देश-विदेश

निजी कंपनी के हाथ मे सरकारी डेटा की कमान, मोदी, शाह ने रच दिया सरकारी सिस्टम बर्बाद करने का प्लान

सरकारी ईमेल अब प्राइवेट सर्वर पर! जोहो के ‘स्वदेशी’ पर्दे के पीछे छिपा डिजिटल खतरा

 

● सरकार ने लगभग 12 लाख कर्मचारियों के ई-मेल सरकारी एनआईसी से जोहो प्लेटफॉर्म पर माइग्रेट किए

● जोहो का दावा भारत में विकसित, भारत से संचालित, डेटा भी भारत में लेकिन जनता में विश्वास नहीं

● क्या खर्चा सही दिशा में हो रहा है वित्तीय तुलना एनआईसी के रख-रखाव व जोहो को भुगतान

● सुरक्षा का मुद्दा प्राइवेट कंपनी को संवेदनशील सरकारी डेटा देना कितना सुरक्षित

● राजनीति, नियुक्तियां और स्वदेशी का नारा या हितों का टकराव

● कर्मचारियों व नागरिकों की निजता, कानूनी, तकनीकी और नैतिकता पर प्रश्नचिन्ह

● पूरी तरह सरकारी समाधान संभव है क्या

● स्वदेशी का अर्थ, जवाबदेही का अर्थ व आम नागरिकों की भूमिका

 

पंचशील अमित मौर्या

मोदी सरकार ने बड़ी चुप्पी के साथ एक बड़ा तकनीकी फैसला ले लिया है। अब प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर गृहमंत्रालय, विदेश मंत्रालय और दर्जनों केंद्रीय विभागों के सरकारी ईमेल अकाउंट्स का डेटा अब सरकारी नहीं, बल्कि एक निजी कंपनी जोहो कॉरपोरेशन के सर्वर पर स्टोर होगा। नाम अभी भी वही gov.in और nic.in मगर डेटा की आत्मा अब किसी और के सर्वर पर सांस ले रही है। सरकार इसे स्वदेशी तकनीक बताकर महिमा मंडित कर रही है, लेकिन सवाल यह है कि क्या यह स्वदेशी है या सुविधाजनक मिलीभगत ? क्या देश की संवेदनशील जानकारियां अब किसी निजी कारोबारी के हाथों में सौंप दी गई हैं, और क्या यह सुरक्षा के लिए बम से कम नहीं?

सरकारी डेटा की चाबी अब प्राइवेट हाथों में

अब तक मोदी सरकार के सभी मंत्रालयों के ईमेल खाते नेशनल इंफॉर्मेशन सेंटर के सर्वर पर चलते थे।
यह वही एनआईसी है जिसने पिछले चार दशकों में भारत सरकार का डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा किया। एनआईसी पूर्णतः सरकारी इकाई है, गृह मंत्रालय के अधीन आती है, और इसे देश के साइबर सिक्योरिटी की रीढ़ माना जाता रहा है। लेकिन अब सरकार ने लगभग 12 लाख ईमेल अकाउंट्स को एनआईसी से उठाकर जोहो के सर्वर पर डाल दिया है। बिना किसी सार्वजनिक घोषणा, बिना संसद में बहस और बिना राष्ट्रीय सुरक्षा सलाह की पारदर्शी प्रक्रिया के। सरकार कहती है कि जोहो स्वदेशी है परन्तु प्रश्न यह है कि क्या सरकारी डेटा किसी भी निजी कंपनी को सौंपना सुरक्षा दृष्टि से सही है। यह फैसला न सिर्फ तकनीकी है, बल्कि राजनीतिक भी क्योंकि अब संवेदनशील जानकारी का नियंत्रण एक प्राइवेट कॉरपोरेट इकाई के पास चला गया है।

एनआईसी से जोहो तक एक रहस्यमई ट्रांसफर

यह ट्रांसफर अचानक नहीं हुआ। पिछले एक साल से गुपचुप तरीके से सरकारी विभागों के ईमेल जोहो के प्लेटफार्म पर माइग्रेट किए जा रहे थे। ईमेल एड्रेस वही रहे ताकि किसी को फर्क न लगे लेकिन बैक एण्ड में सर्वर बदल दिया गया। अब जब कोई सरकारी अफसर @nic.in से मेल भेजता है, तो डेटा वास्तव में जोहो के सर्वर पर प्रोसेस और स्टोर होता है। यानी दिखता सरकारी, चलता निजी। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे किसी सरकारी दफ्तर का बोर्ड तो भारत सरकार का हो, मगर किराया किसी प्राइवेट कंपनी को जा रहा हो।

1600 करोड़ की ईमेल डील जनता के टैक्स से प्राइवेट प्रॉफिट तक

एक सरकारी कर्मचारी का ईमेल मेंटेन करने का औसत खर्च 1600 करोड़ सालाना बताया जा रहा है। केंद्र सरकार के करीब 33 लाख कर्मचारी हैं। इसका मतलब यह कि सरकार हर साल लगभग 1,600 करोड़ सिर्फ ईमेल सर्विसेज पर खर्च करेगी और यह पैसा अब एनआईसी को नहीं, बल्कि जोहो जैसी प्राइवेट कंपनी को जाएगा। अगर यही पैसा एनआईसी के इंफ्रास्ट्रक्चर को अपग्रेड करने में लगता तो भारत के पास अपना सबसे शक्तिशाली, सुरक्षित, और सरकारी क्लाउड प्लेटफॉर्म होता है। जो हमेशा के लिए स्वदेशी रहता है।
मगर यहां उल्टा हो गया सरकार ने अपने ही डिजिटल घर की नींव किसी और को किराए पर दे दी।

स्वदेशी के नाम पर कारोबार

सरकार ने इसे आत्मनिर्भर भारत और मेक इन इंडिया का हिस्सा बताया है। जोहो कंपनी खुद को भारत में बनी, भारत के डेटा को भारत में रखने वाली कंपनी बताती है। जब एनआईसी पहले से ही भारत सरकार के अधीन, भारत में ही डेटा रखने वाला, और पूर्णतः स्वदेशी संस्थान था। तो फिर उसे कमजोर कर, एक निजी कंपनी को क्यों चुना गया।

श्रीधर वेंबू सत्ता, सुरक्षा और सांठगांठ का सूत्र

जोहो के संस्थापक श्रीधर वेंबू को अब टेक्नोलॉजी के राष्ट्रीय नायक के रूप में पेश किया जा रहा है। लेकिन यह भी सच है कि वेंबू की नजदीकी सत्ता के गलियारों से गहरी है। वे अजीत डोभाल की नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजरी बोर्ड में सदस्य रहे हैं। यूजीसी में भी उनकी नियुक्ति की गई, और भाजपा की एवीबीपी और आरएसएस के मंचों पर वे बार-बार राष्ट्रवाद की व्याख्या करते नजर आए हैं। अब वही व्यक्ति, जिसके हाथ में सरकार का डेटा सर्वर है, सत्ता के करीबी सर्कल में शामिल है। क्या यह हितों का टकराव नहीं और विडंबना यह कि अजीत डोभाल के बेटे विदेशों में रहते हैं, विदेशी नागरिकता रखते हैं, और फिर भी देश की सबसे बड़ी सुरक्षा सलाहकार व्यवस्था उन्हीं के परिवार के इर्द-गिर्द घूम रही है।

गृहमंत्री से ऊपर कौन सत्ता संतुलन का बिगड़ता समीकरण

यह पूरा मामला गृहमंत्रालय की निगरानी से जुड़ा है।
एनआईसी भी गृह मंत्रालय के अधीन आता है, जो अंततः गृहमंत्री अमित शाह को रिपोर्ट करता है।
लेकिन यह फैसला किस स्तर पर लिया गया। इसका स्पष्ट जवाब न मंत्रालय ने दिया, न प्रधानमंत्री कार्यालय ने। कहीं ऐसा तो नहीं कि अब गृहमंत्री से भी ऊपर एक और शक्ति-केंद्र बन गया है। जो डिजिटल सिस्टम, सुरक्षा ढांचे और नीति निर्णयों पर छाया है। भारत जैसे लोकतंत्र में कोई भी व्यक्ति या समूह गृहमंत्री से ज्यादा शक्तिशाली नहीं होना चाहिए। लेकिन यह ट्रांसफर बताता है कि सत्ता का असली रिमोट अब तकनीकी कंपनियों के पास पहुंच रहा है।

डेटा सुरक्षा या डिजिटल जासूसी

जोहो का दावा है कि उसका डेटा भारत के अंदर स्टोर होता है। लेकिन क्या सरकार ने यह जांचा कि एन्क्रिप्शन की किसके पास है। सरकार के पास डेटा का पूर्ण नियंत्रण है, या कंपनी के पास बैकडोर एक्सेस बचा हुआ है। अगर कल किसी वजह से कंपनी सरकार से विवाद में आ जाए, या किसी विदेशी साझेदारी में फंस जाए, तो क्या भारत के लाखों सरकारी ईमेल की सुरक्षा खतरे में नहीं होगी। यह सिर्फ तकनीकी सवाल नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा है। ई-मेल में प्रधानमंत्री, गृह सचिव, रक्षा मंत्रालय या खुफिया एजेंसियों की बातें होती हैं। अगर ये बातें किसी बाहरी सर्वर से होकर गुजरती है, तो यह देश की डिजिटल संप्रभुता पर सीधा हमला है।

जनता के टैक्स का हिसाब कौन देगा

हर साल 1600 करोड़ रुपए यानी जनता के टैक्स का पैसा एक निजी कंपनी को सिर्फ इसलिए दिया जा रहा है कि वह सरकार के ई-मेल संभाले। यह रकम उतनी ही है जितनी से एक नया एनआईसी डेटा सेंटर, आधुनिक साइबर सुरक्षा सिस्टम और क्लाउड सर्विस एक बार में खड़ा किया जा सकता है। जोहो को हर साल देने का मतलब है कि सरकार ने स्थाई समाधान छोड़कर स्थाई खर्च चुन लिया है और अंत में, यह बोझ कौन चुकाएगा।
आप, हम अपने जीएसटी, आयकर और पेट्रोल पर टैक्स देकर। ई-मेल सर्वर एनआईसी से हटाकर जोहो को सौंपा गया सुरक्षा की दृष्टि से किसका नियंत्रण है। स्वदेशी तर्क जोहो को मेड इन इंडिया बताकर औचित्य ठहराया गया। जब कि एनआईसी पहले से स्वदेशी था, तो बदलाव क्यों। खर्च का बोझ1600 करोड़ रुपए सालाना से जनता को क्या लाभ। राजनीतिक नजदीकी श्रीधर वेंबू की आरएसएस-एबीवीपी से निकटता क्या हितों का टकराव नहीं। गृह मंत्रालय की भूमिका एनआईसी गृह मंत्रालय के अधीन तो निर्णय किसने लिया। डेटा सुरक्षा जोहो पर डेटा स्टोर, एनक्रिप्शन अनिश्चित क्या यह राष्ट्रीय सुरक्षा जोखिम नहीं।

लोकतंत्र के डेटा की डोर किसके हाथ में

यह मुद्दा भाजपा या कांग्रेस का नहीं यह राष्ट्र की डिजिटल आत्मनिर्भरता और सुरक्षा का मुद्दा है। एक ओर सरकार जनता से वोकल फॉर लोकल का आह्वान करती है और दूसरी ओर उसी जनता की सरकारी जानकारी एक निजी कंपनी के सर्वर पर भेज देती है। यह आत्मनिर्भर भारत नहीं, बल्कि आश्रित शासन है जहां निर्णय स्वदेशी नहीं है। डिजिटल इंडिया की सफलता तब तक अधूरी रहेगी जब तक उसका सर्वर और उसकी आत्मा दोनों सरकारी नियंत्रण में न हों।

  • सरकार का चुपचाप बड़ा फैसला बिना संसद में बहस और जनता को जानकारी दिए, केंद्र सरकार ने लगभग 12 लाख सरकारी ईमेल खातों को एनआईसी से हटाकर जोहो कॉरपोरेशन को सौंपा।
  • नाम सरकारी, नियंत्रण निजी ई-मेल अभी भी @nic.in और @gov.in दिखते हैं, मगर डेटा अब सरकारी चेहरा, कॉरपोरेट कलेजा बन गया है।
  • एनआईसी की रीढ़ तोड़ने की साजिश जिसने चार दशकों तक देश का डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर बनाया, उसी एनआईसी को दरकिनार कर दिया गया।
  • 1600 करोड़ रुपए की ‘स्वदेशी’ डील या मुनाफे का खेल
  • ‘स्वदेशी’ शब्द की आड़ में ‘सुविधाजनक सौदा’ जोहो को ‘भारत में बनी कंपनी’ बताकर राष्ट्रवाद की चादर ओढ़ाई जा रही है।
  • श्रीधर वेंबू और सत्ता के गलियारे जोहो के संस्थापक श्रीधर वेंबू न केवल सत्ता के करीबी हैं, बल्कि नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजरी बोर्ड के सदस्य भी रह चुके हैं।
  • गृह मंत्रालय के ऊपर नई ताकत एनआईसी गृह मंत्रालय के अधीन, फिर फैसला कहां हुआ।
  • डेटा सुरक्षा या डिजिटल जासूसी क्या सरकार के ई-मेल का एन्क्रिप्शन की-कोड जोहो के पास।
  • टैक्स देने वाला नागरिक यह जानने का हक रखता है कि उसके पैसों से किसके सर्वर को मुनाफा मिल रहा है।
  • सरकार ने अपने ही सिस्टम को ठेके पर दे दिया।
  • पारदर्शिता और जवाबदेही लुप्त जनता से छिपाकर लिया गया निर्णय।
  • एनआईसी का आधुनिकीकरण, सरकारी साइबर सुरक्षा ढांचे को मजबूत करना और डेटा सर्वर का पूर्ण स्वामित्व भारत सरकार के पास रखना ही स्वदेशी रास्ता है।
  • डिजिटल इंडिया बनाम डिजिटल निर्भरता जब तक सरकारी सर्वर सरकार के नियंत्रण में नहीं, तब तक डिजिटल इंडिया सिर्फ डिजिटल आउटसोर्सिंग।

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