तब मंडराता है जब चुनाव कराने वाली सर्वोच्च संवैधानिक संस्था ही जनता की नजरों में अपनी साख खो दे। बीते सात-आठ सालों में चुनाव आयोग ने जिस तरह काम किया है, उसने इस संस्था की निष्पक्षता और विश्वसनीयता पर गहरे सवाल खड़े कर दिए हैं। विपक्ष तो उसे ‘चुनाव मंत्रालय’ कह ही रहा है, सोशल मीडिया पर लोग उसे ‘केंचुआ’ तक कहने लगे हैं। स्थिति यह है कि जो भी नया मुख्य चुनाव आयुक्त आता है, वह अपने पूर्ववर्ती से अधिक सरकार का खिदमतगार साबित करने में जुट जाता है। सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अनदेखी कर सत्ता को खुश करने की प्रवृत्ति और चुनाव प्रक्रिया की पारदर्शिता पर लगातार उठते सवाल अब भारतीय लोकतंत्र के लिए भयावह संकट का संकेत हैं।
* पिछले एक दशक में चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल
* विपक्ष का आरोप आयोग सत्ता के इशारे पर भाजपा के पक्ष में काम कर रहा
* राहुल गांधी ने बेंगलूरु में 1,02,250 फर्जी वोटरों का सबूत पेश किया
* अनुराग ठाकुर ने विपक्षी नेताओं पर विदेशी घुसपैठियों को वोटर बनाने का आरोप लगाया, लेकिन कोई दस्तावेजी सबूत नहीं दिया
* बिहार में चुनाव से पहले विशेष गहन पुनरीक्षण की कार्रवाई ने संदेह और गहरा किया
* सोशल मीडिया और जनमानस में आयोग की छवि ‘चुनाव मंत्रालय’ जैसी बनी
* सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अनदेखी कर आयोग ने अपनी विश्वसनीयता दांव पर लगाई
* निष्पक्ष चुनाव की गारंटी देने वाली संस्था ही सवालों में घिर गई, जिससे लोकतंत्र का भविष्य संकट में है।
भाजपा नेताओं की विवादित बयानबाजी पर कार्रवाई से बचना
भारत का संविधान चुनाव आयोग को वह संवैधानिक दर्जा देता है, जिसकी बदौलत वह पूरी चुनाव प्रक्रिया का स्वतंत्र और निष्पक्ष प्रहरी बनकर कार्य करता है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इसकी छवि पूरी तरह बदल चुकी है।
आयोग पर सवाल है कि विपक्ष और नागरिक समाज का आरोप है कि चुनाव आयोग निष्पक्ष निर्णय लेने के बजाय सत्तारूढ़ दल के इशारे पर फैसले करता है।प्रधानमंत्री या भाजपा नेताओं की विवादित बयानबाजी पर कार्रवाई से बचना, जबकि विपक्षी नेताओं पर तुरंत कार्रवाई करना। यही कारण है कि अब जनता आयोग को संविधान का प्रहरी नहीं, बल्कि सत्ता का सेवक मानने लगी है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव आयोग से अधिक महत्वपूर्ण कोई संस्था नहीं होती। लेकिन अगर वही संस्था सवालों में घिर जाए, तो यह केवल एक संस्थागत संकट नहीं, बल्कि लोकतंत्र के अस्तित्व पर भी प्रश्नचिह्न है।
ईवीएम पर उठते सवालों की अनदेखी, आचार संहिता के मामलों में पक्षपातपूर्ण रवैया
लोकतांत्रिक संस्थाओं की विश्वसनीयता उनके आचरण और फैसलों से बनती है। चुनाव आयोग के मामलों में बार-बार दिखा है कि उसके फैसले सत्तारूढ़ दल के पक्ष में झुके हुए नजर आते हैं। ईवीएम पर उठते सवालों की अनदेखी, आचार संहिता के मामलों में पक्षपातपूर्ण रवैया और विपक्ष की शिकायतों को टालना ये सब चुनाव आयोग की गिरती साख के प्रमाण हैं। जनता के बीच यह धारणा मजबूत हो चुकी है कि आयोग अपने मान-अपमान की चिंता से मुक्त है और उसकी जवाबदेही कहीं खो गई है।
अनुराग ठाकुर ने 7 दिन में ही पांच लोकसभा व एक विधानसभा क्षेत्र में फर्जी वोटरों की संख्या गिनाई सबूत गायब
7 अगस्त 2025 को राहुल गांधी ने एक प्रेस कांफ्रेंस कर चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली पर गंभीर आरोप लगाए। उन्होंने दावा किया कि बेंगलूर सेंट्रल लोकसभा सीट के तहत आने वाले महादेवपुरा विधानसभा क्षेत्र में 1,02,250 फर्जी वोटर जोड़े गए। राहुल गांधी ने हजारों पन्नों के दस्तावेज पेश किए, जिनका विश्लेषण करने में उनकी टीम को छह महीने लगे। आरोप था कि इन फर्जी वोटरों के जरिए चुनाव को भाजपा के पक्ष में प्रभावित किया गया। इसके ठीक एक हफ्ते बाद भाजपा नेता अनुराग ठाकुर ने भी प्रेस कांफ्रेंस की और आरोप लगाया कि राहुल गांधी, अखिलेश यादव, डिंपल यादव, अभिषेक बनर्जी और एमके स्टालिन ने अपने-अपने क्षेत्रों में फर्जी वोटर शामिल कराए। लेकिन फर्क यह था कि अनुराग ठाकुर ने कोई दस्तावेजी सबूत नहीं दिया। महज 7 दिन में ही उन्होंने पांच लोकसभा और एक विधानसभा क्षेत्र में फर्जी वोटरों की संख्या गिना दी। यह स्थिति और भी संदिग्ध बन गई, क्योंकि इससे यह संदेश गया कि चुनाव आयोग और सत्ता पक्ष विपक्ष के आरोपों का जवाब आरोपों से ही देने की रणनीति अपना रहे हैं।
महादेवपुरा से लेकर बिहार तक विपक्षी समर्थक वोटरों को हटाने का एक सुनियोजित खेल
भारत के चुनावों में मतदाता सूची हमेशा विवादों में रही है। लेकिन हाल के वर्षों में इसका दुरुपयोग संगठित रूप से बढ़ा है। बेंगलूरु महादेवपुरा का मामला तो सुर्खियों में आया ही, बिहार में भी विधानसभा चुनाव से ठीक पहले विशेष गहन पुनरीक्षण शुरू किया गया। विपक्ष का आरोप है कि यह पुनरीक्षण केवल भाजपा समर्थक वोटरों को जोड़ने और विपक्षी समर्थक वोटरों को हटाने का एक सुनियोजित खेल है। लोकतंत्र का आधार है ‘एक व्यक्ति, एक वोट’ लेकिन अगर फर्जी मतदाताओं का खेल ही चुनाव तय करने लगे, तो लोकतंत्र का आधार ही ध्वस्त हो जाएगा।
मतदाता सूची संशोधन और एसआईआर की सच्चाई
बिहार में चुनाव से ठीक पहले चुनाव आयोग द्वारा कराया गया विशेष गहन पुनरीक्षण सवालों में है। विपक्ष का आरोप है कि सरकार के इशारे पर आयोग ने यह प्रक्रिया शुरू की, ताकि विपक्षी मतदाताओं के नाम काटे जा सकें। आयोग ने दलील दिया कि यह रूटीन प्रक्रिया है और पारदर्शिता बढ़ाने के लिए की जा रही है। लेकिन सवाल उठता है कि अगर यह रूटीन है तो चुनाव से ठीक पहले पारदर्शिता के नाम पर मतदाता सूची में बार-बार छेड़छाड़ क्यों? यही कारण है कि विपक्ष इसे ‘चुनावी धांधली की स्क्रिप्ट’ कह रहा है।
आयोग की चुप्पी से चुनाव आयोग स्वतंत्र संस्था नहीं, सरकार की संस्था
सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर चुनाव आयोग को सख्त निर्देश दिए हैं कि वह स्वतंत्रता और निष्पक्षता से काम करे। चुनावी बांड्स पर पारदर्शिता, उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड का खुलासा और चुनाव प्रचार में धर्म-जाति के इस्तेमाल पर रोक। लेकिन आयोग ने इन निर्देशों को लागू करने में गंभीरता नहीं दिखाई। कई मामलों में तो सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को नजर अंदाज किया गया। आयोग की चुप्पी और निष्क्रियता से यह धारणा मजबूत होती है कि वह अब स्वतंत्र संस्था नहीं, बल्कि सरकार की आंख-नाक-कान बन चुका है।
चुनाव मंत्रालय की छवि से नुकसान
जब जनता किसी संवैधानिक संस्था को ही सत्ता का सहयोगी मानने लगे, तो लोकतंत्र की बुनियाद हिल जाती है। विपक्ष चुनाव आयोग को ‘चुनाव मंत्रालय’ कहता है। सोशल मीडिया पर लोग उसे ‘केंचुआ’ कहते हैं। आम जनता में विश्वास का संकट गहराता जा रहा है। संवैधानिक संस्थाओं का आ धार केवल विश्वास और निष्पक्षता होती है। अगर यह खत्म हो जाए तो फिर लोकतंत्र महज़ औपचारिकता बनकर रह जाता है।
लोकतंत्र का भविष्य गहरे गर्त में
भारत में चुनाव आयोग की साख जिस तरह गिर चुकी है, वह आने वाले समय के लिए भयावह संकेत है। अगर मतदाता सूची से छेड़छाड़ होती रही, ईवीएम पर उठते सवालों को दबाया जाता रहा, आयोग पर सवाल उठाने वालों को ही कठघरे में खड़ा किया गया तो यह लोकतंत्र के लिए घातक साबित होगा। लोकतंत्र केवल चुनाव करवा देने का नाम नहीं है। यह उस विश्वास का नाम है कि चुनाव स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी होंगे। अगर यह विश्वास टूटेगा, तो लोकतंत्र की पूरी इमारत भरभराकर गिर जाएगी।
भारत का चुनाव आयोग आज एक चौराहे पर खड़ा है। या तो वह अपनी खोई हुई साख को बचाने के लिए स्वतंत्रता और पारदर्शिता का रास्ता अपनाए,
या फिर वह सत्ता का अंग बनकर लोकतंत्र को सर्वाधिक कमजोर करने वाली संस्था साबित हो। जरूरत है कि जनता, विपक्ष और न्यायपालिका मिलकर चुनाव आयोग को उसकी संवैधानिक मर्यादा याद दिलाएं। क्योंकि अगर चुनाव आयोग ही पक्षपाती हो गया, तो फिर लोकतंत्र को बचाने का कोई उपाय शेष नहीं रहेगा।