गौतम अडानी के दलान में मोदी सरकार का सलाम
देश को फिर गुलाम बनाने की तैयारी, ईस्ट इंडिया कंपनी से अडानी तक इतिहास खुद को दोहरा रहा

• बिहार में अडानी बिजली सौदा ईस्ट इंडिया कंपनी की याद दिलाता नया व्यापार साम्राज्य
• सरकारी वादे से निजी सौदे तक का सफर
• कांग्रेस का आरोप ‘बजट का वादा टूटा, ठेका अडानी ने लूटा’!
• ईस्ट इंडिया कंपनी से सीख न ली, इतिहास खुद को दोहराने की कगार पर
• जनता बनेगी फिर प्रजा, व्यापारी बनेंगे नए शासक
• निजीकरण की आंधी में लुटती प्राकृतिक संपदा
• लोकतंत्र का अर्थ अब सिर्फ उद्योगपतियों की आजादी!
• एनडीए सरकार का बिजली सौदा वादे से विश्वासघात
• ईस्ट इंडिया कंपनी जैसे लुभावने सपनों का जाल
• बिहार की जमीन, अडानी का साम्राज्य और जनता की कीमत
• लोकतंत्र से पूंजी तंत्र तक कौन बनेगा जवाबदेही
◆ अनुज कुमार
जब देश आजादी के 78 साल बाद भी नयी गुलामी की दहलीज पर खड़ा नजर आए, तो समझना चाहिए कि सत्ताधारी वर्ग ने सत्ता की ताकत जनता के लिए नहीं, बल्कि चंद उद्योगपतियों के लिए गिरवी रख दी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के करीबी माने जाने वाले उद्योगपति गौतम अडानी को बिहार में एक विशाल बिजली संयंत्र का ठेका सौंपना केवल एक कारोबारी फैसला नहीं है, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र को पूंजी की जंजीरों में जकड़ने की सबसे खतरनाक साजिश है। कांग्रेस का आरोप सही साबित होता है कि भाजपा सरकार ने बजट में जिस बिजली परियोजना को ‘सरकारी उपक्रम’ से लागू करने का वादा किया था, उसे पलटकर अडानी के हवाले कर दिया गया। जमीन, संयंत्र और बिजली बेचने का अधिकार सब एक निजी समूह के हाथ में! सवाल है कि यह देश की ऊर्जा सुरक्षा है या किसी एक पूंजीपति का साम्राज्य खड़ा करने की तैयारी।
- बजट 2025 में घोषणा थी कि बिहार में बिजली संयंत्र सरकार लगाएगी।
- अब परियोजना का ठेका, जमीन, और उत्पादन-बिक्री का अधिकार अडानी समूह को सौंपा गया।
- कांग्रेस का आरोप यह भ्रष्ट पूंजीवादी सौदा है, जिसमें जनता को धोखा दिया गया।
- आलोचक कह रहे सरकार हाथ खींच चुकी है, जिम्मेदारी पूरी तरह निजी पूंजी पर है।
- बिहार जैसे गरीब राज्य में बिजली संयंत्र का निजी हाथों में जाना, जनहित से खिलवाड़।
- ऊर्जा क्षेत्र में निजी एकाधिकार से बिजली महंगी होगी और जनता पर बोझ बढ़ेगा।
- इस सौदे को ईस्ट इंडिया कंपनी के दौर की याद से जोड़ा जा रहा है।
- विशेषज्ञों की चेतावनी भारत की प्राकृतिक संपदा और ऊर्जा सुरक्षा दांव पर।
- क्या यह आजादी के बाद की सबसे बड़ी आर्थिक गुलामी नहीं।
- जनता के हित की बजाय चंद उद्योगपतियों को बेशुमार फायदा दिलाने का आरोप।
सरकारी वादे से निजी सौदे तक का सफर
बजट 2025 में केंद्र सरकार ने बिहार में ऊर्जा आत्मनिर्भरता की दिशा में एक बड़े बिजली संयंत्र की घोषणा की थी। संसद में यह दावा किया गया कि यह परियोजना सरकारी क्षेत्र की कंपनियों के जरिए लागू की जाएगी ताकि आम जनता को सस्ती व स्थाई बिजली मिल सके। लेकिन कुछ ही महीनों बाद तस्वीर पूरी तरह बदल गई। सूत्र बताते हैं कि सरकार ने अचानक इस परियोजना से अपने हाथ खींच लिए और अडानी समूह को न केवल संयंत्र लगाने का ठेका दिया, बल्कि इसके लिए जमीन भी उपलब्ध कराई जा रही है। इतना ही नहीं, संयंत्र से उत्पादित बिजली बेचने का अधिकार भी सीधे अडानी समूह को सौंप दिया गया है। यह कदम केवल ठेका सौंपना नहीं, बल्कि पूरे ऊर्जा क्षेत्र को निजी हाथों में गिरवी रखने जैसा है।
बजट का वादा टूटा जनता से धोखा
कांग्रेस ने इस सौदे को सीधे-सीधे जनता से धोखा बताया है। पार्टी का कहना है कि बजट में जो वादा किया गया था, वह जनता के पैसे और विश्वास से खेल है। कांग्रेस प्रवक्ता ने तीखी प्रतिक्रिया में कहा कि सरकार ने जिस बिजली परियोजना को सरकारी उपक्रम से लागू करने की घोषणा की थी, उसे पलटकर अडानी समूह को दे दिया गया। यह लोकतंत्र नहीं, पूंजी तंत्र है। जनता को धोखा देकर भाजपा ने अपने उद्योगपति मित्रों की जेबें भरने का काम किया है। कांग्रेस ने यह भी आरोप लगाया कि भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार लगातार एक ही उद्योगपति घराने को ऊर्जा, बंदरगाह, हवाई अड्डे और अब बिजली क्षेत्र की परियोजनाएं सौंप रही है। इससे साफ है कि ‘मित्र पूंजीवाद’ भारतीय लोकतंत्र की नई परिभाषा बन चुका है।
इतिहास खुद को दोहराने की कगार पर
भारत के इतिहास में ईस्ट इंडिया कंपनी की दास्तान किसी से छिपी नहीं है। जब अंग्रेज व्यापारी भारत आए थे, तब उन्होंने व्यापार के बहाने सत्ता पर कब्जा कर लिया। राजाओं ने अपने निजी स्वार्थ और सैन्य मदद के लालच में उन्हें मनमानी छूट दी। जनता की गाढ़ी कमाई, प्राकृतिक संसाधन और श्रम सब उनके हाथों बिक गया।आज का परिदृश्य भयावह रूप से वैसा ही दिखता है। फर्क सिर्फ इतना है कि तब विदेशी व्यापारी थे, और अब देशी उद्योगपति। सरकारें उनकी कठपुतली बन चुकी हैं। बिजली जैसी मूलभूत सुविधा को निजी घरानों के हवाले करना उसी गुलामी की नई शुरुआत है। क्या हम आजादी के 78 साल बाद भी वही गलती दोहरा रहे हैं।
जनता बनेगी प्रजा, व्यापारी नए शासक
लोकतंत्र का सबसे बड़ा आधार जनता है। जनता टैक्स देती है ताकि सरकार उनके लिए स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली और बुनियादी सुविधाएं सुनिश्चित करे। लेकिन जब सरकार जिम्मेदारी से हाथ खींचकर यह सब निजी उद्योगपतियों को सौंप देती है, तो जनता नागरिक से फिर ‘प्रजा’ बन जाती है। निजी कंपनियां कभी भी लोकहित नहीं देखती, वे केवल मुनाफे का हिसाब देखती हैं। अडानी समूह को जब संयंत्र और बिजली बेचने का अधिकार मिल जाएगा, तो सबसे पहला असर जनता की जेब पर पड़ेगा। बिजली महंगी होगी, सब्सिडी खत्म होगी और गरीब तबका सबसे ज्यादा पिसेगा। किसान, छोटे उद्योग और मध्यमवर्गीय परिवार सभी बिजली दरों में बढ़ोतरी का खामियाजा भुगतेंगे।
निजीकरण की आंधी में लुटती प्राकृतिक संपदा
भारत के पास अभी भी कोयला, जल और ऊर्जा के स्रोत हैं जो राष्ट्रीय संपदा माने जाते हैं। इनका उपयोग जनता की भलाई के लिए होना चाहिए। लेकिन मौजूदा दौर में इन पर कब्जे की होड़ मची है। अडानी समूह पहले ही कोयला खदानों, बंदरगाहों और एयरपोर्ट्स पर कब्जा जमा चुका है। अब बिजली संयंत्र के जरिए ऊर्जा क्षेत्र पर भी उनका वर्चस्व बढ़ेगा। यह स्थिति खतरनाक है क्योंकि इससे एकाधिकार पैदा होता है। विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि इस तरह के एकाधिकार से न केवल जनता की जेब पर बोझ बढ़ेगा, बल्कि भारत की ऊर्जा सुरक्षा भी खतरे में पड़ जाएगी। अगर एक ही कंपनी के पास उत्पादन और वितरण का नियंत्रण होगा, तो वह अपनी मर्जी से कीमतें तय करेगी। इससे सरकार और जनता दोनों की निर्भरता बढ़ेगी और लोकतंत्र की जड़ें कमजोर होंगी।
लोकतंत्र का अर्थ अब सिर्फ उद्योगपतियों की आजादी
भारत का संविधान जनता को सर्वोच्च मानता है। लेकिन आज की सरकार की नीतियों से ऐसा प्रतीत होता है कि लोकतंत्र का मतलब अब सिर्फ उद्योगपतियों की आज़ादी है। जहां जनता को महंगाई, बेरोजगारी और सुविधाओं की कमी से जूझना पड़ रहा है, वहीं उद्योगपति लगातार समृद्ध होते जा रहे हैं। बिजली संयंत्र का यह सौदा सिर्फ एक उदाहरण है। रेलवे से लेकर एयरपोर्ट, बंदरगाह से लेकर दूरसंचार हर जगह निजीकरण का पहिया तेजी से घूम रहा है। यह पहिया जनता को कुचल रहा है और उद्योगपतियों को सिंहासन पर बैठा रहा है।
नई गुलामी की आहट
ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत को दो सौ साल तक गुलाम बनाए रखा। वह गुलामी तलवार और तोप से नहीं, बल्कि व्यापार और सौदों से आई थी। आज भी खतरा वैसा ही है। उद्योगपति और सरकार मिलकर ऐसे सौदे कर रहे हैं जिनमें जनता के लिए कुछ नहीं है। बिहार का यह बिजली संयंत्र सिर्फ एक परियोजना नहीं, बल्कि आने वाले समय की तस्वीर है। यह तस्वीर डरावनी है जहां जनता की जेब खाली होगी, उद्योगपतियों की तिजोरी भरेगी और सरकार तमाशबीन बनी रहेगी। देश को यह तय करना होगा कि लोकतंत्र का मतलब जनता की शक्ति है या पूंजीपतियों की तिजोरी। अगर जनता नहीं चेती, तो आने वाली पीढ़ियां पूछेंगी क्या 1947 की आजादी सिर्फ दिखावा थी। आजादी की लड़ाई इसलिए लड़ी गई थी ताकि देश के संसाधन जनता के हाथ में रहें, जनता को सस्ती सुविधाएं मिलें और शासन उनकी भलाई के लिए काम करे। लेकिन आज वही संसाधन, वही अधिकार और वही सुविधाएं फिर से कुछ चुनिंदा उद्योगपतियों के कब्जे में जाती दिख रही हैं। भागलपुर जिले के पीरपैंती में अडानी समूह को बिजली संयंत्र लगाने का जो ठेका मिला है, वह केवल एक औद्योगिक समझौता नहीं बल्कि भारत को नई गुलामी की तरफ धकेलने का खतरनाक कदम है। सरकार ने जनता के पैसे से जो काम खुद करना चाहिए था, उसे अडानी को सौंप दिया और अब इस सौदे को ‘विकास’ की चकाचौंध में पेश किया जा रहा है।
- 25 साल का अनुबंध: अडानी समूह और बिहार राज्य विद्युत उत्पादन कंपनी लिमिटेड के बीच बिजली आपूर्ति समझौता।
- भागलपुर जिले का पीरपैंती इलाका, जिसे कंपनी ‘ऊर्जाधानी’ बनाने का दावा कर रही है।
- लगभग 26,482 करोड़ rupye का निवेश
- 12 हजार लोगों के लिए प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रोजगार का दावा।
- 1020 एकड़ जमीन 30 साल की लीज पर, मात्र एक रुपए में।
- लगभग 10 लाख आम के पेड़ों की कटाई का खतरा।
- बिजली दर 6.75 रुपए प्रति यूनिट की पेशकश पर ठेका मिला।
- मोदीजी ने शिलान्यास किया, अगले चुनाव में वोट मांगने का हथियार बनेगा।
- यह सौदा एनडीए की बड़ी विफलता है, सरकार अपनी जिम्मेदारी से भाग रही है।
- सौदे की शैली ईस्ट इंडिया कंपनी की याद दिलाती है लुभावने सपने, राजाओं की तरह सरकारें और जनता की अनदेखी।
एनडीए सरकार का बिजली सौदा वादे से विश्वासघात
बिहार की जनता दशकों से बिजली संकट झेल रही है। राज्य के ग्रामीण इलाकों में अभी भी 18 से 20 घंटे की कटौती आम बात है। एनडीए सरकार ने बार-बार वादा किया कि बिजली आपूर्ति में सुधार होगा, लेकिन ज़मीनी हकीकत नहीं बदली। अब जब अडानी समूह को 25 साल का अनुबंध सौंपा गया, तो सवाल उठना लाज़िमी है कि जिस काम को सरकार खुद कर सकती थी, उसे निजी उद्योगपति को क्यों दिया गया? नीतीश कुमार 20 साल से बिहार की सत्ता में हैं और नरेन्द्र मोदी 11 साल से केंद्र में। दोनों मिलकर बिहार के लिए एक भी सरकारी बिजली संयंत्र क्यों नहीं लगा सके? आखिर जनता के टैक्स का पैसा किस काम आता है, अगर बुनियादी ज़रूरतों जैसे बिजली के लिए भी जनता को पूंजीपतियों पर निर्भर रहना पड़े। यह सौदा बताता है कि भाजपा और एनडीए की सरकार जनता से किए वादे तोड़ने और पूंजीपतियों की तिजोरियां भरने में माहिर है।
ईस्ट इंडिया कंपनी जैसे लुभावने सपनों का जाल
अडानी समूह का दावा है कि इस परियोजना से बिहार की किस्मत बदल जाएगी। रोजगार मिलेगा, उद्योग फलेगा, राज्य की छवि निवेश-अनुकूल बनेगी। यह वही जाल है, जिसमें कभी ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय राजाओं को फंसाया था। तब भी लुभावने सपने दिखाए गए थे। व्यापार होगा, विकास होगा, राज्य की समृद्धि बढ़ेगी। लेकिन नतीजा क्या हुआ भारतीय संसाधन अंग्रेजों के कब्जे में चले गए और देश दो सौ साल गुलाम बना रहा। आज वही तस्वीर एक बार फिर उभर रही है। फर्क सिर्फ इतना है कि उस दौर में विदेशी व्यापारी थे, इस दौर में घरेलू पूंजीपति।
बिहार की जमीन, अडानी का साम्राज्य और जनता की कीमत
सबसे बड़ा सवाल है जमीन का। 1020 एकड़ जमीन 30 साल की लीज पर अडानी को सौंप दी गई है, वो भी मात्र एक रुपए में। सरकार ने इसे ‘बंजर’ घोषित कर दिया, जबकि रिपोर्टें बताती हैं कि इस जमीन पर आम और लीची के बाग हैं। कहा जा रहा है कि संयंत्र के लिए करीब 10 लाख आम के पेड़ काटे जाएंगे। याद कीजिए छत्तीसगढ़ का हसदेव अरण्य, जहां अडानी के लिए जंगल काटा गया। असम में भी सीमेंट परियोजना के लिए जमीन कौड़ियों के भाव दी गई। अब वही स्क्रिप्ट बिहार में दोहराई जा रही है। प्राकृतिक संपदा और पर्यावरण का खून करके उद्योगपतियों का साम्राज्य खड़ा किया जा रहा है।
लोकतंत्र से पूंजी तंत्र तक कौन करेगा जवाबदेही
यह केवल एक बिजली संयंत्र की कहानी नहीं है। यह उस सोच की कहानी है, जिसमें लोकतंत्र को बंधक बनाकर पूंजीपतियों की आजादी को सर्वोपरि मान लिया गया है। बिजली उत्पादन और वितरण जैसे बुनियादी क्षेत्रों में निजी एकाधिकार खतरनाक है। अगर अडानी समूह चाहे, तो वह अपनी मर्जी से दरें तय कर सकता है। 6.75 रुपए प्रति यूनिट की दर पर जब यह अनुबंध मिला, तो भविष्य में महंगाई और बोझ का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। विपक्ष का कहना सही है कि भाजपा और उसका मीडिया इस सौदे को बड़ी उपलब्धि बताकर प्रचारित कर रहे हैं, जबकि यह सरकार की सबसे बड़ी विफलता है। जनता को बिजली देना सरकार का कर्तव्य है, चुनावी हथियार नहीं। जब सरकारें अपने कर्तव्यों से भागकर जनता को पूंजीपतियों के भरोसे छोड़ दें, तो यह लोकतंत्र नहीं, गुलामी का नया रूप है।आज जिन लोगों को लग रहा है कि यह ‘विकास’ है, उन्हें याद रखना चाहिए कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी शुरुआत विकास के सपनों से की थी। नतीजा था दो सौ साल की गुलामी। आने वाली पीढ़ियां यही कहेंगी कि 1947 की आजादी अधूरी थी, और 2025 में हमने अपनी आंखों से दूसरी गुलामी की नींव रख दी।




