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सत्ता का मुखौटा और हिंदुत्व की असली तलवार, मोहन भागवत कर देंगे देश की अस्मिता को तार- तार

मोदी की सत्ता बनाम भागवत की सत्ता से परे महत्वाकांक्षा, संघ की शताब्दी और मोदी की मजबूरियां

◆ अचूक संघर्ष डेस्क


  • मार्गदर्शक मंडल’ से निकाले गए चेहरे फिर लौटे मंच पर
  • मोदी की तारीफ, भागवत की चुप्पी : सत्ता संतुलन का संकेत
  • राहुल गांधी की चेतावनी और भागवत का खौफ
  • मोदी का झुकता सिर, भागवत का छप्पन इंच का सीना

 

देश को आज यह समझना होगा कि असली ख़तरा नरेंद्र मोदी की सत्ता की भूख से नहीं, बल्कि मोहन भागवत की दूरगामी हिंदुत्व-रणनीति से है। मोदी का खेल ‘व्यक्तिगत सत्ता’ की कुर्सी तक सीमित है, जबकि भागवत का सपना है राष्ट्र की आत्मा को बदल देना। प्रधानमंत्री का झुकता सिर और संघ प्रमुख का तना हुआ सीना इस बात का संकेत है कि अब सत्ता के खेल में असली ‘कमांडर’ कौन है। सवाल यह नहीं कि मोदी कितने दिन और रहेंगे, बल्कि यह है कि भागवत आने वाले दशकों तक क्या-क्या बदल देंगे।

मोदी का झुकता सिर, भागवत का छप्पन इंच का सीना

* मोदी की महत्वाकांक्षा व्यक्तिगत सत्ता तक सीमित, भागवत की रणनीति हिंदू राष्ट्र की स्थाई स्थापना तक फैली।
* संघ की शताब्दी वर्ष शाखाओं की संख्या 60,000 से बढ़ाकर 1,00,000 करने का लक्ष्य।
* राहुल गांधी की आशंका सच साबित होती हुई, संघ हर संस्था में घुसपैठ कर चुका है।
* मुरली मनोहर जोशी को सम्मान और पुराने चेहरों की वापसी मोदी को घेरने की तैयारी।
* मोदी का संघ पर बार-बार नतमस्तक होना और भागवत का मोदी को अनदेखा करना सत्ता का बदलता संतुलन।
* 2029 से पहले संघ का इरादा पूर्ण विस्तार और नियंत्रण, चाहे सत्ता बीजेपी के हाथ में रहे या न रहे।
* असली डर मोदी के हारने में नहीं, बल्कि भागवत की रणनीति के सफल होने में है।
* जो तस्वीर बन रही है, वह एक अस्थाई सीजफायर है, लेकिन आने वाला संघर्ष और बड़ा होगा।

मोदी बनाम भागवत सत्ता का द्वंद्व या साझा सौदा

देश में आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि जनता को किससे ज्यादा सतर्क रहना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत से। सतही तौर पर यह सवाल अजीब लग सकता है, क्योंकि आम जनता मोदी को ही चेहरा मानती है। पर असलियत यह है कि मोदी का खेल तात्कालिक सत्ता की भूख तक सीमित है, जबकि भागवत का खेल बहुत गहरा और दीर्घकालिक है। मोदी का लक्ष्य 2029 तक सत्ता पर टिके रहने का है, लेकिन भागवत का लक्ष्य आने वाली पीढ़ियों तक भारत के राजनीतिक सामाजिक ढांचे को पूरी तरह ‘हिंदुत्व’ के रंग में रंग देना है। यही फर्क देश के लिए सबसे बड़ा खतरा है।

संघ की शताब्दी : विस्तार का महासंकल्प

संघ अपने शताब्दी वर्ष (2025–2026) को महज उत्सव नहीं, बल्कि शक्ति-प्रदर्शन और विस्तार का अवसर मान रहा है। योजना है कि देशभर में शाखाओं की संख्या को 60,000 से बढ़ाकर एक लाख कर दिया जाए। यह कोई साधारण विस्तार नहीं, बल्कि उस ‘कैडर-आर्मी’ का निर्माण है जो राजनीति, नौकरशाही, शिक्षा, न्यायपालिका और मीडिया सभी में पैठ बना सके। भागवत जानते हैं कि मोदी का नेतृत्व स्थाई नहीं है। अगर सत्ता हाथ से फिसल भी जाए, तो संघ का नेटवर्क कायम रहना चाहिए। यही कारण है कि भागवत की ऊर्जा अब मोदी को मजबूत करने में नहीं, बल्कि संगठन को अजेय बनाने में लग रही है।

400 सीटों का सपना टूटा, बदल गई दिशा

2024 के लोकसभा चुनावों से पहले मोदी और शाह ने ‘400 पार’ का नारा दिया था। अगर यह सपना पूरा हो जाता, तो मोदी संघ पर भी अपनी पकड़ मजबूत कर लेते। लेकिन वास्तविकता में यह न हो सका। नतीजतन, सत्ता का समीकरण बदल गया। अब संघ समझ चुका है कि मोदी पर हमेशा भरोसा नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने सीधा विस्तार और स्वतंत्र रणनीति की ओर बढ़ना शुरू कर दिया है। यही वजह है कि मोदी आज भागवत के सामने नतमस्तक हैं, क्योंकि वह जानते हैं कि बिना संघ की मदद के उनका राजनीतिक अस्तित्व कमजोर हो सकता है।

भागवत का नया दांव हर संस्था में संघ

राहुल गांधी ने कई बार कहा है कि संघ की रणनीति है देश की हर संस्था में प्रवेश करना और उसे नियंत्रित करना। न्यायपालिका, सेना, नौकरशाही, शिक्षा संस्थान, विश्वविद्यालय, मीडिया कहीं भी संघ की छाया से अब इंकार नहीं किया जा सकता। भागवत की प्राथमिकता यह है कि अगर 2029 में बीजेपी सत्ता से बाहर भी हो जाए, तो भी इन संस्थाओं पर संघ का दबदबा बना रहे। यही वह दीर्घकालिक खतरा है जिससे जनता और लोकतंत्र को डरना चाहिए।

पुराने चेहरे लौटे मंच पर मोदी के खिलाफ मौन विद्रोह

दिल्ली की एक संगोष्ठी में मोहन भागवत ने मुरली मनोहर जोशी को सम्मान दिया। यह घटना मामूली नहीं है। यह उन तमाम चेहरों की वापसी का संकेत है जिन्हें मोदी-शाह ने ‘मार्गदर्शक मंडल’ बनाकर दरकिनार कर दिया था। संघ अब ऐसे ही पुराने नेताओं को फिर से सामने लाकर यह संदेश दे रहा है कि मोदी की ‘वन मैन शो’ राजनीति को वह स्वीकार नहीं करेगा। यह सीधा-सीधा दबाव है मोदी पर, कि वह संघ की लाइन पर ही चलें।

मोदी की तारीफ बनाम भागवत की चुप्पी

मोहन भागवत के 75 वें जन्मदिन पर नरेंद्र मोदी ने लेख लिखकर तारीफों के पुल बांध दिए। यह लेख देश के तमाम अखबारों में ‘अनिवार्य’ रूप से छपा। लेकिन जब मोदी का जन्मदिन आया, तो भागवत की ओर से वही उत्साह नहीं दिखा। यह घटना सत्ता संतुलन का प्रतीक है। मोदी बार-बार झुक रहे हैं, भागवत उतना ही तना हुआ खड़े हैं। संघ के भीतर यह संदेश साफ है कि अब निर्णायक शक्ति भागवत के हाथों में है।

राहुल गांधी की चेतावनी और भागवत की बेचैनी

राहुल गांधी ने बार-बार कहा है कि अगर बीजेपी सत्ता से बाहर भी हो जाए, तो संघ के कारण लोकतंत्र सुरक्षित नहीं रहेगा। भागवत को भी इस बात का अंदेशा है। इसलिए वह चाहते हैं कि शताब्दी वर्ष तक संघ का विस्तार हर हाल में पूरा हो। भागवत जानते हैं कि अगर केंद्र की सत्ता हाथ से निकल गई और संघ का नेटवर्क मजबूत नहीं रहा, तो उसका अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। यही डर उन्हें और आक्रामक बना रहा है।

मोदी बनाम भागवत अस्थाई सीजफायर

जो तस्वीर आज दिखाई पड़ रही है, वह दोनों के बीच एक अस्थाई ‘सीजफायर’ है। मोदी सत्ता बचाने के लिए संघ पर निर्भर हैं, और भागवत अपने विस्तार के लिए मोदी को उपयोग कर रहे हैं। लेकिन इतिहास गवाह है कि न तो मोदी अपमान भूलते हैं, न भागवत। दोनों के बीच का सम्मान सिर्फ रणनीतिक है। असली संघर्ष अभी बाकी है।

मोदी को असली खतरा भागवत की रणनीति से

मोदी के असफल रक्षात्मक टोटके जनता को डराते हैं, लेकिन भागवत की आक्रामक और सफल होती रणनीतियां कहीं ज्यादा खतरनाक हैं। मोदी का सत्ता-खेल 2029 तक सिमटा है, जबकि भागवत का हिंदुत्व-खेल 2129 तक भी चल सकता है। इसलिए देश को यह समझना होगा कि डर मोदी से नहीं, बल्कि भागवत से होना चाहिए। मोदी की हार लोकतंत्र को बचा सकती है, लेकिन भागवत की जीत लोकतंत्र की आत्मा को बदल देगी।

मोदी की सत्ता बनाम भागवत की महत्वाकांक्षा

देश में इस समय सबसे बड़ा और निर्णायक सवाल यह है कि आम जनता को किससे ज़्यादा चिंतित होना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत से है। पहली नजर में लगता है कि यह सवाल बेमानी है। वजह साफ है मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं, सत्ता की सारी चाभियां उनके हाथ में हैं, जनता की निगाहों में वे ही देश की किस्मत तय करने वाले सबसे बड़े शख्स हैं। परंतु गहराई से देखें तो तस्वीर कुछ और ही बयान करती है। मोदी की महत्वाकांक्षा और भागवत की महत्वाकांक्षा में बुनियादी फर्क है। मोदी का सपना सत्ता पर टिके रहना है, चाहे इसके लिए उन्हें किसी भी हद तक जाना पड़े। वे नीतियों को बदलते हैं, घोषणाओं को उलटते हैं, और हर बार अपनी छवि को चुनावी लाभ के हिसाब से ढालते हैं। उनका लक्ष्य तात्कालिक है। आज चुनाव जीतना, कल सत्ता पर काबिज रहना और अपने विरोधियों को नेस्तनाबूद करना। भागवत की महत्वाकांक्षा इन सबसे आगे है। उनका सपना केवल चुनावी जीत या प्रधानमंत्री की कुर्सी नहीं है। वे एक हिंदू राष्ट्र की नींव डालना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि भारत का सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक ढांचा स्थाई रूप से हिंदुत्व की विचारधारा में ढल जाए। यह महत्वाकांक्षा व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामूहिक है, अस्थाई नहीं, बल्कि स्थाई है।

मोदी की व्यक्तिगत सत्ता बनाम भागवत का ‘मिशन हिंदुत्व’

नरेंद्र मोदी की राजनीति उनके संघी अतीत से निकलकर एक ‘ब्रांड मोदी’ की छवि गढ़ने में समर्पित रही है। प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने अपनी पहचान संघ से ऊपर और स्वतंत्र बनाने की कोशिश की। यही कारण था कि उन्होंने सरकार में अपने को ‘सर्वोच्च’ साबित करने के लिए बार-बार ऐसे कदम उठाए जिनसे लगे कि संघ केवल पृष्ठभूमि है, असली चेहरा वे स्वयं हैं। लेकिन संघ और भागवत की सोच इस सीमा से कहीं आगे जाती है। संघ की परियोजना दशकों और पीढ़ियों के लिए होती है। चुनाव जीतना या हारना उनके लिए एक पड़ाव है, मंज़िल नहीं। भागवत की नज़र केवल इस पर नहीं है कि मोदी 2029 तक प्रधानमंत्री रहेंगे या नहीं। उनकी चिंता यह है कि 2129 में जब संघ अपनी दूसरी शताब्दी मना रहा होगा, तब भारत कैसा होगा, क्या वह पूरी तरह ‘हिंदू राष्ट्र’ बन चुका होगा। यही कारण है कि जहां मोदी की राजनीति एक व्यक्ति-केन्द्रित ‘वन मैन शो’ है, वहीं भागवत की राजनीति एक विचार-केन्द्रित सामूहिक परियोजना है।

सत्ता बनाम संगठन कौन किस पर भारी

मोदी सत्ता पर काबिज हैं, पर संघ संगठन पर। सत्ता पांच साल, दस साल, या अधिक से अधिक पंद्रह साल का खेल है। संगठन पीढ़ियों तक चलता है। मोदी की सबसे बड़ी मजबूरी यही है कि उन्हें चुनाव लड़ना है, जनमत का सामना करना है, हार-जीत के उतार-चढ़ाव से गुजरना है। भागवत को इसकी चिंता नहीं है। संघ सीधे सत्ता की राजनीति में नहीं उतरता, पर हर सत्ता पर उसका प्रभाव बना रहता है। आज की स्थिति में मोदी सत्ता के लिए भागवत पर निर्भर हैं। बिना संघ के नेटवर्क के मोदी की चुनावी मशीनरी खोखली हो जाएगी। वहीं भागवत के लिए मोदी महज एक चेहरा हैं, जिसे जरूरत पड़ने पर बदला भी जा सकता है। मोदी का अस्तित्व चुनावी परिणामों पर निर्भर है, पर संघ का अस्तित्व उससे कहीं आगे और गहरा है।

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