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पिंडदान या चुनावी दान: पिंडदान तो बहाना है  ,मोदी जी को तो  बिहार चुनाव में अपनी स्वर्गीय मां को भुनाना है ?

मां के नाम पर भी राजनीति, वोट का पिंडदान, चिता की राख ठंडी, मगर कैमरों की गर्मी बरकरार

  • श्राद्ध से ज्यादा श्राद्धांजलि की पीआर कवरेज
  • गया की गंगा से बहता है चुनावी संदेश
  • मोक्ष का नहीं, वोट का महामंत्र
  • पिंड की जगह पब्लिसिटी, तर्पण में टेलीविजन
  • धर्म की आड़ में चुनावी कर्मकांड
  • पुत्र धर्म से बड़ा है प्रधानमंत्री धर्म!

राजनीति के इस दौर में मां भी वोटों के लिए स्मृति-चिन्ह बन जाती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मां हीराबेन मोदी का निधन हुए तीन वर्ष हो चुके हैं। इन तीन वर्षों में न पुण्यतिथि, न पिंडदान, न श्रद्धांजलि कुछ भी नहीं। लेकिन जैसे ही बिहार का चुनाव आया, अचानक मां की याद उमड़ पड़ी और गया की धरती पर राजनीतिक पिंडदान की तैयारी होने लगी। सवाल यह है कि क्या पिंडदान आत्मा की शांति के लिए है या वोट की गिनती के लिए? और क्या प्रधानमंत्री का पुत्र धर्म, कैमरों और चुनावी मंचों के आगे हमेशा इतना छोटा हो जाएगा?

* हीराबेन की मृत्यु से लेकर मुखाग्नि तक की राजनीति

* धर्म और कर्मकांड की अनदेखी बनाम उद्घाटन और रोड शो

* पितृ पक्ष और चुनावी पक्ष मां को भूलने का कैलेंडर

* गया की धरती मोक्ष नहीं, राजनीति का मंच

* पिंडदान और पब्लिसिटी का गणित

* धर्म बनाम लोकतंत्र किसके लिए किया जा रहा श्राद्ध धन्य है ऐसा पुत्र!

* तीन साल तक मां की पुण्यतिथियों पर कोई स्मरण या धार्मिक अनुष्ठान नहीं।

* नॉन-बायलॉजिकल वाला बयान और बाद में मां की गाली पर अचानक भावुकता।

* ज्येष्ठ पुत्र के रहते हुए मुखाग्नि का अधिकार छीनना।

* शुद्धि और तर्पण की परंपराओं की अवहेलना।

* पंकज मोदी पहले ही वाराणसी में पिंडदान कर चुके।

* पिंडदान का धार्मिक महत्व एक बार का कर्म, बार-बार नहीं।

* गया की धरती को चुनावी मंच बनाना, पिंडदान का लाइव टेलीकास्ट चुनावी संदेश।

मां के नाम पर वोट बैंक की राजनीति

भारतीय संस्कृति में मां को देवत्व का दर्जा दिया गया है। वह जीवन की पहली गुरु होती है, जिसकी स्मृति व्यक्ति को जीवन भर मार्गदर्शन देती है। मृत्यु के बाद भी मां का स्मरण श्रद्धा, संस्कार और धार्मिक कर्मकांडों के ज़रिए किया जाता है। लेकिन जब मां की स्मृति भी राजनीति का औज़ार बन जाए, तो सवाल उठना स्वाभाविक है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मां हीराबेन मोदी का निधन 30 दिसंबर 2022 को हुआ था। तीन वर्ष तक किसी पुण्यतिथि या पितृपक्ष पर कोई स्मरण या धार्मिक अनुष्ठान नहीं, और अब अचानक बिहार चुनाव आते ही गया की धरती पर पिंडदान की तैयारी। क्या यह आत्मा की शांति का प्रयास है या वोट की गिनती का नया समीकरण?

 

हीराबेन की मृत्यु और मुखाग्नि की राजनीति

धार्मिक परंपरा कहती है कि ज्येष्ठ पुत्र मृतक को मुखाग्नि देता है। यही पुत्र धर्म है। हीराबेन के ज्येष्ठ पुत्र रामनिवास मोदी जीवित और सक्षम थे, मगर कैमरों की रोशनी में तीसरे पुत्र नरेंद्र मोदी ने यह अधिकार अपने हाथ में ले लिया। ‘धर्म ने कहा ज्येष्ठ पुत्र का कर्तव्य, राजनीति ने कहा प्रधानमंत्री का कवरेज’। मां की चिता पर आहुति दी गई, लेकिन आहुति से बड़ा था कैमरों का फुल कवरेज। मां की आत्मा शांति चाहती रही, पर राजनीति को चाहिए था हाई-डेफिनिशन प्रसारण।

 

शुद्धि की जगह उद्घाटन

हिंदू धर्म में मृत्यु के बाद 13 दिन की शुद्धि मान्य है। आर्य समाज की परंपरा तीन दिन की शुद्धि को भी स्वीकार करती है। लेकिन मोदी जी अगले ही दिन उद्घाटन और शिलान्यास में जुट गए। किसी ने कहा प्रधानमंत्री हैं, राष्ट्रधर्म बड़ा है। सवाल यह है क्या पुत्र धर्म इतना छोटा है कि मां के संस्कार भी उद्घाटन और रोड शो के नीचे दब जाएं। बाल-दाढ़ी मुंडाना तो दूर, मातृस्मरण तक नहीं हुआ। और हां, ट्विटर पर एक भावुक पोस्ट भी नहीं। मां की चिता की राख ठंडी हुई भी नहीं थी कि प्रधानमंत्री की प्रचार मशीनरी फिर से गर्म हो गया।

 

पितृपक्ष और चुनावी कैलेंडर

धर्म कहता है हर पितृपक्ष में अपने पूर्वजों का स्मरण करो। मोदी जी का कैलेंडर कहता है जब चुनाव न हो, तब मां को भूल जाओ। 2023 और 2024 के पितृपक्ष बिना किसी पिंडदान के गुजर गए। कर्नाटक चुनाव के समय मां को भूलकर रोड शो करना जरूरी था। मध्य प्रदेश चुनाव में मां की याद नहीं आई। छत्तीसगढ़ और राजस्थान में मां कहीं गुम थीं। लेकिन वर्ष 2025 का सितंबर आते ही, जब बिहार चुनाव की हवा बही, मां अचानक स्मरण में आ गई।

 

गया की धरती मोक्ष या राजनीति का मंच

गया हिन्दू धर्म का पावन स्थल है। यहां पिंडदान से आत्मा को मोक्ष मिलने का विश्वास है। लेकिन 17 सितंबर 2025 को गया में जो होगा, वह धर्म नहीं, राजनीति का महोत्सव होगा। तीन दिन का श्राद्धकर्म नहीं, तीन दिन का चुनावी रोड शो। पंडित मंत्रोच्चारण करेंगे, मगर कैमरे उसे चुनावी संदेश बना देंगे। गया की गंगा से बहने वाला पानी आत्मा को शांति देगा या चुनावी नौका को सहारा। मोक्ष की कथा धरी रह गई, असली कथा है 40 सीटों की।

पिंडदान और पब्लिसिटी का गणित

धर्म कहता है एक बार पिंडदान करने से मृत आत्मा को मोक्ष मिल जाता है। मोदी जी के छोटे भाई पंकज मोदी ने 7 मई 2023 को वाराणसी जाकर माता-पिता दोनों का पिंडदान कर दिया। धार्मिक दृष्टि से हीराबेन की आत्मा को शांति मिल चुकी। फिर नरेंद्र मोदी का पिंडदान किसके लिए? उत्तर साफ है मोक्ष के लिए नहीं, प्रचार के लिए। धर्म का गणित कहता है एक पिंडदान पर्याप्त। राजनीति का गणित कहता है हर चुनाव से पहले पिंडदान कराओ।

धर्म बनाम लोकतंत्र

धर्म पूछता है क्या पुत्र धर्म इतना कमजोर है कि प्रधानमंत्री धर्म के नीचे दब जाए। लोकतंत्र पूछता है क्या मां का पिंडदान भी वोटों के लिए होना चाहिए?

धर्म कहता है श्राद्ध में मौन और शांति होनी चाहिए। लोकतंत्र कहता है श्राद्ध का लाइव प्रसारण होना चाहिए। धर्म कहता है मां का स्मरण करो। राजनीति कहती है मां का उपयोग करो।

 

धन्य है ऐसा पुत्र

आखिरकार कहानी यही है कि नरेंद्र मोदी राजनीति का कोई मौका नहीं छोड़ते, चाहे वह अपनी मृत मां ही क्यों न हों। श्राद्ध को उन्होंने चुनावी मंच बना दिया, पिंडदान को पब्लिसिटी में बदल दिया, और मां की आत्मा को वोटों के गणित में बांध दिया। धन्य है ऐसा पुत्र, जिसके लिए मां भी चुनावी एजेंडा बन गईं। धन्य है ऐसा पुत्र, जिसने पितृपक्ष को प्रचार पक्ष में बदल दिया।

धन्य है ऐसा पुत्र, जिसने पिंडदान को वोट दान में बदल दिया।

 

* हीराबेन की मृत्यु के बाद पुत्र धर्म की अवहेलना।

* ज्येष्ठ पुत्र के होते हुए मुखाग्नि का अधिकार हड़पना।

* शुद्धि और तर्पण की परंपराओं का पालन न करना।

* दो पुण्यतिथियों और दो पितृ पक्षों पर मौन।

* गया में पुनः पिंडदान केवल चुनावी मंच।

* पिंडदान का लाइव टेलीकास्ट चुनावी प्रचार।

* धर्म और राजनीति का घालमेल।

* मां की आत्मा का स्मरण नहीं, उपयोग हुआ।

* पुत्र धर्म पर भारी प्रधानमंत्री धर्म।

 

क्या भारतीय लोकतंत्र में अब धार्मिक कर्मकांड भी चुनावी हथियार बन चुके हैं? मां की आत्मा की शांति से ज्यादा वोटों की शांति अहम हो गई है। धर्म पूछता है कि क्या पुत्र धर्म इतना छोटा हो गया कि प्रधानमंत्री धर्म के नीचे दब जाए। लोकतंत्र पूछता है क्या मां का पिंडदान भी अब वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा होना चाहिए।

गया की गंगा बहुत कुछ बहा ले जाएगी, पर इतिहास याद रखेगा कि यहां आत्मा का तर्पण कम और वोट का तर्पण ज्यादा हुआ।

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