
~ लद्दाख की शांति भंग सत्ता की जिद या युवाओं का गुस्सा?
~ वादाखिलाफी की आग भाजपा दफ्तर हुआ राख
~ मणिपुर से लद्दाख तक सरकार की संवेदनहीनता उजागर
~ छठी अनुसूची और पहचान की जंग लद्दाख के सवाल अनुत्तरित
~ युवा नहीं मानेंगे अब ‘मन की बात’ जवाबदेही से भागना मुश्किल
अंशिका मौर्या
लद्दाख भारत का वह इलाका जिसे दुनिया अब तक बर्फीली चोटियों, बौद्ध संस्कृति की शांति और पर्यटन की स्वर्गीय सुंदरता के लिए जानती रही है। आज एक अलग वजह से चर्चा में है। जिस धरती पर अब तक अपराध और हिंसा का नामोनिशान नहीं था, वहां पिछले हफ्ते अचानक गुस्से की आग भड़क उठी। और यह आग किसी आम झगड़े या दुर्घटना की नहीं थी, बल्कि सीधे सत्ता के दलान तक पहुंची। भाजपा कार्यालय को युवाओं ने आग के हवाले कर दिया। यह घटना केवल एक राजनीतिक कार्यालय के जलने की नहीं है। यह केंद्र सरकार की वादाखिलाफी, संवेदनहीनता और जनता के टूटे विश्वास की सबसे बड़ी गवाही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने 2019 में अनुच्छेद 370 हटाते समय लद्दाख को ‘नई पहचान और सुनहरे भविष्य’ का भरोसा दिलाया था। लेकिन पांच साल बाद युवा यह महसूस कर रहे हैं कि उनके साथ छल हुआ है। लद्दाख की यह आग केवल एक इमारत नहीं जला रही, बल्कि यह मोदी-शाह की राजनीति की खोखली तस्वीर को उजागर कर रही है। मणिपुर ढाई साल से जल रहा है, कश्मीर अब भी बेचैन है और अब लद्दाख भी असंतोष की आग में झुलस रहा है। क्या यह सरकार केवल चुनावी नारों और ‘मन की बात’ तक सीमित रह गई है। आज का युवा अब चुपचाप सुनने वाला नहीं है। वह हिस्सेदारी चाहता है, और वादाखिलाफी को अब किसी भी कीमत पर बर्दाश्त करने के मूड में नहीं है।
वादे और हकीकत का टकराव
2019 में जब अनुच्छेद 370 हटाकर जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटा गया, तो भाजपा ने दावा किया था कि लद्दाख के लोगों की दशकों पुरानी आकांक्षाओं को सम्मान मिलेगा। विकास, रोजगार और पहचान की नई सुबह आएगी। लेकिन हकीकत यह है कि छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग, जो लद्दाख की पहचान और सांस्कृतिक सुरक्षा का मुख्य आधार थी, अब तक अधूरी है। न तो रोजगार का वादा पूरा हुआ, न ही युवाओं को शिक्षा और अवसर मिले।
मोदी-शाह की नैतिक नाकामी
प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री शाह पर सवाल इसलिए उठते हैं क्योंकि सत्ता की डोर उन्हीं के हाथ में है। मणिपुर ढाई साल से जल रहा है, लेकिन कोई ठोस राजनीतिक पहल नहीं। पुलवामा, पहलगाम जैसे हमलों पर जवाबदेही नहीं ली गई और अब लद्दाख में असंतोष उभर आया है। जब देश की संवेदनशील सीमावर्ती क्षेत्र में भी युवा असंतुष्ट होकर आगजनी पर उतर आएं, तो यह केवल स्थानीय असफलता नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर की नाकामी है।
छठी अनुसूची और प्रतिनिधित्व का सवाल
लद्दाख के लोगों की मांग है कि उन्हें छठी अनुसूची में शामिल किया जाए, ताकि उनकी सांस्कृतिक, भाषाई और भूमि संबंधी अधिकार सुरक्षित रह सकें। लेकिन केंद्र सरकार ने अब तक इस पर स्पष्ट रुख नहीं अपनाया। यही भरोसे का सबसे बड़ा संकट है।
सत्ता की जिद और जनता का सब्र
मोदी-शाह की राजनीति अब तक एकतरफा फैसलों और मन की बात तक सीमित रही है। लेकिन समय बदल चुका है। आज का युवा संवाद और जवाबदेही चाहता है। लद्दाख की घटना बताती है कि सत्ता की जिद से अधिक मजबूत अब जनता की आवाज है। लद्दाख केवल एक प्रांत नहीं है, यह भारत-चीन सीमा से जुड़ा रणनीतिक क्षेत्र है। यहां अगर असंतोष बढ़ा, तो यह केवल आंतरिक शांति का नहीं बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा का भी बड़ा खतरा बन सकता है। इसलिए यह घटना केवल स्थानीय राजनीति तक सीमित नहीं, बल्कि देश के भविष्य से जुड़ी चेतावनी है।
मणिपुर से लद्दाख समान असफलताएं
मणिपुर में दो साल से हिंसा थमी नहीं, कश्मीर में लगातार तनाव बना हुआ है। अब लद्दाख में भी असंतोष की आग। यह पैटर्न बताता है कि केंद्र सरकार का आंतरिक शांति पर नियंत्रण कमजोर होता जा रहा है। अगर सरकार वाकई गंभीर है, तो उसे तुरंत स्थानीय समुदाय और छात्र संगठनों से संवाद बहाल करना होगा। छठी अनुसूची की मांग पर स्पष्ट फैसला लेना होगा। युवाओं के लिए रोजगार, शिक्षा और प्रशिक्षण के अवसर सुनिश्चित करने होंगे। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को जिम्मेदारी से भागने के बजाय नेतृत्व दिखाना होगा।
- लद्दाख के युवाओं ने भाजपा कार्यालय को आग लगाकर सरकार की वादाखिलाफी पर गुस्सा जताया।
- मोदी-शाह ने विकास और छठी अनुसूची का वादा किया था, लेकिन पूरा नहीं किया।
- लद्दाख की शांति भंग होना केवल स्थानीय असंतोष नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा गंभीर सवाल है।
- मणिपुर से लेकर लद्दाख तक, केंद्र सरकार की नीतियां असफल रही हैं।
- समाधान संवाद, संवेदनशीलता और जवाबदेही से ही संभव है।
- लद्दाख की आग मोदी-शाह के वादों की राख में बदलती उम्मीदें
- निर्मला सीतारमण की वाहवाही बनाम लद्दाख का विद्रोह
- छात्रों की झड़प, भाजपा कार्यालय और सीआरपीएफ की गाड़ी आग में
- सोनम वांगचुक की अपील हिंसा नहीं, समाधान चाहिए
केंद्र सरकार की देरी, चीन की चुनौती और आंतरिक संकट
केंद्र सरकार ने कभी विकास और शांति की प्रयोगशाला बताकर अनुच्छेद 370 हटाने के फैसले का सबसे बड़ा औचित्य ठहराया था। अब उसी सरकार के खिलाफ सुलग रहा है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने जुलाई में लेख लिखकर यहां की ‘शांति और जीवंत रंगों’ की तारीफ की थी और प्रधानमंत्री मोदी ने उस पर अपनी पीठ थपथपाई थी। लेकिन सितंबर के आखिरी हफ्ते में हालात ने करवट बदली। लेह की सड़कों पर आंसू गैस के गोले फटे, पत्थरबाजी हुई, भाजपा कार्यालय और सीआरपीएफ की गाड़ी आग की लपटों में घिर गई। छात्रों ने सोशल मीडिया से भीड़ जुटाई और आंदोलन ने हिंसक रूप ले लिया। यह केवल एक प्रशासनिक चूक नहीं, बल्कि उस वादाखिलाफी का नतीजा है जिसे लद्दाख की जनता पांच साल से झेल रही है। छठी अनुसूची में शामिल करने और पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग अधूरी है। संवाद अधूरा है। भरोसा टूट चुका है। और अब सवाल यह है कि जब भाजपा की राजनीति का चेहरा ही लद्दाख की आग की चपेट में आ चुका है, तो क्या प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह उतनी ही तत्परता से अपनी गलती स्वीकार करेंगे, जितनी तत्परता से उन्होंने वाहवाही लूटी थी।
निर्मला सीतारमण का लेख और मोदी की वाहवाही
जुलाई में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने लेख में लिखा था कि लद्दाख में उन्हें सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली चीज है, यहां की असाधारण जीवंतता और शांति का भाव। प्रधानमंत्री मोदी ने इसे साझा करते हुए दावा किया कि बेहतर कनेक्टिविटी और संसाधनों की बदौलत लद्दाख बदल रहा है। यानी सरकार ने लद्दाख को अपनी उपलब्धियों का प्रतीक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन सितंबर आते-आते वही लद्दाख भाजपा के लिए सिरदर्द बन गया।
हिंसा की शुरुआत कैसे हुई
24 सितंबर को लेह में प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच झड़प हो गई। यह प्रदर्शन पूर्ण राज्य का दर्जा और छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग को लेकर था। छात्रों ने भाजपा कार्यालय को आग के हवाले कर दिया।
पुलिस और सीआरपीएफ पर पत्थरबाजी हुई। सुरक्षाबलों ने आंसू गैस छोड़ी, लेकिन हालात बेकाबू रहे। भाजपा दफ्तर और सीआरपीएफ की गाड़ी जलकर राख हो गई। आंदोलनकारियों ने 23 सितंबर की रात को ही लद्दाख बंद का आह्वान किया था। सोशल मीडिया के जरिए अपील की गई कि लोग लेह हिल काउंसिल के सामने जुटें। पुलिस ने बैरिकेड लगाए, लेकिन भीड़ उग्र हो गई और हिंसा फैल गई।
सोनम वांगचुक का शांतिपूर्ण संघर्ष और टूटती उम्मीद
लद्दाख के विख्यात पर्यावरण कार्यकर्ता और सामाजिक नेता सोनम वांगचुक पिछले 15 दिनों से भूख हड़ताल पर थे। उनकी मांग वही थी छठी अनुसूची और पूर्ण राज्य का दर्जा। उन्होंने शांति का रास्ता चुना। अनशन किया, दिल्ली तक पैदल मार्च निकाला। लेकिन जब 24 सितंबर को हिंसा भड़की, तो वांगचुक ने अनशन तोड़ते हुए कहा कि यह लद्दाख के लिए दुख का दिन है। हम पांच साल से शांति का पैगाम देते रहे, लेकिन अब हिंसा, गोलीबारी और आगजनी हो रही है। मैं युवाओं से अपील करता हूं कि इस बेवकूफी को बंद करें। वांगचुक का रुख साफ है कि समाधान केवल संवाद और संवेदनशीलता से ही निकलेगा।
प्रधानमंत्री मोदी की चुप्पी
24 सितंबर की हिंसा से ठीक पहले, प्रधानमंत्री मोदी अरुणाचल प्रदेश में भाषण दे रहे थे। वहां एक युवा ने लद्दाख की मांग का पोस्टर लहराया तो उसे हिरासत में ले लिया गया। भाजपा ने इसे मामूली घटना बताया। लेकिन अब जब भाजपा कार्यालय आग में जल गया, तब सवाल है क्या मोदी-शाह इसे भी मामूली कहकर टाल देंगे। यह आग केवल एक दफ्तर नहीं जली, बल्कि उन वादों की चिता है जिन पर सरकार खड़ी थी। 2019 में कहा गया था कि हालात सामान्य होने पर राज्य का दर्जा लौटेगा। जम्मू-कश्मीर में चुनाव सुप्रीम कोर्ट के दबाव से हुए। लद्दाख को अब तक न राज्य मिला, न छठी अनुसूची। युवाओं ने साफ संदेश दिया है कि वादाखिलाफी अब बर्दाश्त नहीं होगी।
- वित्त मंत्री सीतारमण ने जुलाई में लद्दाख की शांति की तारीफ की, मोदी ने वाहवाही लूटी।
- 24 सितंबर को लेह में हिंसा भाजपा कार्यालय और सीआरपीएफ की गाड़ी जलाई गई।
- छात्र पूर्ण राज्य का दर्जा और छठी अनुसूची की मांग कर रहे हैं।
- सोनम वांगचुक ने हिंसा रोकने की अपील की, अनशन तोड़ा।
- एलएबी और केडीए का आंदोलन जारी है, अगली बैठक 6 अक्टूबर को होगी।
- देरी से बढ़ता असंतोष लद्दाख की आंतरिक शांति और राष्ट्रीय सुरक्षा दोनों के लिए खतरा है।
- अब गेंद केंद्र सरकार के पाले में है समाधान या संकट, फैसला उसे करना है।
वांगचुक पर गिरफ़्तारी से सरकार ने दिखाया अहंकार
- सोनम वांगचुक की गिरफ्तारी गांधीवाद पर हमला
- बीजेपी का आरोप और राजनीतिक प्रतिशोध
- सरहदी राज्यों की संवेदनशीलता पर सरकारी उदासीनता
- लद्दाख में असंतोष बढ़ने का खतरा और राष्ट्रीय सुरक्षा
भारत का शांति और सौंदर्य का प्रतीक अब केंद्र सरकार की कार्रवाई के कारण तनाव का केंद्र बन गया है। केंद्रीय सरकार ने पर्यावरण कार्यकर्ता और सामाजिक नेता सोनम वांगचुक को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत गिरफ़्तार कर यह संदेश दे दिया है कि वह सीमांत राज्यों की संवेदनशीलता को बिल्कुल नहीं समझती और उनकी परवाह नहीं करती। यह केवल एक व्यक्ति की गिरफ्तारी नहीं है। यह कदम मोदी सरकार के अहंकार, क्रोध और प्रतिशोध की राजनीति का प्रतीक है। वांगचुक ने हिंसा नहीं की, उन्होंने तो हिंसा होते ही आंदोलन को वापस ले लिया। इसके बावजूद उन पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने लोगों को भड़काया। बांग्लादेश और जेन ज़ी संबंधी उनके बयान तोड़ मरोड़कर उनके खिलाफ इस्तेमाल किया। क्या सरकार को यह लग रहा था कि इस शांतिप्रिय आंदोलन से उसकी पोल खुल रही है, उसकी नाकाबिलियत सामने आ रही है? और इस अतिवादी कदम से लद्दाख के युवाओं में जो पहले से ही असंतोष था वह और भड़केगा!
सोनम वांगचुक की गिरफ्तारी गांधीवादी प्रतिरोध पर हमला
सोनम वांगचुक लद्दाख के जाने-माने पर्यावरण कार्यकर्ता और सामाजिक नेता हैं। पिछले कई वर्षों से वे गांधीवादी और शांतिपूर्ण तरीकों से आंदोलनों का नेतृत्व कर रहे हैं। उनका उद्देश्य लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल कराना और पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाना था। लेकिन मोदी सरकार ने उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार कर दिखा दिया कि उसकी नजर में कानून की रक्षा और संवेदनशीलता की कोई जगह नहीं है। इससे यह संदेश जाता है कि सरकार सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए किसी भी शांतिप्रिय व्यक्ति पर कठोर कार्रवाई कर सकती है। वांगचुक ने हिंसा होने पर अपना आंदोलन रोक दिया था। उनकी पहल हमेशा शांतिपूर्ण रही है।
बीजेपी का आरोप और प्रतिशोध
बीजेपी ने इस आंदोलन में वांगचुक की भूमिका को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया। पार्टी ने पहले कांग्रेस को फंसाने की कोशिश की थी, लेकिन जब यह स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस की कोई भूमिका नहीं थी, तो वांगचुक पर ध्यान केंद्रित कर दिया गया। बांग्लादेश और जेन जी के बयानों को तोड़ मरोड़कर आरोपित किया गया।सीबीआई जांच का बहाना बनाकर केस दर्ज किया। फिर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तारी कर दी। इस पूरी प्रक्रिया से स्पष्ट है कि सरकार ने किसी सही कानूनी आधार की बजाय प्रतिशोध और अहंकार से कार्रवाई की।




