मोदी राज में जारी है पत्रकारो पर प्रहार, हाथ पर हाथ धरे बैठे है हमारे सरकार
लोकतंत्र की चौथी दीवार पर दरार जब कलम पर हाथ उठाने लगे हुक्मरान

● अधिकारी व नेता पत्रकारों के गले तक हाथ बढ़ाने लगें, तो सत्ता को सच्चाई से डर लगने लगा
● खबर दिखाने की कीमत जान से चुकानी पड़ रही है
● विश्वसनीयता इतनी गिर गई है कि पत्रकार कहना अब सम्मान नहीं, सवाल बना
● प्रेस काउंसिल के नियम किताबों में, पत्रकार मैदान में अकेले
● नैतिकता के पन्ने सरकारी फाइलों में बंद हैं, पत्रकार सड़क पर सत्ता से जूझ रहा
● संविधान देता है हक, पर सुरक्षा कौन देगा
● अनुच्छेद 19 अभिव्यक्ति की आजादी, मगर पत्रकारों के लिए कोई ढाल अब तक नहीं
● सत्ता के गलियारों में अब सच्चाई पूछना अपराध बना
● ईमानदार पत्रकारों के लिए जरूरी है ‘सेल्फ-रेगुलेटिंग बॉडी’, जो साख भी बचाए और सुरक्षा भी दे
● कलम की धार तभी बचेगी जब ईमानदारी जिंदा रहेगी
● पत्रकारिता को सत्ता से नहीं, अपने भीतर के लालच और झूठ से लड़ना होगा
◆ हरिशंकर पाराशर
रायपुर। लोकतंत्र की इमारत तभी मजबूत होती है जब उसकी चौथी दीवार पत्रकारिता सशक्त, स्वतंत्र और विश्वसनीय हो। लेकिन आज वही चौथी दीवार दरक रही है। कहीं अधिकारी पत्रकार का कॉलर पकड़कर गला दबा रहे हैं, तो कहीं नेता सवाल पूछने पर एफआईआर दर्ज करा रहे हैं। जो कभी सत्ता का आईना था, अब सत्ता के कोप का शिकार है। सवाल यह भी है कि क्या इस पतन की पटकथा खुद पत्रकारों ने नहीं लिखी।
लोकतंत्र का प्रहरी अब निशाने पर
छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र हर राज्य से पत्रकारों पर हमले की खबरें आने लगी हैं। हाल ही में वायरल हुए एक वीडियो में एक अधिकारी ने खुलेआम एक पत्रकार को अपमानित किया। कॉलर पकड़कर बाहर धकेला, और गला दबाने की कोशिश की यह कोई इकलौती घटना नहीं। बस्तर में तो पत्रकारों की हत्या तक हो चुकी है। एक पत्रकार का शव सेप्टिक टैंक से बरामद हुआ, और स्थानीय प्रशासन ने इसे व्यक्तिगत विवाद बताकर रफा-दफा कर दिया। पत्रकारों पर झूठे मुकदमे, धमकियां, लाइसेंस रद्द करने की साजिशें यह सब आज भारत की मीडिया-यथार्थ का हिस्सा है।
जनता पूछती है किस पार्टी के पत्रकार हो
कभी पत्रकार कहना गर्व की बात होती थी। आज जब कोई कहता है मैं पत्रकार हूं, तो सामने वाला व्यंग्य में पूछता है किस पार्टी के पत्रकार हो। यह सवाल पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर सबसे बड़ा तमाचा है।
सच यह है कि आज एक बड़ा तबका ‘पत्रकारिता’ को कमाई, दबाव और प्रचार का साधन बना चुका है।
कई ‘पेड न्यूज’ पोर्टल्स और यूट्यूब चैनल खुल गए हैं, जो सत्ता या विरोधी गुट के प्रचार तंत्र के रूप में काम कर रहे हैं। ब्लैकमेलिंग, वसूली, झूठी खबरें, सनसनी और ब्रेकिंग की दौड़ में सच्चाई कहीं पीछे छूट गई है। यही वजह है कि जब किसी ईमानदार पत्रकार पर अत्याचार होता है, तो समाज का एक बड़ा हिस्सा चुप रहता है। उसे लगता है ये सब तो ऐसे ही होते हैं। यह धारणा अगर स्थाई बन गई, तो लोकतंत्र की आत्मा मर जाएगी।
अधिकारी और नेता क्यों डरते हैं सच्चाई से
सत्ता में बैठे लोग पत्रकारों से डरते हैं, क्योंकि पत्रकार ही वो दर्पण हैं जो सच दिखाते हैं। लेकिन अब कई अधिकारी आलोचना को अपमान समझने लगे हैं। जो पत्रकार सरकारी भ्रष्टाचार या प्रशासनिक लापरवाही को उजागर करते हैं, उनके खिलाफ धमकी, बदनामी या मुकदमे का रास्ता अपनाया जाता है। राज्य मशीनरी पत्रकारों के फोन टैप करती है, उनके सोशल मीडिया पोस्ट की निगरानी करती है, और गलत सूचना अधिनियम या आईटी एक्ट के तहत नोटिस भेज देती है। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, और उत्तर प्रदेश में हाल के महीनों में 40 से अधिक पत्रकारों पर विभिन्न धाराओं में मुकदमे दर्ज हुए हैं। कईयों को थानों में बुलाकर ‘समझौते’ के लिए मजबूर किया गया। अधिकारियों का तर्क होता है इनकी खबरों से माहौल बिगड़ता है। लेकिन असलियत यह है कि जो पत्रकार माहौल बिगाड़ रहे हैं, वे वेतनभोगी नहीं विचार भोगी हैं। वे सत्ता की चुप्पी के बीच जनता की आवाज बनते हैं।
संवैधानिक सच्चाई पत्रकार भी नागरिक, कानून से ऊपर नहीं
भारतीय संविधान में पत्रकार शब्द नहीं है। जो अधिकार एक नागरिक को हैं, वही पत्रकार को भी है न उससे अधिक, न कम। अनुच्छेद 19(1)(ए) हर व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, लेकिन अनुच्छेद 19(2) के तहत यह स्वतंत्रता ‘युक्तिसंगत प्रतिबंधों’ के अधीन है। इसका मतलब है कि पत्रकारिता कोई ‘छूट पत्र’ नहीं है। कलम की ताकत बड़ी है, पर उससे बड़ी जिम्मेदारी भी है। खबर सत्य, प्रमाणित और जनहित में होनी चाहिए। फर्जी खबर, भ्रामक आंकड़े या किसी व्यक्ति की बदनामी के लिए लिखी गई पंक्ति, पत्रकारिता नहीं अपराध है।
प्रेस काउंसिल के नियम और नैतिकता की दरार
प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने पत्रकारिता के आचार संहिता में साफ कहा है कि मानहानि, अफवाह या असत्य सूचना का प्रसार न करें। बलात्कार, नाबालिग, पीड़ित या संवेदनशील मामलों में पहचान उजागर न करें। चिकित्सा गोपनीयता, न्यायिक कार्यवाही या सैन्य जानकारी के दुरुपयोग से बचें। पत्रकारिता का उद्देश्य व्यक्तिगत या राजनीतिक लाभ नहीं, बल्कि सत्य और समाज हित होना चाहिए। लेकिन इन नियमों का पालन अब अपवाद बन गया है। ‘रील पत्रकारिता’ और ‘स्टूडियो युद्ध’ ने साख को चीर दिया है। पत्रकार अब मैदान से गायब हैं कैमरे की चमक में खो गए हैं। रिपोर्टिंग की जगह राय हावी है, और राय भी वैचारिक निर्देशित।
दुर्व्यवहार की बढ़ती घटनाएं सत्ता का रवैया या डर की राजनीति
हाल के वर्षों में पत्रकारों से जुड़े हिंसक मामलों में वृद्धि हुई है। वर्ष 2022 से 2025 के बीच भारत में 138 पत्रकारों पर हमला हुआ। 17 पत्रकारों की मौत संदिग्ध परिस्थितियों में हुई। 200 से अधिक पत्रकारों पर एफआईआर दर्ज की गई। छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार और कश्मीर जैसे राज्यों में पत्रकारों को पुलिस थाने से लेकर कोर्ट-कचहरी तक दौड़ाया जा रहा है। कई बार इन हमलों के पीछे प्रशासनिक आदेश या राजनीतिक इशारा साफ झलकता है। लेकिन रिपोर्टिंग के दौरान मारे गए, धमकाए गए या अपमानित पत्रकारों के लिए कोई विशेष कानून नहीं है। आज तक जर्नलिस्ट प्रोटेक्शन एक्ट केवल ड्राफ्ट फाइलों में धूल फांक रहा है। केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय और राज्यों के सूचना विभाग इस दिशा में संवेदनशील नहीं दिखते।
पत्रकारों के लिए ‘सेल्फ-रेगुलेशन बॉडी’ जरूरी
छत्तीसगढ़ जर्नलिस्ट्स यूनियन, छत्तीसगढ़ प्रेस क्लब, और मध्य प्रदेश जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन ने मिलकर हाल में एक प्रस्ताव रखा है कि एक स्वतंत्र सेल्फ-रेगुलेटिंग बॉडी बनाई जाए। यह संस्था प्रेस काउंसिल या एडिटर्स गिल्ड की तर्ज पर हो, पर सरकारी दखल से मुक्त। इस बॉडी का उद्देश्य दोहरा होगा। पहला पत्रकारों की सुरक्षा और अधिकारों की रक्षा व दूसरा पत्रकारिता की आचरण मर्यादा तय करना। जिसमें स्वतंत्र पत्रकार, फ्रीलांसर, स्ट्रिंगर्स और ग्रामीण संवाददाता, शिक्षाविद, समाजसेवी, लॉ ग्रेजुएट्स और वरिष्ठ संपादक सम्मिलित हों। जिससे निर्णय प्रक्रिया लोकतांत्रिक हो, और शिकायतों का निपटारा समयबद्ध तरीके से हो। यह भी तय करना हो कि पत्रकार की परिभाषा और योग्यता क्या होनी चाहिए। ब्लैकमेलिंग या वसूली में लिप्त पाए गए पत्रकारों की ब्लैकलिस्ट जारी करना। अधिकारियों द्वारा दुर्व्यवहार पर जांच दल बनाना और रिपोर्ट सार्वजनिक करना। पत्रकारिता नैतिकता पर वर्कशॉप, सेमिनार और प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करना। पत्रकारों के लिए कानूनी सहायता प्रकोष्ठ बनाना। यदि यह संस्था प्रभावी रूप से बनी, तो न केवल पत्रकारों की साख बचेगी, बल्कि समाज का भरोसा भी लौटेगा।
कलम की धार और आत्ममंथन का समय
पत्रकारिता केवल सत्ता से सवाल करने का पेशा नहीं यह आत्मनिरीक्षण की प्रक्रिया भी है। अगर पत्रकार खुद जवाबदेह नहीं होंगे, तो समाज उन्हें माफ नहीं करेगा।
आज वक्त है पत्रकार अपने भीतर झांकें कि क्या हम वाकई जनता की आवाज हैं या किसी एजेंडे के औजार बन चुके हैं। दूसरी ओर, अधिकारियों और नेताओं को भी यह समझना होगा कि पत्रकार कोई दुश्मन नहीं, बल्कि लोकतंत्र का साथी है। यदि आलोचना तथ्यपरक है, तो उसे स्वीकार करना चाहिए न कि अपमान और हिंसा से कुचलना। पत्रकार की साख उसके शब्दों से बनती है, न कि माइक या कैमरे के लोगो से। जब कलम ईमानदारी से लिखेगी, तब कोई सत्ता उसे रोक नहीं सकेगी। जब पत्रकार सच्चे होंगे, तब अधिकारी सिर झुकाकर कहेंगे यही है लोकतंत्र की चौथी दीवार।
* छत्तीसगढ़ में अधिकारी द्वारा पत्रकार के साथ दुर्व्यवहार का वीडियो वायरल।
* बस्तर, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश में पत्रकारों पर हमलों की लंबी श्रृंखला।
* जनता के मन में पत्रकारों की साख पर प्रश्नचिह्न
* प्रेस काउंसिल की नैतिक संहिता कागजों में कैद।
* संविधान में पत्रकारों के लिए कोई विशेष सुरक्षा प्रावधान नहीं।
* वर्ष 2022–2025 में 138 पत्रकारों पर हमले, 17 मौतें।
* सेल्फ-रेगुलेटिंग बॉडी बनाने की मांग तेज पत्रकारों की सुरक्षा व आचरण दोनों पर फोकस।
* पत्रकारिता के आत्ममंथन और विश्वसनीयता पुनःस्थापन की जरूरत।
*



