मायावती का कांग्रेस व सपा से रार, संविधान विरोधी भाजपा से प्यार
बसपा या भाजपा की बी-टीम? मायावती की महारैली ने खोला सियासी सौदेबाजी का सच

~ मायावती की 9 अक्टूबर की रैली बहुजन राजनीति के पतन की घोषणा
~ बसपा कभी मनुवाद के खिलाफ क्रांति का प्रतीक रही, आज सत्ता के संरक्षण में सियासी औजार बनी
~ दलित, पिछड़े समाज को यह समझना होगा कि सत्ता की चाबी दिल्ली में नहीं, बहुजन के हाथ में
~ बहुजन समाज अब नहीं जागा, तो अगली बार रैली नहीं, बसपा के राजनीतिक अंत का शोक सभा होगी
~ मायावती का मौन, भाजपा की जीत का सबसे बड़ा हथियार
~ बसपा की वैचारिक लाश पर सत्ता की माला
~ बसपा के वोट ट्रांसफर मशीनरी का पर्दाफाश
~ दलित राजनीति के नाम पर सियासी सौदेबाजी
◆ अंशिका मौर्या
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)। 9 अक्टूबर 2025 को लखनऊ का स्मृति उपवन नारों से गूंज रहा था। जय भीम! जय बहुजन!
लेकिन मंच से जो आवाज गूंजी, वह जय भीम की नहीं, भाजपा की लग रही थी। बहुजन समाज पार्टी की तथाकथित ‘महारैली’ जो कांशीराम की पुण्यतिथि पर बहुजन शक्ति प्रदर्शन के रूप में प्रचारित की गई थी,। दरअसल भाजपा की सियासी रणनीति का विस्तार बनकर सामने आई। मंच पर मायावती थीं, भीड़ में उनके पुराने कार्यकर्ता और अधिकारी ‘प्रशंसक’ लेकिन शब्दों में न कांशीराम की विचारधारा थी, न अंबेडकर का दर्शन। मायावती ने योगी आदित्यनाथ सरकार की तारीफ में जो फूल बरसाए, उसने यह साफ कर दिया कि अब बसपा का झंडा बहुजन नहीं, भाजपा के इशारों पर लहरा रहा है। यह रैली किसी दलित पुनर्जागरण की पुकार नहीं, बल्कि सत्ता के आगे झुकी हुई नेतृत्व हीन राजनीति की स्वीकारोक्ति थी। मायावती ने जिस अंदाज में सपा और कांग्रेस पर प्रहार किया और जिस नरमी से भाजपा पर मौन साधा, उसने यह भ्रम तोड़ दिया कि बसपा अब भी विपक्ष का हिस्सा है। दरअसल यह ‘महारैली’ भाजपा की उसी पुरानी रणनीति की कड़ी थी विपक्ष को बांटो, बहुजन वोटों को भ्रमित करो, और मायावती के मौन को हथियार बनाओ। यही मौन वर्ष 2022 के चुनावों में भाजपा को विजय दिला चुका था, और वही मौन अब वर्ष 2027 की तैयारी में फिर गूंज उठा है। कांशीराम ने कभी कहा था हम सत्ता में हिस्सेदारी नहीं, सत्ता पर नियंत्रण चाहते हैं। लेकिन मायावती की यह रैली बताती है कि बसपा अब नियंत्रण नहीं, सत्ता की कृपा चाहती है। दलितों पर हो रहे अत्याचारों, आरक्षण पर हमलों, बेरोजगारी और बुलडोजर पर उन्होंने एक शब्द तक नहीं कहा। इसके बजाय उन्होंने योगी सरकार की ‘स्मारक देखभाल’ नीति की तारीफ कर खुद को सत्ता की कृपा-सूची में दर्ज करा लिया। यह दृश्य देखकर लगा कि कांशीराम की विरासत अब भाजपा के दस्तावेजों में फाइल बन चुकी है। भीड़ में बैठे पुराने बसपा कार्यकर्ताओं के चेहरे पर उलझन थी क्या यही हमारी बहनजी हैं! यह सवाल केवल लखनऊ तक सीमित नहीं पूरे उत्तर प्रदेश में गूंज रहा है। जो पार्टी कभी दलितों की आवाज थी, वह आज भाजपा की प्रतिध्वनि बन चुकी है। बसपा की रैली ताकत का प्रदर्शन नहीं, बल्कि उसके वैचारिक पतन की घोषणा थी। जहां जय भीम का नारा भी अब ‘जय श्रीराम’ की छाया में दब गया है।
कांशीराम के मिशन से मोदी मिशन तक
बसपा की रैली महज एक राजनीतिक आयोजन नहीं थी, बल्कि उसकी आत्मा के पतन का सार्वजनिक प्रदर्शन था। मायावती ने कांशीराम की पुण्यतिथि को भाजपा की वैचारिक रणनीति के विस्तार में बदल दिया। योगी सरकार की तारीफें सुनकर दलितों के बीच यह चर्चा आम थी कि क्या बहन मायावती अब कांशीराम की नहीं, मोदी की लाइन पर हैं। यह वही मायावती हैं जिन्होंने 1995 में भाजपा से नाता तोड़कर कहा था कि हम सत्ता नहीं, सम्मान की राजनीति करेंगे। लेकिन आज वही मायावती भाजपा की तारीफ कर रही हैं। दलितों के हक की लड़ाई अब भाजपा की चमचागीरी में बदलती दिख रही है।
वर्ष 2022 की चुप्पी का सौदा
2022 के विधानसभा चुनावों को याद कीजिए। उस समय सपा ने पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक का नारा दिया था, लेकिन बसपा ने मौन साध लिया। न तो मायावती ने भाजपा पर कोई गंभीर हमला किया, न ही उन्होंने बहुजन एकता के लिए कोई ठोस रणनीति बनाई। नतीजा भाजपा को अप्रत्यक्ष लाभ मिला। राजनीतिक विश्लेषकों ने तब कहा था कि बसपा की चुप्पी ने दलित वोटों को बिखेर दिया और भाजपा को सत्ता तक पहुंचा दिया। आज वही रणनीति दोहराई जा रही है, सपा को ‘दोगला’, कांग्रेस को ‘कमजोर’ और योगी को ‘ईमानदार प्रशासक’ बताकर मायावती वोट बहुजन का, फायदा भाजपा का खेल खेल रही हैं।
भाजपा की प्रशंसा और विपक्ष पर हमला मायावती की सियासी चाल
रैली में मायावती का भाषण राजनीतिक पंक्तियों में बंटा हुआ था। एक हिस्सा भाजपा की प्रशंसा का, दूसरा विपक्ष की निंदा का। उन्होंने कहा कि योगी सरकार सपा की तरह नहीं, स्मारकों की देखभाल कर रही है। लेकिन सवाल यह है कि क्या केवल स्मारक बचाने से दलितों की गरिमा बच जाएगी। रायबरेली में दलित हरिओम की हत्या, अंबेडकर मूर्तियों का अपमान, और दलित आरक्षण पर लगातार हमले इन सब पर मायावती मौन रहीं। यह मौन राजनीतिक डर नहीं, बल्कि सियासी डील का नतीजा है। भाजपा के खिलाफ एक शब्द नहीं, लेकिन विपक्ष पर लगातार प्रहार यही मायावती की नई रणनीति है।
पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक गठबंधन से डर या भाजपा से वादा, अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा पर प्रश्नचिन्ह
मायावती ने रैली में वर्ष 2027 का एलान किया कि बसपा अकेले चुनाव लड़ेगी। यह बयान पहली नजर में ‘स्वाभिमान’ का लगता है, लेकिन असल में यह भाजपा के लिए ‘सुविधा’ का संकेत है। जब सपा और कांग्रेस पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक के जरिए बहुजन एकता की कोशिश कर रहे हैं, मायावती उसी वोट बैंक को तोड़ने में लगी हैं। राजनीतिक पर्यवेक्षक मानते हैं कि बसपा की अकेली लड़ाई भाजपा के वोटों को नुकसान नहीं, बल्कि विपक्ष के वोटों को बिखराव देगी। यह वही ‘डिवाइड एंड गेन’ की स्कीम है, जिसे भाजपा ने 2019 में भी सफलतापूर्वक लागू किया था।
कांशीराम की आत्मा शर्मसार
जब मायावती ने योगी सरकार की प्रशंसा की, मंच के नीचे बैठे ज्यादातर पुराने बहुजन कार्यकर्ता चुपचाप बाहर निकल गए। एक बुजुर्ग कार्यकर्ता ने मीडिया से कहा कि कांशीराम ने हमें स्वाभिमान सिखाया था, आज बहनजी ने उसे सत्ता के लिए बेच दिया। बसपा के पुराने सिद्धांत ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाए’ अब ‘भाजपा हिताय’ में बदल गए हैं। मायावती का मौन और भाजपा की मुस्कान दोनों में एक गहरी सियासी डील की गंध आती है। दलित समाज पूछ रहा है कि बहनजी हमारे वोट अब सौदे की वस्तु बन चुके हैं!
भाजपा की दलित रणनीति और बसपा की गिरवी रखी राजनीति
भाजपा की रणनीति साफ है विपक्षी वोटों को बांटने के लिए बसपा को सीमित प्रभाव में सक्रिय रखना। वर्ष 2014 से भाजपा ने दलित प्रतीकों का राजनीतिक उपयोग शुरू किया अंबेडकर की मूर्तियों से लेकर ‘सामाजिक न्याय सम्मेलन’ तक। अब उसी मिशन को मायावती की मदद से आगे बढ़ाया जा रहा है। भाजपा के लिए मायावती अब ‘वोट डिवाइडर’ नहीं, ‘राजनीतिक ब्रिज’ हैं, जो दलित नाराजगी को विपक्ष तक पहुंचने से रोकती हैं। यही कारण है कि भाजपा सरकार मायावती को निशाना नहीं बनाती न सीबीआई के छापे, न आयकर के नोटिस सबकुछ शांत।
बहुजन समाज का मोहभंग रैली की भीड़ में खोया विश्वास
लखनऊ की रैली में लाखों के दावे किए गए, लेकिन भीड़ में मायावती के पुराने समर्थकों की जगह सरकारी तंत्र से जुड़े चेहरे ज्यादा दिखे। बसपा के स्थानीय जिलाध्यक्षों ने टिकट की उम्मीद में भीड़ जुटाई, लेकिन भाषण के बाद जब मायावती ने विपक्ष पर हमला बोला, तो लोगों में फुसफुसाहट शुरू हो गई कि ‘बहनजी कब भाजपा पर बोलेंगी’। कांशीराम के नाम पर वोट तो जुटे, लेकिन मुद्दे गायब रहे बेरोजगारी, आरक्षण, अत्याचार, सब पर चुप्पी। यह रैली ‘बहुजन जागरण’ नहीं, बल्कि ‘बहुजन विषमरण’ का प्रतीक बन गई।
जय भीम का नारा बिक गया बहुजन राजनीति के पुनर्जन्म की जरूरत
बसपा की यह रैली बहुजन आंदोलन के लिए चेतावनी है। मायावती अब केवल प्रतीक बन चुकी हैं, विचार नहीं। भाजपा की शह पर विपक्ष को तोड़ना और दलित वोटों को निष्क्रिय करना यही उनकी भूमिका रह गई है। बहुजन समाज को समझना होगा कि जय भीम का नारा अब सत्ता की डीलिंग टेबल पर बिक चुका है। नया नेतृत्व, नई सोच और नई लड़ाई की जरूरत है क्योंकि अगर बहुजन समाज फिर सोया रहा, तो वर्ष 2027 के बाद उसकी राजनीतिक पहचान इतिहास के पन्नों में सिमट जाएगी।
- मायावती की रैली भाजपा के अप्रत्यक्ष प्रचार में तब्दील हुई।
- भाजपा सरकार की तारीफ और विपक्ष पर हमला यह सियासी संकेत है।
- वर्ष 2022 में बसपा की ‘रणनीतिक चुप्पी’ ने भाजपा को लाभ पहुंचाया।
- वर्ष 2027 में अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा भाजपा के लिए फायदेमंद।
- दलित समाज के वास्तविक मुद्दों पर बसपा मौन।
- भाजपा की रणनीति बहुजन वोटों को बसपा के जरिए बांटना।
- रैली में भीड़ तो थी, लेकिन विश्वास नहीं।
- बहुजन आंदोलन के पुनर्जन्म की जरूरत ‘जय भीम’ अब बिक चुका है।




