सबसे बड़ा गुंडों का सरदार, ट्रम्प का जलवा बरकरार
ट्रंप की लाठी, कूटनीति की नकल शमर अल-शेख का पावर प्ले

● बंधकों की रिहाई उत्सव या सियासी तमाशा?
● 67 हजार मौतों के बीच ‘इन्सानियत’ का पोस्टर आपातकाल में गायब
● अरब दुनिया की दहलीज पर, ‘मुस्लिम एकता’ का नाटक
● संयुक्त राष्ट्र और पश्चिमी लोकतंत्र आईने में तस्वीर टूटी हुई
● गाजा का पुनर्निर्माण ट्रंप की शह पर या असली राहत
● इंडिया की मौन स्वीकृति और वैश्विक नैतिकता का पतन
● स्थाई शांति की बात नहीं, तख्ती पर सियासी लाल निशान
◆ नैमिष प्रताप सिंह
13 अक्टूबर 2025 का दिन गाजा का इतिहास के कड़वे पन्नों में दर्ज होगा। दो साल और एक हफ्ते की उपेक्षा और मौतों के बाद, आखिरी जीवित इजरायली बंधक गाजा से रिहा किए गए। बदले में इजराइल ने सैकड़ों के आस-पास फिलिस्तीनी कैदियों को रिहा करने का फैसला किया। इस पल की राजनीति और प्रतीकात्मकता इतनी घनी है कि जितना कटु सच था, उतना ही दिखावटी तमाशा भी। और इस तमाशे के केंद्र में खड़ा एक नाम डोनाल्ड ट्रंप जिसने न केवल विमान उतारकर दृश्य-दृष्टि का राजनीति-शो पेश किया, बल्कि वैश्विक व्यवस्था के सामने एक साफ-साफ बयान दे दिया कि अब जिसका दांव चलेगा, वही नियम बनायेगा। ट्रंप ने जिस अंदाज में इस समझौते को सार्वजनिक किया मध्य-पूर्व की परतों को हल्का करते हुए वह केवल कूटनीति नहीं, शक्ति-प्रदर्शन था। दो साल में गाजा में दर्ज हजारों मौतें, शहरों का मलबा, और लाखों बेघर लोगों की भूख और बीमारी की तस्वीरें रही और आज वही दुनिया उस ‘समझौते’ को शांति की हवा बता रही है जो दरअसल क्षणिक रुकावट है स्थाई न्याय नहीं।
ट्रंप की लाठी, कूटनीति की नकल समर अल-शेख का पावर प्ले
डोनाल्ड ट्रंप का अचानक समर अल-शेख-आगमन सिर्फ विमान-लैंडिंग नहीं था। यह शक्ति की मंचन कारी घोषणा थी कि अब मध्य-पूर्व की बड़ी पगडंडी पर किसका नाम रहेगा। ट्रंप ने अपने चेहरे पर राष्ट्रवादी निर्वचन की एक ऐसी छवि रखी जो दुनिया के लिए पुरानी संस्थाओं और परंपरागत मध्यस्थों से ज्यादा कारगर दिखती है। शम-अल-शेख सम्मेलन में ट्रंप ने बंधकों की रिहाई और बड़ी संख्या में फिलिस्तीनी कैदियों की मुक्त की जाने वाली सूची का ऐलान करवा कर खुद को शांति का निर्माता साबित करने का दावा किया। यह दावे की राजनीति थी और सियासत की भाषा में बखूबी चलने वाला दांव चला।
बंधकों की रिहाई उत्सव या सियासी तमाशा
मनोरम दृश्य रहे बंधकों का घर वापसी पर परिवारों की आर्मियों जैसी उत्सवात्मक तस्वीरें। लेकिन जरा रुक कर सोचिये दो साल और कुछ दिनों में जिन 20 जीवित बंधकों की आज रिहाई हुई, उनके साथ लाखों गाजा के लोगों का जीवन छीना जा चुका है। जो लोग मरणासन्न रहे, जिन बच्चों और महिलाओं की यात्राएं खत्म हो गई उनके लिए कोई रिहाई नहीं मिली। उत्सव की तस्वीरें भावनात्मक हैं, पर निहितार्थ है हिंसक असंतुलन एक राष्ट्र के नागरिकों को लौटाया गया, पर एक भूखा, विनष्ट हुआ क्षेत्र अभी भी अपूर्ण और निर्जीव पड़ा है। मीडिया की वह गूंज जो परिवारों की खुशी दिखाती है, मलबे में दब गई।
67 हजार मौतों के बीच ‘इन्सानियत’ का पोस्टर आपातकाल में गायब
गाजा में दर्ज आधिकारिक और संयुक्त राष्ट्र-सम्बद्ध आंकड़ा यह बताता है कि करीब 67,000 या इससे ज्यादा फिलिस्तीनी मारे गए। जिनमें बड़ी संख्या बच्चे व महिलाएं हैं। परन्तु एक देश की राजनीतिक और वैश्विक स्थापना ने इन आंकड़ों पर शायद ही कभी बराबर की संवेदना दिखाई। वहीं अब उसी वैश्विक व्यवस्था के कुछ हिस्से ट्रंप के मंच-दिए समझौते को शांति बता रहे हैं। यह त्रासदी की विडंबना है। जिन संस्थाओं से इंसानियत की उम्मीद थी, वही संस्थाएं या तो मौन रहीं या सजग नीतिगत हार में घिरी रहीं।
अरब दुनिया की दहलीज पर ‘मुस्लिम एकता’ का नाटक
कई अरब देशों ने इस समझौते पर ‘समर्थन’ या ‘स्वीकार’ की भूमिका निभाई। कतर, मिस्र और तुर्की जैसे मध्यस्थों का नाम भी लिया गया। पर यह समर्थन क्या सच्चे भाईचारे या केवल क्षेत्रीय राजनैतिक दांव-पेंच का हिस्सा है, कहना कठिन नहीं कि बहुसंख्यक मुस्लिम-राष्ट्रों की चुप्पी और सहयोग ने फिलिस्तीन के प्रति वास्तविक व्यक्ति-स्तर की मदद करने की प्रवृत्ति को कमजोर कर दिया। वक्त पर मदद की बजाय, आज इन्हीं देशों ने ट्रंप के नेतृत्व में बन रहे ढांचे में अपना स्थान चुना। इसका परिणाम फिलिस्तीन के लिए दीर्घकालिक सुरक्षा नहीं, बल्कि तात्कालिक राहत का पैकेट आया है।
संयुक्त राष्ट्र और पश्चिमी लोकतंत्र आईने में तस्वीर टूटी हुई
संयुक्त राष्ट्र, जिनसे उम्मीद थी कि वह मानवाधिकारों का रक्षक बनेगा, बार-बार असहायता की मुद्रा में दिखा निर्णय-क्षमता प्रभावित, सुरक्षा परिषद् में वेटो राजनीति और बड़े-बड़े प्रेरक निर्णयों की कमी के कारण। पश्चिमी लोकतंत्र, जिन पर ‘मानवाधिकार’ के ठप्पे लगे रहते हैं, कई ऐसे हथियार उन देशों को सप्लाई करते रहे जिन्होंने गाज़ा पर बर्बर हवाई और जमीनी हमले किए। आज जब ट्रंप ने एक समझौते को दुनिया के सामने रखा, तो पश्चिम के कई हिस्सों ने उसे ‘मील का पत्थर’ कहा। यह दिखाता है कि अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं शक्तियों के सामने कितनी लाचार हैं।
गाजा का पुनर्निर्माण ट्रम्प की शह पर या असली राहत पर सवाल
समझौते में गाजा के पुनर्निर्माण की बात की गई है, पर पुनर्निर्माण किसके शर्तों पर होगा, किस प्रकार की संस्थाएं नियंत्रित होंगी और स्थानीय आबादी का दखल कितना होगा। इतिहास बताता है कि युद्ध के बाद का ‘पुनर्निर्माण’ अक्सर राजनैतिक और आर्थिक शर्तों के साथ जुड़ा होता है। इससे स्थानीय जनता की वास्तविक बुनियादी जरूरतें अनदेखी रह सकती हैं। ट्रंप-काउंसिल्ड योजना का मॉड्यूल अगर विश्व-बैंकिंग, अंतरराष्ट्रीय ठेकेदारों और राजनैतिक अलायंस के हित के अनुरूप चला, तो गाजा के लोगों तक उतना साधन नहीं पहुंच पाएगा जितना दिखावा किया जा रहा है।
इंडिया का मौन-स्वीकृति और वैश्विक नैतिकता का पतन
भारत ने इस समझौते की तारीफ की पर यह तारीफ किस आधार पर है। वास्तविक मानवीय-दृष्टि से देखने पर, भारत जैसे देशों की यह मौन-स्वीकृति वैश्विक नैतिकता के पतन का संकेत है। यदि वैश्विक कूटनीति केवल गणनाओं और शक्ति-दर्शनों पर टिकी है, तो छोटे देशों के हित और पीड़ितों की जिंदगी कहां जाती है। भारत का रुख यह दर्शाता है कि बड़े-छोटे, सभी देश सत्ता के नए संतुलन को मानने लगे हैं, भले ही वह संतुलन न्याय की अपेक्षाओं पर खरा न उतरे।
स्थाई शांति की बात नहीं, तख्ती पर सियासी लाल निशान
यह समझौता संक्रमणकालीन है जो प्रतीकात्मक और तात्कालिक राहत देता है, पर दीर्घकालिक संरचनात्मक परिवर्तन की गारंटी नहीं। हुकूमतों, सशस्त्र गुटों और क्षेत्रीय शक्तियों के बीच जो असमान सन्तुलन बना है, वह बना ही रहेगा। अगर गाजा में न्याय और मानवीय सुरक्षा का पक्का ढांचा नहीं बनाया गया, तो दर्दनाक चक्र फिर शुरू हो सकता है। ट्रंप का यह ‘बड़ा संकेत’ अस्थाई शांति दे सकता है, पर स्थाई न्याय की जमीन अकेले इस तरह के मंच-समझौतों से नहीं बनती। ट्रंप ने एक बड़ा दांव खेला और दुनिया ने उसे रसायन की तरह स्वीकार कर लिया उत्सव हुआ, तस्वीरों के साथ कैमरे जल उठे। पर जो सच है, वह यह है कि इस समझौते से गाजा के मलबे, खाली भंडारों, भूख और बीमारियों पर स्थाई मरहम नहीं लगा। न्याय के लिए आवाजें चुप हो गई, संस्थाएं पंगु पड़ी दिखीं, और भूख दूर नहीं गई। इसलिए 13 अक्टूबर 2025 का दिन ऐतिहासिक है पर इसके साथ ही यह याद रखने की जरूरत है कि ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ जैसी दुनिया में कर्म और न्याय दो अलग बातें हैं। अगर ट्रंप ने किसी तरह से लोगों के पेट में राशन पहुंचाया और कुछ जख्मों पर मरहम लगाया, तो उसे गैर-आखिरी माना जाना चाहिए। क्योंकि असली विजय वही होगी जब गाजा के बच्चों की जिंदगी सामान्य, सुरक्षित और सम्मानजनक बनेगी और यह केवल बंधकों की रिहाई और बड़े नेताओं की तस्वीरों से नहीं होगी।
● ट्रंप का दौरा और समर अल-शेख शिखर सम्मेलन के मध्य-पूर्व समझौते का मुख्य सार्वजनिक संकेतक रहा। इस समझौते में बंधकों की रिहाई और पैमाने पर फिलिस्तीनी कैदियों की रिहाई शामिल है।
● गाजा में आधिकारिक स्वास्थ्य स्रोतों और संयुक्त राष्ट्र से जुड़े आंकड़ों के अनुसार युद्ध में मारे गए फिलिस्तीनियों की संख्या 67,000 के आसपास आंकी गई है जो मानव-संहार के पैमाने का बड़ा संकेत देता है।
● रिहाई के बदले में इजराइल द्वारा रिहा किए जाने वाले कैदियों की संख्या लगभग 1,700 से 2,000 के बीच बताई जा रही है।
● पश्चिमी देशों, कई अरब देशों और भारत ने इस समझौते का स्वागत या न्यूनतम टिप्पणी की बहुसंख्यक वैश्विक संस्थाएं लंबे समय से प्रभावहीन दिखी हैं।
* गाजा के पुनर्निर्माण का वादा दिया गया है सवाल यह है कि पुनर्निर्माण को किसके शर्तों और किस नियंत्रण में पूरा किया जाएगा।




