भारत में कानून नहीं, बुलडोजर का ही राज है, मी लार्ड, योगी सरकार आप के आदेश को नही करती गार्ड
सुप्रीम कोर्ट के आदेश धरे के धरे, संविधान पर राजनीति का पहिया, न्याय अब बुलडोजर की धार पर!

कानून की किताबों में सन्नाटा, सड़कों पर बुलडोजर का हुंकार
देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बी.आर. गवई ने मॉरीशस में खड़े होकर गर्व से कहा कि भारत बुलडोजर के शासन से नहीं, कानून के शासन से चलता है। लेकिन जमीनी सच्चाई इससे एकदम उलट है। सुप्रीम कोर्ट की चेतावनियों, आदेशों और संविधान की आत्मा को कुचलते हुए उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और कई अन्य भाजपा-शासित राज्यों में बुलडोजर अब न्याय का नया प्रतीक बन गया है। वो प्रतीक, जो कानून की जगह राजनीति से संचालित है। कानून की किताबें धूल फांक रही हैं और संविधान की प्रस्तावना, न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व सबकुछ बुलडोजर के शोर में दब चुका है। भारत में अब कानून का राज बचेगा या फिर बुलडोजर संहिता ही संविधान की नई व्याख्या बन जाएगी। आमतौर पर मैं मूर्खताओं के बारे में टिप्पणी करने से बचता हूं। लेकिन जब मूर्खता किसी व्यक्ति तक सीमित न रहकर पूरे समाज का ‘लोक उत्सव’ बन जाए, जब धर्म का नाम लेकर राजनीति की भेड़ें नफरत का नाच करने लगें, और जब जनता अपने विवेक को गिरवी रखकर तालियां बजाने लगे तब चुप रहना भी एक अपराध लगता है। उत्तर प्रदेश के बिगड़े साम्प्रदायिक माहौल पर कुछ लिखूं। मैं क्या लिखूं? यही कि मुझे ‘आई लव मोहम्मद’ भी प्रिय है और ‘आई लव महादेव’ या ‘आई लव महाकाल’ भी। क्योंकि प्रेम का धर्म एक ही होता है। लेकिन अफसोस यह है कि आज मोहम्मद और महाकाल दोनों ही को ‘ब्रांड’ बना दिया गया है। वोट की दुकानें सजाने और सत्ता की नींव मजबूत करने के लिए।
देश में एक अजीब समय है। भक्त और मौलवी, दोनों अपने-अपने खेमे में बैठे हुए ‘अल्लाहू अकबर’ और ‘जय श्रीराम’ के नारे नहीं, बल्कि एक-दूसरे के खिलाफ गोले दाग रहे हैं। राजनीति इस नफरत की प्रयोगशाला में धर्म को बारूद की तरह इस्तेमाल कर रही है, और जनता उसे प्रसाद समझकर ग्रहण कर रही है। यह वही समाज है, जिसने एक समय में ‘राम’ को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा था, और ‘मोहम्मद’ को रहमतुल्लिल आलमीन यानी समूची मानवता के लिए दया स्वरूप। लेकिन आज दोनों के नाम पर सबसे ज्यादा अपमान, हिंसा और विभाजन हो रहा है। धर्म नहीं बदला, पर धर्म का व्यापार बहुत बड़ा हो गया है। राजनीति ने ईश्वर को अपना प्रचारक बना लिया है, और जनता ने विवेक को छुट्टी पर भेज दिया है। यही हमारे समय की सबसे बड़ी मूर्खता है और यही इस लेख का विषय भी।
बुलडोजर न्याय का झूठा नैरेटिव
देश के मुख्य न्यायाधीश की आवाज़ अदालतों की मर्यादा से गूंजकर मॉरीशस तक पहुंची, लेकिन भारत की धरती पर वही आवाज बुलडोजर के शोर में डूब गई।बरेली में जुम्मे की नमाज के बाद हुई झड़प के बहाने बीडीए फरहत खान के मकान पर बुलडोजर चलाने की तैयारी में है। कारण बताया गया आरोपी तौकीर को शरण दी थी। न्यायिक प्रक्रिया कहती है कि किसी पर अपराध का आरोप साबित होने से पहले उसकी संपत्ति नहीं गिराई जा सकती। लेकिन उत्तर प्रदेश की बुलडोजर नीति कहती है पहले गिराओ, बाद में देखो। यह त्वरित न्याय नहीं, बल्कि त्वरित अन्याय का प्रतीक है। जहां कानून का काम अदालतें करती हैं, वहां अब ‘राज्य की मशीनें’ जज बन बैठी हैं।
मॉरीशस का भाषण, भारत की विडंबना
जस्टिस गवई ने मॉरीशस में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत है, और यहां कानून का शासन (रूल ऑफ लॉ) इस सिद्धांत पर आधारित है कि सरकारी अधिकारियों सहित सभी व्यक्ति कानून के अधीन हैं और कानून की नजर में समान पर भाषण देते हुए कहा,
भारत में कानून सर्वोपरि है, और कार्यपालिका कानून के दायरे में बंधी है। कितनी सुंदर बात है।
लेकिन सवाल ये है क्या ये बात भारत की धरती पर भी उतनी ही सच्ची है। उसी वक्त भारत में यूपी, एमपी और दिल्ली की गलियों में कानून नहीं, बुलडोजर बोल रहा था। मॉरीशस में कानून का शासन सुनाई दे रहा था,
यहां मस्जिदों, घरों और दुकानों के मलबे में लोकतंत्र का शव दबा पड़ा था। सुप्रीम कोर्ट ने खुद 2023 के ‘प्रयागराज विध्वंस केस’ में कहा था बुलडोजर न्याय संविधान की आत्मा के खिलाफ है, पर क्या हुआ?
कानून की आत्मा सुप्त है, शासन की आत्मा सक्रिय।
उत्तर प्रदेश बुलडोजर गणराज्य
योगी आदित्यनाथ की सरकार ने कानून की नई परिभाषा लिख दी है। यहां अपराध सिद्ध होने से पहले सजा तय हो जाती है, और अदालत के आदेश से पहले जेसीबी का पहिया घूमने लगता है। सिर्फ पिछले 18 महीनों में 300 से अधिक बुलडोजर कार्रवाइयां, 70 प्रतिशत मामलों में कोई वैधानिक प्रक्रिया नहीं, 80 प्रतिशत निशाने पर एक ही समुदाय। सरकार का तर्क है कि अवैध निर्माण हटाया जा रहा है। लेकिन ये अवैधता कौन तय करेगा सरकार या अदालत, कानून या मुख्यमंत्री की इच्छा? यह राज्य नहीं राजनीतिक प्रदर्शनशाला है, जहां बुलडोजर अब कानून नहीं, चुनावी प्रचार का हथियार बन चुका है।
मध्य प्रदेश मगरमच्छों पर नहीं, मछलियों पर बुलडोजर
भोपाल में एक मुस्लिम युवक की संपत्ति तोड़ दी गई कारण बताया गया कि लव जिहाद का आरोपी है। कोई कोर्ट केस नहीं, कोई चार्जशीट नहीं, कोई जांच नहीं।
बस मीडिया ट्रायल और बुलडोजर सजा। विडंबना देखिए मध्य प्रदेश में जिन मगरमच्छों ने नदियों को लूटा, जंगलों को काटा, रेत माफिया उन पर सरकार का बुलडोजर नहीं, सरकार की मौन स्वीकृति चलती है। यानी न्याय नहीं, राजनीतिक निर्देश संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) की खुली अवहेलना। यह मछली पर न्याय नहीं, बल्कि मगरमच्छों की सुरक्षा नीति है।
सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी, राज्य की ठिठोली
सुप्रीम कोर्ट ने तीन बार स्पष्ट कहा किसी भी व्यक्ति की संपत्ति बिना वैधानिक प्रक्रिया के नहीं गिराई जा सकती। लेकिन राज्य सरकारें मानो यह कहना चाहती हैं कि सुप्रीम कोर्ट दिल्ली में है, हमारे राज्य में नहीं। प्रयागराज में अतिक्रमण की कार्रवाई को अदालत ने असंवैधानिक ठहराया प्रशासन ने अनसुना किया। जहांगीरपुरी में स्टे ऑर्डर के बाद भी बुलडोजर चला कोर्ट ने रोक लगाई, लेकिन नुकसान हो चुका था। संभल में मस्जिद तोड़ी गई राज्य ने कहा कि धार्मिक नहीं, अवैध निर्माण था। अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश सूचनात्मक हैं, पालन वैकल्पिक है।
बुलडोजर संहिता बनाम न्याय संहिता
वर्ष 2024 में सरकार ने जब नई भारतीय न्याय संहिता लागू की, तो दावा किया गया था कि अब न्याय तेज और पारदर्शी होगा। पर हकीकत में देश भर में एक नई बुलडोजर संहिता लागू हो चुकी है जो कहती है नोटिस वैकल्पिक है, न्याय समय-साध्य है, बुलडोजर अंतिम सत्य है। केशवानंद भारती केस (1973) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संविधान की मौलिक संरचना को कोई भी सरकार नहीं बदल सकती। लेकिन अब यही संरचना सड़कों पर टूट रही है। क्या विधि का शासन अब लोडर के सिद्धांत में बदल गया है।
जस्टिस गवई और सत्ता की बेचैनी
जस्टिस बी.आर. गवई की मां ने आरएसएस के शताब्दी समारोह में शामिल होने से इंकार किया, सत्ता की आंखों में यह निर्णय कांटा बन गया। उसी के बाद से जस्टिस गवई के बुलडोजर न्याय वाले बयान सत्ता के लिए असुविधाजनक साबित हुए। जस्टिस गवई ने अपने फैसलों में बुलडोजर कार्रवाई को कानूनी प्रक्रिया की हत्या कहा था। अब वही न्यायमूर्ति जब मॉरीशस में कानून के शासन की बात कर रहे हैं, तो सत्ता उनके शब्दों में व्यंग्य ढूंढ रही है। यह सिर्फ न्याय बनाम राजनीति नहीं, बल्कि न्यायपालिका की आत्मा बनाम सत्ता की अहंकार की लड़ाई है।
जस्टिस गवई के पास बस कुछ ही दिन…
मुख्य न्यायाधीश 23 नवंबर 2025 को सेवानिवृत्त हो रहे हैं। उनके पास अब चंद सप्ताह हैं या तो वे बुलडोजर संहिता के खिलाफ इतिहास रचे या फिर अपने पूर्ववर्तियों की तरह टिप्पणी और शांति में रिटायर हों। देश की नजर अब सिर्फ़ एक फैसले पर है कि क्या सुप्रीम कोर्ट खुद की ही अवमानना का संज्ञान लेगा,
क्या न्यायपालिका इस देश में फिर सर्वोच्च कहलाएगी या फिर बुलडोजर के नीचे संविधान का सम्मान भी दब जाएगा? जब शासन कानून से ऊपर उठने लगे,
और अदालतें केवल सलाह देने तक सीमित रह जाएं,
तो लोकतंत्र नहीं, ‘राज्य-प्रायोजित अराजकता’ चल रही होती है।
संविधान बनाम बुलडोजर कौन बचेगा भारत में!
आज भारत दो रास्तों के बीच खड़ा है। एक ओर संविधान की किताबें हैं, जो नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करती हैं। दूसरी ओर बुलडोजर की गूंज है, जो सरकार की शक्ति का प्रदर्शन करती है। संविधान कहता है हर नागरिक को जीवन, संपत्ति और समानता का अधिकार है। बुलडोजर कहता है कि अगर तुम विरोधी विचार रखते हो, तो तुम्हारा मकान अवैध है। यह लोकतंत्र की परीक्षा नहीं, लोकतंत्र की तिलांजलि है।
- सुप्रीम कोर्ट के आदेश अब राज्यों के लिए ‘सलाह’ बन चुके हैं।
- बुलडोजर कार्रवाई संविधान के अनुच्छेद 21 और 14 दोनों का खुला उल्लंघन है।
- एक समुदाय को निशाना बनाकर भाजपा सरकारें कानून की आड़ में कर रही राजनीति।
- कानून का राज अब मुख्यमंत्री की इच्छा से संचालित
- जस्टिस गवई के पास आखिरी अवसर है कि वे इतिहास में न्याय के रक्षक कहलाएं, संविधान के दर्शक नहीं।
- मी लार्ड, भारत में अब कानून नहीं, बुलडोजर का ही राज है
- मुख्य न्यायाधीश की आवाज अभी गूंज रही है भारत बुलडोजर के शासन से नहीं, कानून के शासन से चलता है।
- हकीकत ये है कानून की आवाज फाइलों में बंद है, बुलडोजर की गर्जना हर सड़क पर खुली है।
- इतिहास यही लिखेगा जब न्याय मौन था और सत्ता गरज रही थी, तब भारत में कानून नहीं, बुलडोजर का ही राज था, मी लार्ड!




