देखते ही देखते 39 लोगो ने जान गवाई , तमिल अभिनेता विजय थलापथि तुम्हे शर्म न आई
फिल्मी दीवानगी का जानलेवा जुनून विजय थलापथि की रैली में 39 मौतें

~ सत्ता की राजनीति में कुचली जिंदगियां, तमिलनाडु के करूर में विजय थलापथि की रैली बनी मौत का मैदान
~ 39 लोगों की मौत, महिलाओं व बच्चों की संख्या ज्यादा, 50 लोग गंभीर रूप से घायल
~ घंटों देर से पहुंचे अभिनेता, भीड़ काबू से बाहर, पुलिस की अनदेखी
~ श्रद्धांजलि तक न देकर विशेष विमान से चेन्नई लौटे विजय
~ मुख्यमंत्री ने कहा अब तक का सबसे बड़ा राजनीतिक हादसा
~ फिल्म और राजनीति के रिश्ते पर फिर उठे सवाल, भीड़ प्रबंधन की खुली पोल
~ करूर से बेंगलुरु तक, सितारों और नेताओं की रैलियां बनीं कब्रगाहें
~ प्रशासन और आयोजकों की नाकामी ने कुचली मासूम जिंदगियां
◆ सुनील कुमार
तमिलनाडु (करूर)। तमिलनाडु की राजनीति में फिल्मी सितारों की दीवानगी किसी जादू से कम नहीं रही। यही दीवानगी सत्ता तक पहुंचाती है, और यही अंधी दीवानगी कभी-कभी मौत का मैदान भी बना देती है। शनिवार की रात करूर में अभिनेता से नेता बने विजय थलापथि की रैली में हुई भगदड़ ने 39 लोगों की जिंदगी निगल ली। महिलाएं, बच्चे, बुजुर्ग कोई भी इस अराजक लापरवाही से बच न सका। पुलिस की चेतावनियों की अनदेखी, घंटों की देरी, और बेकाबू भीड़ ने तमिल राजनीति के चमकीले मंच को खून और आंसुओं से रंग दिया।
देर से पहुंचे विजय, बेकाबू हुई भीड़
तमिलनाडु की राजनीति में सितारों की दीवानगी की एक और खौफनाक कहानी विगत दिनों सामने आई। लोकप्रिय तमिल अभिनेता विजय थलापथि की राजनीतिक रैली, जो सत्ता तक पहुंचने का उनका सीधा रास्ता मानी जा रही थी। 39 मासूम जिंदगियों की कब्रगाह बन गई। इस हादसे ने न सिर्फ एक अभिनेता की राजनीतिक महत्वाकांक्षा पर सवाल खड़ा कर दिया है, बल्कि पूरे राज्य में फिल्मी दीवानगी के नाम पर चल रही अंधी भीड़ की राजनीति को भी कठघरे में खड़ा कर दिया है। करीब 40 हजार लोगों की भीड़ करूर के मैदान में थलापथि के इंतजार में खड़ी थी। मंच तैयार था, सुरक्षा के लिए बैरिकेड लगाए गए थे, पुलिस ने आयोजकों को बार-बार समझाया था कि भीड़ को नियंत्रित करने के इंतजाम मजबूत हों। लेकिन विजय की पार्टी तमिलगा वेत्री कझगम ने तमाम हिदायतों की अनदेखी की। शाम ढल चुकी थी, लोग प्यास और भूख से बेहाल हो रहे थे। महिलाएं और बच्चे जमीन पर बैठकर इंतजार कर रहे थे। तभी खबर आई विजय आ गए हैं। लेकिन मंच तक जाने के लिए बनाए गए रास्ते से आने की बजाय वे सीधे भीड़ में उतर पड़े। फिर क्या था, हजारों लोग उनके करीब आने के लिए टूट पड़े। धक्का-मुक्की, चीख-पुकार और गिरते-पिसते लोग। कुछ ही मिनटों में यह जश्न मातम में बदल गया।
39 मौतें, दर्जनों घायल
अस्पतालों से जो आंकड़े आए उसने तमिलनाडु की राजनीति को हिला दिया। 39 से अधिक लोगों की मौत की पुष्टि हुई। इनमें से आधे से अधिक महिलाएं और बच्चे थे। 50 से अधिक लोगों को गंभीर हालत में अलग-अलग अस्पतालों में भर्ती कराया गया, कई परिवार पूरी तरह उजड़ गए।
श्रद्धांजलि तक नहीं, सीधे चेन्नई रवाना
सबसे हैरानी की बात यह रही कि विजय थलापथि, जिनकी वजह से यह त्रासदी हुई, उन्होंने मंच से कोई माफीनामा या श्रद्धांजलि तक नहीं दी। वे रैली खत्म होने के बाद सीधे विशेष विमान से चेन्नई लौट गए। उनके इस व्यवहार ने और अधिक आक्रोश पैदा किया। पीड़ित परिवारों को लगा कि उनकी मौतें राजनीति की महज कोलैटरल डैमेज बनकर रह गईं।
मुख्यमंत्री का बयान, विपक्ष का हमला
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने इस घटना को राज्य के राजनीतिक इतिहास का सबसे बड़ा रैली हादसा करार दिया। उन्होंने कहा कि लापरवाही साफ दिखती है और इसकी जांच होगी। विपक्षी दलों ने विजय और उनकी पार्टी को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि यह राजनीति नहीं, सत्ता की अंधी भूख है, जिसने लोगों को मौत के मुंह में धकेला।
फिल्म और राजनीति : मौतों का रिश्ता
तमिलनाडु की राजनीति में यह पहली बार नहीं हुआ। यहां का इतिहास फिल्मी सितारों और राजनीति के मेल का गवाह है। सी.एन.अन्ना दुराई फिल्मी पटकथाओं के जरिए द्रविड़ आंदोलन को जनता तक पहुंचाया। एम.जी.रामचन्द्रन (एमजीआर) सुपरस्टार, दस साल तक मुख्यमंत्री रहे। जे. जयललिता छह बार मुख्यमंत्री बनीं। एम.करूणानिधि ने 75 से अधिक फिल्में लिखीं, पांच बार मुख्यमंत्री रहे। विजयकांत और कमल हासन राजनीति में उतरे, लेकिन सफल न हुए। अब विजय थलापथि इस कड़ी में शामिल हुए हैं। लेकिन उनकी पहली बड़ी रैली ही खून से सनी है।
भीड़ और मौत : बेंगलुरु की याद
सिर्फ तमिलनाडु ही नहीं, हाल ही में बेंगलुरु में भीड़ प्रबंधन की विफलता मौत का कारण बनी। क्रिकेट टीम के विजय जुलूस में ढाई लाख लोग जुट गए। गलत सूचना और कुप्रबंधन के चलते 11 प्रशंसक कुचलकर मारे गए और 50 घायल हुए। सवाल वही क्या हमारे देश में भीड़ को केवल वोट बैंक और उत्सव का साधन मान लिया गया है? क्यों बार-बार दोहराते हैं हादसे, आयोजकों की गैरजिम्मेदारी, पुलिस की चेतावनियों की अनदेखी, नेताओं का वक्त पर न पहुंचना और भीड़ की थकान, भीड़ नियंत्रण के तरीकों की कमी, दीवानगी और अंधभक्ति का अंधापन, लोकतंत्र है या मौत का तमाशा। भारतीय लोकतंत्र में जनता ही सर्वोच्च है। लेकिन जब जनता की जान ही वोट और दीवानगी की कीमत पर कुचल दी जाए, तो यह लोकतंत्र नहीं, मौत का तमाशा बन जाता है। विजय थलापथि की रैली ने यह साबित कर दिया कि सत्ता का लालच और फिल्मी दीवानगी मिलकर कितनी भयावह त्रासदी गढ़ सकती है।
- विजय थलापथि की करूर रैली में भगदड़ से 39 मौतें, 50 से अधिक घायल।
- अभिनेता की पार्टी ने पुलिस की सुरक्षा की अनदेखी की।
- विजय के लेट पहुंचने से लोग थककर गिरे, बेहोश हुए, भगदड़ मची।
- मृतकों में आधे से अधिक महिलाएं और बच्चे, कई परिवार बिखर गए।
- विजय ने श्रद्धांजलि तक न दी और विशेष विमान से चेन्नई लौट गए।
- मुख्यमंत्री ने इसे अब तक का सबसे बड़ा राजनीतिक कार्यक्रम हादसा बताया।
- तमिल राजनीति में फिल्मी सितारों की लंबी परंपरा, लेकिन अब सवाल लापरवाही पर।
- हाल ही में बेंगलुरु में क्रिकेट विजय जुलूस में भी 11 लोग मरे थे।
- भीड़ प्रबंधन की नाकामी और वोट की भूख ने मासूम जानें निगली।
- लोकतंत्र की राजनीति क्या अब भीड़ की मौतों के सहारे खड़ी होगी।
भीड़ से राजनीति तक मौत का सौदा कब सीखेगा हिंदुस्तान भीड़-प्रबंधन
भारत की भीड़ दीवानगी से भरी है, लेकिन उसका प्रबंधन खोखला। तमिलनाडु के करूर में विजय थलापथि की रैली हो या बेंगलुरु का विजय जुलूस, हर जगह नतीजा एक ही– मौतें, भगदड़ और मातम। सवाल यह है कि शासन-प्रशासन और आयोजक कब सीखेंगे कि भीड़ का प्रबंधन महज़ रस्मी काम नहीं, बल्कि ज़िंदगियां बचाने की जिम्मेदारी है। भारत में भीड़ कभी जुलूस के नाम पर उमड़ती है, कभी क्रिकेट या सिनेमा के सितारों को देखने के लिए, और कभी नेताओं की रैलियों के लिए। लेकिन हर बार नतीजा भगदड़, मौतें और अफरातफरी एक-सा होता है। यह कोई नई बात नहीं, लेकिन हर बार त्रासदी के बाद वही घिसा-पिटा बयान आता है हम जांच करेंगे, जिम्मेदारी तय होगी। आखिर कब तक यह लापरवाही जनता की जान लेती रहेगी।
- करूर में विजय थलापथि की रैली में भगदड़ से 39 मौतें।
- बेंगलुरु में क्रिकेट जश्न ने निगलीं 11 ज़िंदगियां।
- आयोजकों और प्रशासन की भीड़-प्रबंधन में नाकामी साफ।
- भारत में भीड़ का जुनून, लेकिन तैयारी का अभाव।
- विशेषज्ञों और अफसरों को मिलकर बनानी चाहिए क्राउड-मैनेजमेंट गाइडलाइन।
- जरूरत पड़ने पर भीड़ को कई किलोमीटर दूर रोकना ही एकमात्र उपाय।
- सितारों और नेताओं की राजनीति जनता की लाशों पर नहीं टिक सकती।
करूर की त्रासदी : फिल्मी दीवानगी का अंधा नतीजा
तमिलनाडु के करूर में विजय थलापथि की राजनीतिक रैली इस लापरवाही की ताजा मिसाल है। मंच तैयार था, भीड़ बेकाबू थी और आयोजक लापरवाह। विजय के देर से आने और सुरक्षा प्रबंधन की अनदेखी ने 39 लोगों की जान ले ली। महिलाएं और बच्चे कुचले गए, सैकड़ों जख्मी हुए। पीड़ित परिवार अब पूछ रहे हैं क्या उनकी मौतें सिर्फ एक अभिनेता की सत्ता की भूख का इंधन थीं। तमिलनाडु की त्रासदी से पहले बेंगलुरु की सड़कों ने भी मौत का तमाशा देखा। क्रिकेट टीम की जीत के बाद निकले विजय जुलूस में ढाई लाख लोग उमड़े। कुप्रबंधन और गलत जानकारी ने 11 लोगों की जान ले ली। यहां भी न तैयारी थी, न नियंत्रण। हर जगह हालात एक जैसे– भीड़ का जोश और प्रशासन की लापरवाही।
भीड़-प्रबंधन क्यों विफल होता है?
लापरवाह आयोजक रैलियों और कार्यक्रमों के जिम्मेदार महज भीड़ जुटाने में लगे रहते हैं, सुरक्षा इंतजाम उनकी प्राथमिकता नहीं होती। जिला स्तर के अफसर अक्सर रस्मी सुरक्षा योजनाएं बना देते हैं, लेकिन जमीन पर अमल नहीं होता। भारत में लोग नेताओं और सितारों के लिए अपनी जान तक जोखिम में डाल देते हैं। भीड़ को नियंत्रित करने के लिए तकनीकी और पेशेवर उपाय शायद ही कभी अपनाए जाते हैं। जरूरत है अब भीड़-प्रबंधन की बुनियादी शर्तें तय करनी होगी।
किलोमीटर दूर रोकने का नियम अगर भीड़ सीमा से ज्यादा हो, तो उसे कार्यक्रम स्थल तक आने ही न दिया जाए।
- प्रशासन को प्रोफेशनल क्राउड-मैनेजमेंट टीमों की सेवाएं लेनी चाहिए।
- आयोजकों को भीड़ प्रबंधन की जिम्मेदारी से भागने नहीं दिया जाना चाहिए।
- ड्रोन मॉनिटरिंग, इमरजेंसी निकासी मार्ग और मेडिकल टीम अनिवार्य हों।
- लोगों को समझाना होगा कि भीड़ में धक्का-मुक्की और अव्यवस्था उनकी जान ले सकती है।
लोकतंत्र और मौत का तमाशा
लोकतंत्र में जनता सर्वोच्च है, लेकिन जब जनता की जान बार-बार भीड़ में कुचली जाए तो यह लोकतंत्र की नाकामी है। करूर और बेंगलुरु जैसे हादसे सिर्फ तमिलनाडु या कर्नाटक की घटनाएं नहीं हैं, यह पूरे भारत की चेतावनी हैं। सवाल यह है कि क्या सत्ता और शोहरत की भूख इतनी बड़ी है कि लोगों की जान को हमेशा दांव पर लगाया जाएगा?




