चन्दौली

खनन माफियाओं की वन विभाग की साठ-गांठ, दोनों एक नम्बर के घाघ

राजकुमार सोनकर

 

~ चकिया के शिकारगंज सेंचुरी में चल रहा खनन का काला कारोबार

~ कानून, पर्यावरण और प्रशासन की संवेदनहीनता उजागर

~ विकास के नाम पर विनाश का खेल

 

राजकुमार सोनकर

 

चंदौली। जनपद का चकिया क्षेत्र जो कभी अपनी हरियाली, पहाड़ियों और चंद्रप्रभा सेंचुरी के लिए जाना जाता था। आज धूल, धमाके और लालच के कोलाहल में बदल चुका है। सरकार पर्यावरण संरक्षण के दावे करती है, हरियाली बढ़ाओ के नारे लगते हैं, मगर जमीन पर हकीकत कुछ और है। सेंचुरी की सीमाओं के भीतर, जहां वन्यजीवों और दुर्लभ पेड़-पौधों की सुरक्षा की जिम्मेदारी वन विभाग पर है, वहीं पत्थर माफिया खुलेआम मशीनों से पहाड़ चीर रहे हैं। चकिया तहसील के शिकारगंज क्षेत्र की अलीपुर भगड़ा, गायघाट और गनेशपुर की पहाड़ियों में दिनदहाड़े अवैध खनन जारी है।

सेंचुरी के भीतर कानून का मखौल

चंद्रप्रभा वन्यजीव अभयारण्य उत्तर प्रदेश सरकार की अधिसूचित संरक्षित सीमा में आता है। यहां किसी भी प्रकार का खनन, पेड़ कटान या निर्माण कार्य वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 और पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 के तहत सख्त वर्जित है।
फिर भी अलीपुर भगड़ा से लेकर गायघाट और गनेशपुर तक रोजाना सुबह से शाम तक ट्रैक्टर, हथौड़े और मशीनें गूंजती हैं। स्थानीय सूत्रों के अनुसार, इस इलाके से रोजाना 20–25 ट्रैक्टर पत्थर बाहर निकलते हैं, जो न सिर्फ स्थानीय सड़कों को तबाह कर रहे हैं, बल्कि पूरे वन्यजीव आवास को भी उजाड़ रहे हैं। वन विभाग की ओर से कभी-कभार औपचारिक छापेमारी दिखाई जाती है, मगर वह महज दिखावा होता है। असल में, ये छापे उन्हीं इलाकों में किए जाते हैं जहां पहले से माफियाओं को सूचना दे दी जाती है। जब तक अधिकारी पहुंचते हैं, ट्रैक्टर गायब हो चुके होते हैं और कुछ फोटोग्राफरों को बुलाकर दिखाया जाता है हम कार्रवाई कर रहे हैं।

स्थानीय मिलीभगत छोटे अधिकारी, बड़े खेल

सूत्रों की मानें तो वनरक्षक से लेकर रेंज ऑफिसर तक की मिलीभगत के बिना यह कारोबार संभव नहीं है। प्रति ट्रैक्टर 500 से 1000 रुपए तक की वसूली। रात के खनन के लिए अलग ‘सुरक्षा शुल्क’ और प्रत्येक वाहन से मासिक वसूली। उचहरा गांव के निवासी लक्ष्मण मौर्य की दो ट्रैक्टरें लगातार इस खनन में लगी हुई बताई गई हैं। ग्रामीणों के अनुसार, जो पैसे नहीं देता, उसका ट्रैक्टर पकड़ लिया जाता है, जो हिस्सा देता है उसे छूट मिल जाती है। यानी कानून नहीं, रिश्वत का यहां चलन है।

वन विभाग की चुप्पी प्रशासन की अंधी नजर

चकिया और शिकारगंज इलाकों में यह खनन महीनों से चल रहा है, परंतु वन विभाग, तहसील प्रशासन और स्थानीय पुलिस तीनों आंख मूंदे बैठे हैं। चकिया तहसील में बैठे एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि ऊपर तक सबको पता है। रिपोर्ट जाती है, लेकिन कार्रवाई तभी होती है जब मीडिया में शोर मचता है या कोई नेता फोन करता है। इससे यह साफ होता है कि विभाग, माफिया और कुछ राजनीतिक लोगों के बीच पूरे सिस्टम में एक साइलेंट अंडरस्टैंडिंग है।

पर्यावरण का दोहन जल, जंगल, जमीन की तबाही

चंद्रप्रभा सेंचुरी नदी के तट, पहाड़ी ढलानों और घने जंगलों से घिरा है। यही इलाका तेंदुआ, नीलगाय, खरगोश, सियार और कई पक्षियों का प्राकृतिक आवास है। लगातार खनन से पहाड़ियां खोखली हो रही हैं, जलस्रोत सूख रहे हैं और मिट्टी की पकड़ कमजोर पड़ रही है। मानसून के दौरान इन कटे पहाड़ों से भूस्खलन की आशंका बनी रहती है। पर्यावरणविद् डॉ. संजय पांडे का कहना है कि वन विभाग खुद अपराधी बन गया है। सेंचुरी क्षेत्र में जब तक सख्त निगरानी और ड्रोन सर्वे नहीं होगा, तब तक खनन रुकेगा नहीं। यह केवल कानून का उल्लंघन नहीं, बल्कि पारिस्थितिकी तंत्र के लिए आत्मघाती कदम है।

राजनीतिक संरक्षण और स्थानीय गठजोड़

ग्रामीणों का कहना है कि यह पूरा खेल कुछ स्थानीय नेताओं और जनप्रतिनिधियों के संरक्षण में चलता है। पंचायत स्तर पर भी कई मुखिया, बीडीसी सदस्य इस खनन से हिस्सा लेते हैं। माफियाओं का नेटवर्क इतना मजबूत है कि कोई अधिकारी कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। पिछले साल जब एक रेंजर ने दो ट्रैक्टर पकड़े थे, तो उसी रात उसके ऊपर दबाव बनाकर वाहनों को छुड़ा लिया गया। अब वही अधिकारी ट्रांसफर का इंतजार कर रहा है।

जनता का आक्रोश हमारे पहाड़ बिक रहे

गांवों में लोगों में नाराजगी गहरी है। गायघाट के बुजुर्ग किसान जगदीश बिंद कहते हैं कि पहले इन पहाड़ियों पर हिरन और नीलगाय दिखते थे, अब बस धूल उड़ती है। सरकार को शर्म आनी चाहिए। पत्थर तोड़ने और ट्रैक्टरों की आवाज से दिन-रात शोर रहता है, खेतों में धूल जम जाती है, और पेयजल के स्रोत सूखते जा रहे हैं। सामाजिक कार्यकर्ता श्यामलाल चौबे ने कहा कि वन विभाग और जिला प्रशासन दोनों ने अपराधियों से हाथ मिला रखा है। यह अवैध खनन नहीं, प्रशासनिक लूट है।

सजा का प्रावधान, कार्रवाई शून्य

कानून के अनुसार, वन क्षेत्र में अवैध खनन करने पर सात वर्ष तक की सज़ा और जुर्माना हो सकता है।
लेकिन चकिया-शिकारगंज क्षेत्र में अब तक किसी बड़े माफिया पर ऐसी कार्रवाई नहीं हुई। जो छोटे चालक या मजदूर पकड़े जाते हैं, उन्हें हल्की धारा लगाकर छोड़ दिया जाता है। जिनके नाम से ट्रैक्टर चलते हैं, या जो बड़े ठेकेदार हैं वे आज भी खुले घूम रहे हैं।

प्रशासन के नाम पर ‘फाइल बंद’, कार्रवाई के नाम पर दिखावा

जब ‘अचूक संघर्ष’ ने इस मुद्दे पर जिलाधिकारी कार्यालय से प्रतिक्रिया चाही, तो जवाब मिला कि जांच कराई जाएगी। लेकिन यही ‘जांच कराई जाएगी’ वाला वाक्य उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा बचाव कवच बन चुका है।
मामला धीरे-धीरे फाइलों में समा जाता है और महीनों बाद रिपोर्ट अप्राप्त या कोई ठोस प्रमाण नहीं मिला कहकर बंद कर दिया जाता है। चकिया की यह सेंचुरी, जो कभी प्राकृतिक धरोहर थी, अब माफियाओं की खदान बन चुकी है। वन विभाग के अधिकारी संरक्षण देने की बजाय खुद इस खेल का हिस्सा बन चुके हैं।
राजनीति मौन है क्योंकि माफिया वोट बैंक में बदल चुका है। प्रशासन निष्क्रिय है क्योंकि ऊपर से निर्देश है शांति बनाए रखो, रिपोर्ट मत बनाओ। जब वन्य जीवों का घर लूटा जा रहा है, पहाड़ काटे जा रहे हैं, पर्यावरण के नाम पर सिर्फ भाषण हो रहे हैं, तो आखिर जनता किससे उम्मीद करे? चकिया की यह कहानी केवल एक क्षेत्र की नहीं, बल्कि पूरे उत्तर प्रदेश की सच्चाई का आईना है। जहां सिस्टम माफिया से हार चुका है, और विकास के नाम पर विनाश का ठेका चल रहा है।

  • सेंचुरी क्षेत्र में खनन पर कानूनी रोक फिर भी खुलेआम धंधा।
  • वन विभाग की मिलीभगत प्रति ट्रैक्टर रेट तय।
  • स्थानीय नेताओं का संरक्षण कार्रवाई का डर खत्म।
  • पर्यावरणीय खतरा, पहाड़ियों का क्षरण, जलस्रोत सूखने की आशंका।
  • प्रशासन का ढुलमुल रवैया जांच कराई जाएगी से आगे कुछ नहीं।
  • मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण स्थानीय अखबारों से लेकर राष्ट्रीय मंच तक मुद्दा उठाना जरूरी।
  • माफियाओं और अधिकारियों पर संयुक्त कार्रवाई आवश्यक

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