आई लव मोहम्मद बनाम आई लव महादेव, सबके अपने इष्ट सब पूजे अपने अपने देव
मूर्खताओं का बाजार और सियासत की मौज, आस्था को नारे और नफरत में बदला

~ धर्म नहीं, दिखावा बन गई आस्था
~ ‘आई लव मोहम्मद’ बनाम ‘आई लव महाकाल’ असल मकसद क्या है?
~ नारे के पीछे छिपी नफरत की राजनीति
~ मूर्खता की फैक्ट्री जहां अंधभक्ति की थोक बिक्री होती है!
~ साम्प्रदायिकता की स्क्रिप्ट, जिसे सत्ता लिखती है
~ धर्मगुरु या दलाल कौन चला रहा है नफरत की अर्थव्यवस्था?
~ उम्मीद बाकी समाज के भीतर की रोशनी अभी जिंदा
~ विविधता में एकता की रक्षा ही असली देशभक्ति
◆ नैमिष प्रताप सिंह
भारत में मूर्खता अब व्यक्तिगत कमजोरी नहीं रही, यह एक संगठित विचारधारा का रूप ले चुकी है। आजकल जो जितनी ऊंची आवाज में नफरत का नारा लगाता है, वही सबसे बड़ा ‘देशभक्त’ और ‘धर्मरक्षक’ कहलाता है। धर्म की आत्मा मर चुकी है, और उसके शव पर सियासत का नाच जारी है। आई लव मोहम्मद और आई लव महाकाल जैसे सुंदर वाक्य भी अब श्रद्धा के प्रतीक नहीं रहे। वे अब उकसावे और नफरत की नई भाषा बन गए हैं। धर्म का जो भाव भीतर की शांति, संयम और करुणा से उपजता है, उसे आज भीड़ के शोर और नारों की ध्वनि ने निगल लिया है। अब मंदिर-मस्जिद की दीवारों पर लिखी आस्था सड़क पर माइक और झंडे में बदल गई है। जो नारे कभी प्रेम का प्रतीक थे, वे अब उन्माद के हथियार हैं। कोई आई लव मोहम्मद की तख्ती लेकर नाच रहा है, तो कोई आई लव महाकाल के बैनर के नीचे बंदरों की तरह कूद रहा है। दोनों ही सोचते हैं कि वे धर्म की सेवा कर रहे हैं, जबकि दरअसल वे धर्म का अपमान कर रहे होते हैं। यह दौर भक्ति का नहीं, प्रदर्शन की बीमारी का है। नारे अब साधना नहीं, बल्कि सियासत का औजार हैं। भीड़ में शामिल व्यक्ति यह नहीं जानता कि उसके हाथ में जो झंडा है, वह असल में किसी नेता की कुर्सी बचाने का औजार है। यह मूर्खता नहीं, तो और क्या है कि लोग अपने धर्म के नाम पर ही अपने समाज और देश को कमजोर कर रहे हैं। फिर भी उम्मीद बाकी है क्योंकि इस अंधे उन्माद के बीच आज भी ऐसे लोग हैं जो जानते हैं कि मोहम्मद का मतलब ‘अमन’ है और महादेव का अर्थ ‘कल्याण’। जो समझते हैं कि धर्मों का असली संदेश प्रेम, सत्य और करुणा है, न कि घृणा और विभाजन। यही लोग इस देश की रीढ़ हैं, और जब तक वे हैं, भारत की आत्मा मरेगी नहीं।
धर्म नहीं, दिखावा बन गई आस्था
भारत में धर्म हमेशा से आत्मा की गहराई से जुड़ा विषय रहा है। यह प्रेम, करुणा, संयम और सहिष्णुता की शिक्षा देता आया है। पर आज धर्म नहीं, बल्कि धर्म का प्रदर्शन एक नई सामाजिक बीमारी बन चुका है। जो व्यक्ति जितना ज़्यादा अपनी ‘आस्था’ को दिखाता है, समाज उसे उतना ही ‘श्रद्धालु’ मानने लगा है। यह प्रवृत्ति खतरनाक है, क्योंकि धर्म का सार भीतर की शांति में है, बाहर की शोर में नहीं। आई लव मोहम्मद या “आई लव महाकाल” का विचार अगर भीतर की भक्ति से निकले तो वह सुंदर है, लेकिन जब वही नारा सड़कों पर बैनर और माइक बनकर दूसरे धर्म के लोगों को उकसाने लगे, तो वह भक्ति नहीं भ्रष्ट आस्था है। और यही आज का सबसे बड़ा संकट है भक्ति का बाजारवाद और मूर्खता का महोत्सव।
‘आई लव मोहम्मद’ बनाम ‘आई लव महाकाल’ असल मकसद क्या?
किसी भी धर्म में प्रेम का विरोध नहीं, पर प्रेम के नाम पर उन्माद फैलाना निश्चित ही अपराध है। जब आई लव मोहम्मद लिखने वाला किसी और के आराध्य पर छींटे उछालने लगे, और आई लव महाकाल वाला किसी और धर्मस्थल के बाहर शक्ति प्रदर्शन करने लगे तो सवाल उठना लाजमी है कि यह प्रेम है या नफरत की प्रतियोगिता। इन नारों के पीछे अक्सर धार्मिक भावना नहीं, बल्कि राजनीतिक मंसूबे होते हैं। स्थानीय चुनाव से लेकर लोकसभा तक, हर जगह भीड़ को भावनात्मक रूप से उकसाने की जरूरत होती है और धर्म इसका सबसे आसान हथियार है। नतीजा यह होता है कि सड़क पर उतरने वाले नौजवान, जो खुद को धर्म का सिपाही समझते हैं, असल में राजनीति के मोहरे बन चुके होते हैं।
नारे के पीछे छिपी नफरत की राजनीति
आज जो जय श्रीराम के नाम पर जुलूस निकाल रहा है, वही कल अल्लाहु अकबर के जवाब में ईंट उठा लेता है। इन नारों का अपराध यह नहीं कि वे धार्मिक हैं, बल्कि यह कि उन्हें राजनीतिक हथियार बना दिया गया है। राजनीति ने धर्म को बांट दिया है, हिंदू-मुसलमान की खाई गहरी होती जा रही है। ये नारे अब पहचान के प्रतीक नहीं, बल्कि डर का औजार बन गए हैं।
राजनीतिक दलों के लिए यह ‘मुद्दा’ है, जिसे हर चुनाव से पहले गरम किया जाता है। वही टीवी चैनल जो रोज देश में शांति की बात करते हैं, वही अगले घंटे धर्म के अपमान का डिबेट चलाकर आग में घी डालते हैं।
यह सब संगठित मूर्खता का खेल है जिसमें जनता खिलौना बन चुकी है।
मूर्खता की फैक्ट्री जहां अंधभक्ति की थोक बिक्री होती है
आज सोशल मीडिया मूर्खताओं की सबसे बड़ी फैक्ट्री बन चुका है। हर दिन सैकड़ों व्हाट्सएप ग्रुपों में मंदिर खतरे में है, इस्लाम पर हमला हिंदू खतरे में हैं जैसी फर्जी बातें भेजी जाती हैं। ये संदेश न सिर्फ झूठ फैलाते हैं, बल्कि सोचने की क्षमता छीन लेते हैं। लोग बिना तथ्यों को जांचे, सिर्फ अपने धर्म या जाति के नाम पर हिंसक हो जाते हैं। जो लोग यह मूर्खता फैलाते हैं, वे जानते हैं कि जनता को धर्म के नाम पर बेवकूफ बनाना सबसे आसान है। अंधभक्ति और भीड़ की मानसिकता के इस दौर में सवाल पूछना गुनाह और सहमति से असहमति जताना देशद्रोह बन गया है। मूर्खता का यह नया संस्करण सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के लबादे में छिपा है। जबकि असल में यह नफरत की सियासत है।
साम्प्रदायिकता की स्क्रिप्ट, जिसे सत्ता लिखती
उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिक तनाव कोई आकस्मिक घटना नहीं है, यह एक सुनियोजित स्क्रिप्ट का हिस्सा है।
हर बार चुनाव आते ही कहीं लव जिहाद, कहीं गौहत्या, कहीं रामनवमी जुलूस या मुस्लिम ताजिया के नाम पर हिंसा भड़कती है। सवाल यह नहीं कि ये घटनाएं क्यों होती हैं, बल्कि यह कि हर बार एक ही समय पर क्यों होती हैं। सत्ता को मूर्ख जनता चाहिए जो सोचने की जगह सिर्फ नारा लगाए। क्योंकि सोचने वाला सवाल पूछता है, और सवाल पूछने वाला हर युग में सत्ताधारी का दुश्मन होता है। यही कारण है कि सरकारें जनता को शिक्षित नहीं, उन्मादी बनाना चाहती हैं।
धर्मगुरु या दलाल कौन चला रहा है नफरत की अर्थव्यवस्था को
धर्म के नाम पर आज जो सबसे बड़ा व्यापार चल रहा है, वह है नफरत की अर्थव्यवस्था। धर्मगुरु अब साधक नहीं, ब्रांड एंबेसडर बन चुके हैं। जिनके भक्त उनकी हर मूर्खता को आस्था बताकर तर्क से ऊपर रख देते हैं।
मंदिर-मस्जिद अब आध्यात्मिक केंद्र नहीं, राजनीतिक ठिकाने बन गए हैं। जहां भीड़ जुटती है, वहीं सियासत और धंधा दोनों खिलते हैं। यह धंधा बहुत बड़ा है करोड़ों का चंदा, अरबों की जमीनें, और अनगिनत अंधभक्त।
ऐसे में जो व्यक्ति शांति की बात करता है, वह कमजोर, गद्दार या छद्म धर्मनिरपेक्ष करार दे दिया जाता है।इसलिए अब धर्म नहीं, धर्म की दलाली सबसे लाभदायक कारोबार बन चुकी है।
उम्मीद बाकी है समाज के भीतर की रोशनी अब भी जिंदा है
इसके बावजूद भारत पूरी तरह अंधकार में नहीं डूबा है।
हर धर्म में ऐसे लोग हैं जो अपने मर्म को समझते हैं।
जो जानते हैं कि इस्लाम का मतलब अमन है, और हिन्दू धर्म का सार सत्य-अहिंसा में है। ये लोग सड़कों पर नहीं, बल्कि अपने जीवन में इन मूल्यों को जीते हैं। गांवों कस्बों में, स्कूलों में, और मोहल्लों में आज भी भाईचारा जिंदा है। लोग एक-दूसरे के त्योहार मनाते हैं, रोजमर्रा की मुश्किलें साझा करते हैं, और राजनीति की गंदगी से ऊपर उठकर इंसानियत को बचाए रखते हैं। यही लोग इस देश की असली रीढ़ हैं जिनके दम पर भारत अब तक टूटने से बचा है।
विविधता में एकता की रक्षा ही असली देशभक्ति
सच्ची देशभक्ति यह नहीं कि आप ऊंची आवाज में जय श्रीराम या अल्लाहु अकबर बोलें। सच्ची देशभक्ति यह है कि आप अपने पड़ोसी के धर्म, विश्वास और अस्तित्व का सम्मान करें। भारत का संविधान इसी विचार पर बना है विविधता में एकता। जो इसे तोड़ने की कोशिश करता है, वह चाहे किसी भी धर्म का हो, वह सिर्फ मूर्ख नहीं, राष्ट्रद्रोही है। समाज के लिए सबसे बड़ा खतरा वे लोग हैं, जो अपने धर्म के नाम पर दूसरे की निंदा करते हैं। वे न तो धार्मिक हैं, न देशभक्त, वे बस मूर्खता और नफरत के सौदागर हैं।
- धर्म अब साधना नहीं, सत्ता का औजार बना
- आई लव मोहम्मद और आई लव महाकाल जैसे नारे अब प्रेम नहीं, राजनीति का मुखौटा
- सोशल मीडिया नफरत फैलाने की सबसे बड़ी फैक्ट्री बनी
- साम्प्रदायिकता की घटनाएं भड़काई जाती हैं योजनाबद्ध रूप से
- धर्मगुरु और राजनेता नफरत की अर्थव्यवस्था के साझेदार
- अंधभक्ति ने विवेक को कुचल दिया
- फिर भी समाज में शांति और भाईचारा कायम रखने वाले लोग उम्मीद की किरण बने
- असली देशभक्ति विविधता की रक्षा और एकता की भावना में



