देश विदेश

मोदी जी जियें सालों साल, भारत को करते रहिए तबाह व कंगाल

बीते 17 सिंतम्बर मोदी जी का जन्मदिवस विशेष 

~ मोदी का रिटायरमेंट महज कल्पना भी देश की सत्ता के सिस्टम और भक्तमंडली में भूचाल ला सकता

~ मोदी का ‘रिटायरमेंट’ सूनामी अगर कभी उन्होंने संन्यास की घोषणा की तो पूरा सिस्टम हिल जाएगा

~ जनता के नशे में मोदी इवेंट मैनेजमेंट ने उन्हें आदत, बहस और लत में बदल डाला

~ सर्वे का झटका अगर अफवाह फैलाई जाए तो पहला रिएक्शन ‘फेक न्यूज़’, दूसरा ‘कैसे संभव’?

~ अमित शाह नाम सुनते ही भक्तों की नींद उड़ जाएगी

~ इंदिरा द्वारा आपातकाल हटाने जैसे साहसिक फैसले की क्षमता मोदी में नहीं

~ सबसे बड़ा योगदान बिना फौज के ही मोदी को जनता ने गुटखे की तरह जरूरत मान लिया

~ दुनिया की उलझन मोदी भारत के नेता हैं या हिंदू भारत के?

~ शतायु की दुआ, शाश्वत सवाल जनता कभी मोदी को पूर्व प्रधानमंत्री के रूप में देख पाएगी

शुभम श्रीवास्तव

17 सितम्बर, 2025 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपना 75 वां जन्मदिन, जिसे इवेंट मैनेजरों ने ‘हीरक जयंती’ का तमगा दे दिया। यह अवसर उनके समर्थकों के लिए भक्ति और उत्सव का दिन था, तो आलोचकों के लिए आत्ममंथन और सवालों का। इस मौके पर अचानक अगर मोदी स्वयं यह घोषणा कर देते कि वे राजनीति से ‘रिटायर’ हो रहे हैं, तो क्या होता? क्या देश संभल पाता? क्या उनकी बनाई हुई सत्ता-संरचना टिक पाती? कल्पना कीजिए मोदी मंच पर आते हैं और कहते हैं मैं अब विश्राम चाहता हूं, देश की सेवा करने के लिए मेरे सहयोगी आगे आएं। इतना कहना भर होगा कि पूरा सिस्टम जैसे सुनामी से हिल जाएगा।

  • स्टॉक मार्केट में भारी गिरावट दर्ज होगी।
  • नौकरशाही दिशाहीन हो जाएगी।
  • भाजपा के मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री बौखला जाएंगे।
  • संघ का नेतृत्व अचानक ‘उत्तराधिकारी’ खोजने में लग जाएगा। भक्तमंडली आत्मदाह की धमकियां देने लगेगी।
  • मोदी का यह ‘इमेज ब्रांड’ इतना गाढ़ा हो चुका है कि लोगों को उनके बिना राजनीति का अस्तित्व ही अधूरा लगेगा। सवाल उठेगा मोदी गए तो देश कौन चलाएगा?दरअसल, मोदी ने अपने 11 साल के कार्यकाल में खुद को सत्ता का चेहरा ही नहीं, बल्कि एक आदत बना दिया है। जैसे लोग सुबह उठकर चाय पीते हैं, वैसे ही राजनीति की हर बहस का ज़िक्र मोदी से शुरू होकर उन्हीं पर खत्म होता है। यही कारण है कि अगर उनके रिटायरमेंट की कोई अफवाह भी फैल जाए, तो देश की हवा बदल जाएगी।

मोदी और इवेंट मैनेजमेंट आदत, बहस और नशे का खेल

नरेंद्र मोदी का सबसे बड़ा राजनीतिक आविष्कार यह नहीं है कि उन्होंने चुनाव जीते या विपक्ष को कमजोर किया। असली ‘कमाल’ यह है कि उन्होंने खुद को जनता की आदत बना दिया। सुबह की चाय की तरह, शाम के पान की तरह और रात के मोबाइल की तरह मोदी रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा हो गए हैं। मोदी के राजनीतिक करियर को अगर ध्यान से देखें तो पाएंगे कि उनकी सफलता का आधा हिस्सा केवल इवेंट मैनेजमेंट से आया है। जन्मदिन पर ‘सेवा सप्ताह’, चुनाव से पहले ‘मन की बात’। विदेश यात्राओं को ‘महारथी कूटनीति’ मंदिरों में पूजा को ‘राष्ट्रीय गर्व’, योग दिवस को ‘वैश्विक भारतीय पहचान’। हर अवसर को इवेंट में बदल देना और इवेंट को ‘राष्ट्रीय चर्चा’ बना देना मोदी की विशेष कला है। मोदी ने भारतीय समाज की मनोवृत्ति को गहराई से समझा। उन्हें पता है कि लोग हीरो-पूजा में यकीन रखते हैं। आलोचना के बीच भी लोग मजबूत नेता की छवि चाहते हैं। इसलिए मोदी ने अपनी छवि को नेता से आगे बढ़ाकर नायक बना दिया। यहां तक कि उनके आलोचक भी दिन-रात उन्हीं पर चर्चा करते हैं। शुरुआत में लोग मोदी को एक ‘मजबूत प्रधानमंत्री’ की तरह देखते थे। लेकिन धीरे-धीरे यह एक आदत बन गई। अब हालत यह है कि मोदी की चर्चा नशे जैसी हो चुकी है। टीवी चैनल बिना मोदी के नाम के प्रोग्राम नहीं चला पाते। अखबारों के पहले पन्ने पर मोदी की तस्वीर न हो तो वह ‘अधूरा’ लगता है। सोशल मीडिया पर ट्रोल आर्मी हर पोस्ट को मोदी के नाम से जोड़ देती है। यह वही मनोविज्ञान है जिसे गुटखा, सिगरेट या शराब बेचने वाली कंपनियां इस्तेमाल करती हैं, पहले आदत डालो फिर उसे नशा बना दो। इस रणनीति का सबसे बड़ा परिणाम यह हुआ कि आज अगर मोदी के रिटायरमेंट की कल्पना भी की जाए, तो जनता को ऐसा लगेगा जैसे किसी ने उनकी चाय छीन ली, उनका मोबाइल तोड़ दिया या उनकी सांस रोक दी। यानी मोदी व्यक्ति नहीं, मानसिक ढांचा बन चुके हैं।

अगर फैल जाए रिटायरमेंट की अफवाह जनता और भक्तों की संभावित प्रतिक्रिया

सोचिए अगर किसी दिन अचानक यह खबर फैले कि नरेंद्र मोदी राजनीति से रिटायर हो रहे हैं, तो देश का माहौल कैसा होगा? क्या लोग इसे सहज स्वीकार कर लेंगे? या फिर यह अफवाह पूरे समाज में भूकंप ला देगी?

पहला रिएक्शन- फेक न्यूज भारतीय जनता की पहली प्रवृत्ति होगी। ये तो फर्जी खबर है। मोदी की छवि ही ऐसी बना दी गई है कि उन्हें राजनीति से अलग करने का ख्याल ही ‘असंभव’ लगे। भक्तों के लिए तो यह खबर सुनना ऐसा होगा जैसे कोई कह दे कि सूरज कल से उगेगा ही नहीं।

दूसरा रिएक्शन- मोदी ऐसा कर ही कैसे सकते हैं? अगर यह अफ़वाह थोड़ी देर तक भी जीवित रह गई तो लोग पूछेंगे मोदी क्यों छोड़ेंगे। कौन उन्हें मजबूर कर सकता है?

तीसरा रिएक्शन- षड्यंत्र का सिद्धांत भारत की राजनीति में षड्यंत्र हमेशा से ‘सबसे आसान दवा’ रहा है। इसलिए लोग मानने लगेंगे कि मोदी को हटाने की कोई गहरी साजिश चल रही है। कोई कहेगा कि विदेशी ताकतें इसमें शामिल हैं। कोई बोलेगा कि विपक्षी दल और वामपंथी गैंग इसका कारण हैं। कुछ यह भी मान लेंगे कि आरएसएस ही मोदी को जबरन किनारे कर रहा है।

चौथा रिएक्शन- उत्तराधिकारी कौन यह सबसे बड़ा संकट होगा। लोग पूछेंगे अब देश चलाएगा कौन? क्या अमित शाह मोदी की जगह ले सकते हैं या योगी आदित्यनाथ का नाम आगे आएगा। संघ राजनाथ सिंह या नितिन गडकरी पर दांव लगाएगा। लेकिन भक्तों के लिए सच्चाई यह है कि कोई भी मोदी जैसा नहीं हो सकता। और यह विश्वास ही उन्हें बेचैन करेगा।

पांचवां रिएक्शन- आत्मदाह की धमकियां इतिहास गवाह है कि भारत में नेता और देवता में फर्क मिटा दिया जाता है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जैसी हिंसा भड़की थी, वैसे ही मोदी के रिटायरमेंट की कल्पना पर भी भक्त वर्ग कुछ भी कर गुजर सकता है। आत्मदाह की धमकियां, प्रदर्शन और सोशल मीडिया पर उबाल सबकुछ संभव है।

उत्तराधिकार का संकट शाह, योगी, राजनाथ या कोई और?

मोदी का रिटायरमेंट केवल व्यक्तिगत निर्णय नहीं होगा, बल्कि यह पूरे भारतीय राजनीति का उत्तराधिकार संकट खड़ा कर देगा। क्योंकि मोदी ने भाजपा और सत्ता की संरचना इस तरह गढ़ी है कि हर निर्णय, हर रणनीति और हर जीत सीधे उन्हीं से जुड़ जाती है। अमित शाह प्रधानमंत्री के लिए स्वाभाविक दावेदार हैं। पार्टी और संघ के भीतर अमित शाह का नाम सबसे पहले लिया जाएगा। शाह को मोदी का रणनीतिक उत्तराधिकारी माना जाता है। संगठन पर उनकी पकड़ मजबूत है। चुनावी मशीनरी को संभालने का हुनर किसी से छिपा नहीं। लेकिन समस्या यह है कि भक्तों के दिल में शाह कभी मोदी जैसी भावनात्मक जगह नहीं बना पाए। शाह को लोग राजनीतिक मैनेजर मानते हैं, राष्ट्रीय नायक नहीं। दूसरा बड़ा नाम होगा योगी आदित्यनाथ का है। योगी का हिंदुत्व एजेंडा खुला और उग्र है। उनकी लोकप्रियता उत्तर भारत, विशेषकर यूपी-बिहार में बहुत है। युवा समर्थकों में योगी को हिंदू हृदय सम्राट की तरह देखा जाता है। लेकिन संघ और भाजपा नेतृत्व योगी को लेकर हमेशा असहज रहा है। योगी का सत्ता चलाने का तरीका मोदी से कहीं ज़्यादा सीधा और कठोर है। संघ को डर है कि योगी के हाथ में पार्टी ‘नरेंद्र मोदी लिमिटेड’ से ‘योगी प्राइवेट लिमिटेड’ बन सकती है। राजनाथ सिंह  संघ की सुरक्षित च्वाइस हैं। राजनाथ सिंह का नाम अक्सर समझौतावादी विकल्प के रूप में सामने आता है। वे संघ के भरोसेमंद चेहरे के साथ मोदी और शाह के दौर में भी उनकी साफ-सुथरी छवि बनाए रखने में कामयाब रहे हैं। विपक्ष के लिए भी वे स्वीकार्य नेता हो सकते हैं। लेकिन जनता उन्हें मोदी की तरह लीडर मानने को तैयार नहीं। नितिन गडकरी विकास पुरुष का दावा?

गडकरी संघ के प्रिय माने जाते हैं। उनकी काम करने वाले नेता की छवि भी है। सड़क और परिवहन मंत्रालय में उनका प्रदर्शन उल्लेखनीय रहा। कॉर्पोरेट जगत और उद्योगपति उनके साथ सहज महसूस करते हैं। मगर गडकरी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है भाजपा की मोदी-भक्ति। जब जनता मोदी की आदी हो चुकी है, तब गडकरी का व्यावहारिक चेहरा फीका पड़ सकता है। इन सभी नामों पर चर्चा हो सकती है, लेकिन एक सच्चाई साफ है। मोदी ने जानबूझकर किसी को भी अपना असली उत्तराधिकारी बनने ही नहीं दिया। उन्होंने पार्टी और सरकार को इस तरह से केंद्रीकृत किया कि हर फैसला उन्हीं पर टिक जाए। मंत्रियों को कभी फ्री हैंड नहीं दिया गया। भाजपा का पूरा चुनावी चेहरा मोदी के इर्द-गिर्द ही रचा गया। यानी मोदी का रिटायरमेंट सिर्फ नेतृत्व परिवर्तन नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम का धराशाई होना होगा।

इंदिरा गांधी बनाम मोदी

भारतीय राजनीति में इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी दो ऐसे नाम हैं, जिन्होंने अपने-अपने समय में सत्ता को एक व्यक्ति की ताक़त और करिश्में पर केंद्रित कर दिया। दोनों की तुलना अक्सर की जाती है, लेकिन उनकी राजनीतिक शैली और फैसलों के पीछे की मानसिकता में गहरे फर्क हैं। 1975 में इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोपा। यह कदम लोकतंत्र की रीढ़ पर सीधा प्रहार था। विरोधियों की गिरफ्तारी, मीडिया की सेंसरशिप और लोकतांत्रिक संस्थाओं का गला घोंटकर उन्होंने अपनी सत्ता बचाने की कोशिश की। लेकिन 1977 में अचानक उन्होंने आपातकाल हटाने और चुनाव कराने की घोषणा कर दी। यह फैसला उनके आत्मविश्वास और राजनीतिक साहस को दिखाता है। इंदिरा जानती थीं कि माहौल उनके खिलाफ है, फिर भी उन्होंने लोकतंत्र के रास्ते पर लौटने का जोखिम उठाया। भले ही चुनाव में हार मिली, पर उन्होंने सत्ता वापसी के लिए लोकतांत्रिक लड़ाई लड़ी। नरेंद्र मोदी को भी अप्रत्याशित फैसले लेने के लिए जाना जाता है। नोट बंदी इसका बड़ा उदाहरण है। अचानक एक रात उन्होंने 500 और 1000 रुपए के नोट चलन से बाहर कर दिए। यह फैसला इंदिरा गांधी की तरह चौंकाने वाला तो था, लेकिन फर्क यह है कि नोट बंदी ने जनता को झकझोर तो दिया, पर इसका राजनीतिक जोखिम मोदी पर नहीं पड़ा। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले और बाद में नोट बंदी, जीएसटी, अनुच्छेद 370, तीन तलाक और नागरिकता कानून जैसे कदमों ने उनकी छवि निर्णायक नेता की बनाई। लेकिन इन फैसलों को इस तरह से पैकेज किया गया कि जनता इन्हें राष्ट्रहित मानकर स्वीकार कर ले। इंदिरा गांधी का साहस लोकतंत्र को पुनः बहाल करने का था। हार का सामना करने का जोखिम उठाने का था। नरेंद्र मोदी का साहस कंट्रोल्ड सर प्राइज देने तक सीमित है। वे ऐसे फैसले करते हैं जिनका राजनीतिक फायदा उन्हें मिल सके, लेकिन चुनावी हार का जोखिम कम से कम हो। इंदिरा का साहस लोकतंत्र की कसौटी पर था, जबकि मोदी का साहस चुनावी राजनीति और छवि प्रबंधन तक सीमित।
इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को अपने व्यक्तित्व पर केंद्रित कर दिया था। इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा का नारा उनके समय में चरम पर था। कांग्रेस की वैचारिक धारा पीछे छूट गई और इंदिरा गांधी ही पार्टी की धुरी बन गईं।
मोदी ने भी भाजपा को संघ और सामूहिक नेतृत्व से हटाकर मोदी ब्रांड बना दिया है। मोदी है तो मुमकिन है इसी ट्रेंड का विस्तार है। आज भाजपा वोट मांगती नहीं, मोदी वोट खींचते हैं।

सत्ता की सुरक्षा बनाम सत्ता का जोखिम

इंदिरा गांधी ने सत्ता गंवाने का जोखिम लिया और जनता से दुबारा भरोसा मांगा। मोदी अब तक सत्ता को जोखिम में डालने वाले किसी भी कदम से बचते रहे हैं। उनकी रणनीति है सत्ता पर पकड़ बनाए रखना, विपक्ष को कमजोर करना और जनता के बीच लगातार खुद को अनिवार्य बनाए रखना। इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी दोनों ने भारतीय राजनीति में करिश्माई नेतृत्व की मिसाल कायम की। इंदिरा का साहस लोकतांत्रिक जोखिम उठाने में दिखा। मोदी का साहस सत्ता को चौंकाने वाले निर्णयों से मजबूत करने में दिखता है। यह फर्क ही बताता है कि इंदिरा गांधी को भले ही लोकतंत्र के लिए दोषी ठहराया गया हो, लेकिन उन्होंने लोकतंत्र में अपनी वापसी की संभावना खुली छोड़ी। मोदी की राजनीति लोकतंत्र को अधिक नियंत्रित और सत्ता-केंद्रित बनाने की ओर अग्रसर दिखाई देती है।

  • मोदी का 75 वां जन्मदिन केवल उत्सव नहीं, सत्ता की मनोवैज्ञानिक रणनीति का हिस्सा भी है।
  • अगर मोदी अचानक रिटायरमेंट की घोषणा करें तो अर्थव्यवस्था, स्टॉक मार्केट और सत्ता-तंत्र में भूचाल तय।
  • भक्तों के बीच अफवाह फैलने पर पहला रिएक्शन फेक न्यूज, फिर षड्यंत्र सिद्धांत, फिर उत्तराधिकारी की खोज।
  • अमित शाह को उत्तराधिकारी मानने पर ही पार्टी और जनता में विभाजन

 

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E-Paper: अचूक संघर्ष 26 सिंतबर-2 अक्टूबर 2025

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