अंतरराष्ट्रीय

2 अक्टूबर महात्मा गांधी जन्मदिवस: सत्य और अहिंसा की गोली खा चुका भारत, अब हत्यारों की मूर्तियां गढ़ रहा!

संजय पटेल

 

• गांधी का सत्य भगवान से भी बड़ा ईश्वर सत्य नहीं, सत्य ही ईश्वर

• अहिंसा कायरता नहीं, साहस की पराकाष्ठा हिंसा से भी श्रेयस्कर, पर कायरता से कहीं श्रेष्ठ

• कांग्रेस के साथी भी अधूरे गांधी जानते थे, अधिकांश नेता अहिंसा के सच्चे अनुयाई नहीं

• जनता की कृतघ्नता आजादी दिलाने वाले गांधी को भूल, हत्यारे का मंदिर गढ़ रही

• गोड़से की विचारधारा का पलटवार दिल्ली की सत्ता पर बैठे लोग गांधी संस्थानों को मिटा रहे

• दुनिया गांधी की, भारत गोड़से का विदेशों में नेता गांधी के पैरों पर झुकते हैं, घर में हत्यारे का महिमामंडन

• गांधी का सार्वभौमिक मूल्य सत्य-अहिंसा सिर्फ भारत नहीं, पूरी दुनिया की धरोहर

• परमाणु हथियारों की दौड़ में फंसी दुनिया को गांधी की अहिंसा की सबसे ज्यादा जरूरत

 

भारत की विडंबना देखिए जिस गांधी ने हमें सत्य और अहिंसा का हथियार थमाकर साम्राज्यवादी ताकत को घुटनों पर ला दिया, उसी गांधी को इस देश ने न केवल भुला दिया बल्कि उनके हत्यारे के वैचारिक उत्तराधिकारियों को सत्ता की कुर्सी सौंप दी। दुनिया गांधी को उनके सत्य और अहिंसा के दर्शन के लिए जानती है, पर भारत आज उसी विचार की हत्या कर रहा है। गांधी का खून पीकर खड़ा हुआ यह लोकतंत्र अब उसी हाथ को चूम रहा है जिसने गांधी को गोली मारी थी। यही है भारत की सबसे बड़ी ऐतिहासिक त्रासदी है।

सत्य और अहिंसा का बीज

भारत का इतिहास इस विडंबना से भरा पड़ा है कि जिसने उसे आज़ादी दिलाई, जिसकी विचारधारा ने साम्राज्यवादी ताकतों को हिला दिया, उस महात्मा गांधी को हमने सिर्फ दीवारों पर टांग रखा है। सिक्कों और नोटों पर उनकी छवि जरूर छपी रहती है, पर उनके विचार और जीवन दर्शन को हमने तिलांजलि दे दी। गांधी का असली परिचय उनके वस्त्र, उनके उपवास या उनके आचार-व्यवहार से कहीं आगे है। उनका मूल दर्शन दो शब्दों में सिमटा हुआ है सत्य और अहिंसा। गांधी के लिए सत्य सिर्फ नैतिकता का उपकरण नहीं था, बल्कि अस्तित्व का अंतिम सत्य था। उन्होंने कहा था। ईश्वर सत्य नहीं, सत्य ही ईश्वर है। इस कथन में गांधी का आध्यात्मिक और राजनीतिक दृष्टिकोण साफ झलकता है। आमतौर पर धर्म ईश्वर को सबसे बड़ा मानता है, लेकिन गांधी ने सत्य को ईश्वर से भी बड़ा ठहराया। उनके लिए सत्य ही वह अंतिम शक्ति थी, जो न केवल व्यक्ति को बल्कि समाज और राष्ट्र को भी स्थिर आधार दे सकती थी। दूसरी ओर, अहिंसा गांधी के सत्य का आवश्यक मार्ग थी। वे मानते थे कि बिना अहिंसा के सत्य की खोज संभव नहीं। हिंसा सत्य को ढक देती है, जबकि अहिंसा सत्य को उद्घाटित करती है। यही कारण था कि गांधी ने अहिंसा को कायरता नहीं, बल्कि साहस का शिखर बताया। उनका कहना था कि कायरता से हिंसा अच्छी है, पर हिंसा से अहिंसा कहीं श्रेष्ठ है। यह कथन उन आलोचकों के लिए सीधा जवाब था जो गांधी की अहिंसा को कमजोरी या पलायनवादी मानते थे।

गांधी और सत्य की खोज

गांधी का सत्य कोई सैद्धांतिक उपदेश भर नहीं था। उनके लिए यह जीवन का प्रत्यक्ष प्रयोग था। दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारत तक उन्होंने अपने हर राजनीतिक और सामाजिक संघर्ष को सत्याग्रह का नाम दिया। यह शब्द ही उनके दर्शन का परिचायक है। सत्य + आग्रह यानी सत्य पर दृढ़ आग्रह, चाहे इसके लिए कितनी भी कठिनाई क्यों न झेलनी पड़े। सत्याग्रह का अर्थ यह नहीं कि अन्याय करने वाले को चुपचाप सह लिया जाए। गांधी के सत्याग्रह में अत्याचार के खिलाफ प्रतिरोध तो है, लेकिन हिंसा के बिना। उन्होंने स्पष्ट कहा सत्याग्रह कायर का हथियार नहीं है। यह केवल उस व्यक्ति का हथियार है जो अहिंसा में अडिग और आत्मबल में दृढ़ हो। गांधी का सत्य और अहिंसा का मेल दिखता है। सत्य अन्याय का प्रतिकार करने का नैतिक आधार है और अहिंसा उसे लागू करने का व्यावहारिक तरीका।

अहिंसा सक्रिय प्रतिरोध की शक्ति

गांधी ने बार-बार समझाया कि अहिंसा का अर्थ कायरतापूर्ण सहनशीलता नहीं है। अहिंसा का मतलब है अन्याय का सक्रिय बहिष्कार। जब उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ आंदोलन किया तो वे हिंसा से लोहा नहीं ले रहे थे, बल्कि सत्य और अहिंसा से उसकी जड़ हिला रहे थे। यह उनकी सबसे बड़ी ताकत थी। दांडी यात्रा इसका उदाहरण है। जब गांधी ने नमक कानून तोड़ा, तो यह कोई हिंसक विद्रोह नहीं था। न गोली चली, न तलवार उठी। बावजूद इसके इस अहिंसक प्रतिरोध ने ब्रिटिश सरकार की नींव हिला दी। दुनिया ने देखा कि कैसे निहत्थे लोग साम्राज्यवादी सत्ता को चुनौती दे रहे हैं और सच्चाई के बल पर उसे शर्मसार कर रहे हैं। यही कारण था कि गांधी ने अहिंसा को सिर्फ राजनीतिक हथियार नहीं, बल्कि मानवता का सार्वभौमिक मूल्य बताया। उनके लिए अहिंसा प्रेम, करुणा और न्याय का दूसरा नाम थी। गांधी के इस दर्शन की आलोचना भी कम नहीं हुई। बहुत से नेताओं ने, यहां तक कि कांग्रेस के उनके साथी भी, गांधी की अहिंसा को अव्यावहारिक और आदर्शवादी करार दिया। उनका तर्क था कि अंग्रेज़ जैसे शोषक और अत्याचारी शासक को सिर्फ सत्य और अहिंसा से हराया नहीं जा सकता। गांधी इस आलोचना को स्वीकार करते थे। उन्होंने खुद कहा था कि मेरे अनुयाई अहिंसा को नहीं समझ पाए। वे सिर्फ उसका उपयोग करते हैं, आंतरिक रूप से आत्मसात नहीं करते। गांधी जानते थे कि उनकी लड़ाई अकेली है। उनके पीछे खड़े लोग पूरी तरह उनके विचार से सहमत नहीं, बल्कि केवल रणनीति के तौर पर उसे अपनाते हैं। फिर भी, गांधी ने कभी अपने सिद्धांत से समझौता नहीं किया। उनके लिए अहिंसा त्याज्य नहीं थी। वे मानते थे कि अहिंसा पर टिके बिना कोई भी समाज स्थाई न्याय और शांति की नींव नहीं रख सकता।

गांधी का प्रयोग राजनीतिक और सामाजिक

गांधी ने सत्य और अहिंसा को केवल राजनीतिक हथियार नहीं माना। वे इसे समाज सुधार और व्यक्तिगत जीवन में भी उतारना चाहते थे। जातिवाद, छुआछूत और शराबबंदी जैसे मुद्दों पर भी उन्होंने इन्हीं मूल्यों के आधार पर आंदोलन किए। उनका विश्वास था कि अगर समाज को सचमुच बदलना है, तो केवल सत्ता बदलने से काम नहीं चलेगा। असली बदलाव तब होगा जब लोग अपने भीतर सत्य और अहिंसा को आत्मसात करेंगे। यही कारण था कि गांधी ने अपने आंदोलनों के साथ-साथ चरखा, खादी और ग्राम स्वराज जैसी अवधारणाओं को भी जोड़ा। जिस गांधी ने सत्य और अहिंसा के बल पर हमें आजादी दिलाई, उसी गांधी को इस देश ने धीरे-धीरे भुला दिया। आज सत्ता की गलियारों में उनके हत्यारे की विचारधारा चल रही है। गांधी का नाम जरूर लिया जाता है, लेकिन उनके सत्य और अहिंसा को न केवल नकारा जाता है, बल्कि मजाक बनाया जाता है। क्या हम सचमुच गांधी के उत्तराधिकारी हैं या हमने सिर्फ उनकी तस्वीर को बचाकर उनकी आत्मा को मार डाला है।

गांधी की अहिंसा बनाम आज़ादी के बाद भारत का हिंसक चरित्र

भारत की आज़ादी को दुनिया ने एक चमत्कार की तरह देखा। निहत्थे लोगों ने साम्राज्यवादी ताक़त को घुटनों पर ला दिया। दुनिया के तमाम देशों ने माना कि गांधी के सत्य और अहिंसा ने इतिहास का रुख बदल दिया। लेकिन विडंबना यह है कि जिस दिन भारत ने आज़ादी का जश्न मनाया, उसी दिन गांधी सबसे ज़्यादा उदास थे। वे कह रहे थे कि यह आज़ादी मेरी कल्पना की आजादी नहीं है। गांधी की यह निराशा बेवजह नहीं थी, वे जानते थे कि भारत की राजनीति में सत्ता की भूख, हिंसा और झूठ पहले ही पैर पसार चुके हैं। आजादी के तुरंत बाद ही देश का बंटवारा और साम्प्रदायिक हिंसा का भयानक रूप देखने को मिला।

विभाजन की त्रासदी अहिंसा का सबसे बड़ा पराभव

1947 का विभाजन भारत के इतिहास का सबसे काला अध्याय है। लाखों लोग मारे गए, करोड़ों उजड़ गए और औरतों की अस्मिता कुचली गई। गांधी का पूरा जीवन अहिंसा और भाईचारे पर टिका था, लेकिन देश ने उस दिन उन्हें नकार दिया। गांधी अकेले भागते-भागते दिल्ली से नोआ खाली तक सांप्रदायिक हिंसा बुझाने में लगे थे। वे कहते थे अगर भारत बंटा तो मेरी हत्या हो जाएगी और हुआ भी यही। विभाजन ने गांधी के सपनों को चकनाचूर कर दिया और कुछ ही महीनों बाद गोली ने उनके शरीर को भी भेद डाला। आजादी के पहले ही साल में भारत ने गांधी की अहिंसा को दफन कर दिया।

सत्ता और हिंसा की राजनीति

स्वतंत्र भारत ने गांधी का नाम जरूर लिया, लेकिन रास्ता अलग चुना। गांधी चाहते थे कि सत्ता का विकेंद्रीकरण हो ग्राम स्वराज स्थापित हो। लेकिन कांग्रेस और उसके नेताओं ने सत्ता का केंद्रीकरण कर दिया। दिल्ली की सत्ता ही सब कुछ बन गई। राजनीति में सत्ता के लिए दंगे, जातीय टकराव और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण अब सामान्य बात हो गई। गांधी का सपना था कि राजनीति नैतिकता पर टिके, लेकिन आज़ादी के बाद राजनीति का आधार जाति, धर्म और हिंसा बन गया। 1960 और 70 के दशक से लेकर आज तक हम देखते हैं कि हर चुनाव से पहले सांप्रदायिक तनाव, दंगे और हत्याएं राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल की जाती हैं।

गांधी का हत्यारा और उसका महिमामंडन

सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जिस विचारधारा ने गांधी की हत्या की, वही आज सत्ता के केंद्र में है। नाथूराम गोडसे, जिसने गांधी की गोली मारकर हत्या की, आज खुलेआम महिमा मंडित किया जाता है। उसके मंदिर बनाए जाते हैं, उसकी किताबें संसद में पढ़ी जाती हैं और उसे देशभक्त तक कहा जाता है। सोचिए यह कैसा राष्ट्र है जिसने गांधी जैसे महात्मा को भुला दिया और हत्यारे को नायक बना दिया।

कांग्रेस का पाखंड

कांग्रेस भी किसी से कम दोषी नहीं। सत्ता में रहते हुए उसने गांधी को महज फोटो और मूर्तियों तक सीमित कर दिया। गांधी की आर्थिक और सामाजिक नीतियों को नेहरू और बाद के नेताओं ने पूरी तरह किनारे कर दिया। खादी, ग्रामोद्योग, शराबबंदी और सत्याग्रह की संस्कृति को कांग्रेस ने दिखावे में जिंदा रखा, पर व्यवहार में पूरी तरह खत्म कर दिया। गांधी के नाम पर योजनाएं जरूर बनीं, लेकिन उनका उपयोग केवल सत्ता के प्रचार के लिए किया गया। कांग्रेस अगर सचमुच गांधीवादी राजनीति करती, तो शायद गोडसे की विचारधारा को कभी सिर उठाने का मौका न मिलता।

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