देश विदेश

धनखड़ का स्वास्थ्य कारण से इस्तीफा महज एक बहाना,पूर्व उपराष्ट्रपति पर मोदी जी ने साध दिया “अचूक निशाना”

भाजपा सांसद नड्डा ने तोड़ीं सभी संसदीय मर्यादाएं: सभापति का मौन, सत्ता का दबाव, इस्तीफे का वक्त संदेहास्पद

~ उपसभापति हरिवंश के कार्यकाल से तुलना

~ ‘मोदी है तो मुमकिन है’ की प्रयोगशाला में संवैधानिक मर्यादा की बलि’

~ राष्ट्रपति को भेजा इस्तीफ़ा, धन्यवाद के साथ खामोशी भी

~ क्या अगला उपराष्ट्रपति ‘पूरी तरह आज्ञाकारी’ होगा!

 

पंचशील अमित मौर्या

संसद के मानसून सत्र की शुरुआत जिस तरह संवैधानिक मर्यादाओं की धज्जियां उड़ाते हुए हुई और उसके कुछ ही घंटे बाद देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का अचानक इस्तीफा आया, वह केवल एक स्वास्थ्य कारण नहीं, बल्कि सत्ता की अंदरूनी खींचतान और ‘मोदी है तो मुमकिन है’ की अंधभक्ति का स्पष्ट प्रमाण बनकर उभरा है। सवाल यह नहीं कि उपराष्ट्रपति बीमार थे, सवाल यह है कि बीमारी का स्मरण उन्हें ठीक उसी दिन क्यों हुआ, जिस दिन राज्यसभा में खुला आसंदी का अपमान हुआ। राज्यसभा की कार्यवाही के दौरान भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने उपराष्ट्रपति-सभापति की आसंदी पर बैठे जगदीप धनखड़ की उपस्थिति को दरकिनार करते हुए कहा, जो मैं बोलूंगा वही रिकॉर्ड में जाएगा, यह न केवल विपक्ष का अपमान था, बल्कि आसंदी की संवैधानिक प्रतिष्ठा को भी रौंदने जैसा था। धनखड़ ने तत्काल इस अभूतपूर्व और असंवैधानिक टिप्पणी पर आपत्ति तक नहीं जताई। इससे सवाल उठता है कि क्या वे स्वयं दबाव में थे और यही मौन, उनके इस्तीफे का असली कारण बना। जब विपक्षी सांसदों ने गत कार्यकाल में विरोध प्रदर्शन किया था तो उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह ने तत्काल उन्हें निलंबित कर दिया था। लेकिन सत्ता पक्ष के सांसद द्वारा सभापति की उपेक्षा पर कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं हुई। यह दोहरे मापदंड का स्पष्ट उदाहरण है। धनखड़ ने इस्तीफे में स्वास्थ्य का हवाला दिया, पर सवाल यह है कि जब वे मार्च के बाद से लगातार सक्रिय थे, तो सत्र के पहले ही दिन अचानक उनका इस्तीफा देना किसी राजनीतिक पटकथा का हिस्सा प्रतीत होता है।भाजपा का यह नारा अब केवल चुनावी जुमला नहीं रह गया है, बल्कि सत्ता में बैठे लोग इसे संवैधानिक संस्थाओं की धज्जियां उड़ाने के औजार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। धनखड़ के इस्तीफे की टाइमिंग इसी का नमूना है। धनखड़ ने राष्ट्रपति को भेजे अपने पत्र में प्रधानमंत्री और सरकार का आभार जताया लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया कि भाजपा अध्यक्ष द्वारा राज्यसभा में की गई अमर्यादित टिप्पणी पर उनकी निजी या संवैधानिक प्रतिक्रिया क्या थी।

विपक्षी दलों ने जताई आशंका

हालांकि कई विपक्षी नेताओं ने इस इस्तीफे को ‘संवैधानिक अवमानना पर पर्दा डालने का तरीका’ करार दिया है। उनका मानना है कि धनखड़ को ससम्मान बाहर का रास्ता दिखाया गया ताकि संसद की गरिमा की धज्जियों पर सवाल न उठें। अब निगाहें इस पर टिकी हैं कि मोदी सरकार किसे अगला उपराष्ट्रपति और राज्यसभा का सभापति बनाती है। क्या यह पद अब केवल सत्ता की कठपुतली बन कर रह जाएगा या संविधान का मर्म लौटेगा।

* संसद के मानसून सत्र के पहले दिन राज्यसभा में भाजपा अध्यक्ष जे.पी.नड्डा ने सभापति की उपेक्षा करते हुए विपक्ष को धमकाया।
* उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने उसी रात अचानक अपने पद से इस्तीफा दे दिया
* इस्तीफ़े का कारण स्वास्थ्य बताया गया लेकिन वक्त और घटनाक्रम ने खड़े किए कई गंभीर सवाल
* भाजपा की सत्ता शैली पर फिर उठा सवाल। * संवैधानिक पद भी अब ‘आज्ञाकारिता’ की परीक्षा से गुजरेंगे
* ‘मोदी है तो मुमकिन है’ का मतलब अब संस्थाओं का मुंह बंद करना
* उपराष्ट्रपति से ‘न्यायोचित मौन’ की अपेक्षा की जा रही थी। उन्होंने मौन स्वीकार नहीं किया
* नई नियुक्ति के लिए तैयारी तेज, लेकिन यह पद अब निष्पक्ष नहीं, सत्ता के हिसाब से परिभाषित होगा

17वीं लोकसभा का आखिरी मानसून सत्र सोमवार को उस वक्त एक अभूतपूर्व राजनीतिक मोड़ ले बैठा, जब राज्यसभा की कार्यवाही के दौरान भाजपा अध्यक्ष जे.पी.नड्डा ने न केवल विपक्षी दलों को खुलेआम चेताया, बल्कि राज्यसभा के सभापति और देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की मौजूदगी और मर्यादा की भी परवाह नहीं की। दोपहर को यह घटना चर्चा में रही, लेकिन रात के अंधेरे में जो खबर आई, उसने पूरे संवैधानिक ढांचे को झकझोर दिया। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने अपने पद से तत्काल प्रभाव से इस्तीफा दे दिया। उनके इस्तीफे का कारण ‘स्वास्थ्य’ बताया गया, लेकिन राजनीति में वक्त का गणित बहुत कुछ कहता है। यही कारण है कि न केवल विपक्ष, बल्कि संवैधानिक विशेषज्ञ, मीडिया और यहां तक कि सत्ता पक्ष के कुछ जानकार भी इस घटनाक्रम को ‘महज स्वास्थ्य से जुड़ी बात’ मानने को तैयार नहीं हैं।

नड्डा का ‘रिकॉर्ड’ बयान लोकतंत्र का अनरिकॉर्डेड अपमान

सोमवार दोपहर करीब 12 बजे राज्यसभा की कार्यवाही के दौरान एक अप्रत्याशित क्षण आया, जब भाजपा अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद जे.पी. नड्डा ने विपक्ष को सीधा ललकारते हुए कहा कि आप लोग जो बोलेंगे वो रिकॉर्ड में नहीं जाएगा। केवल मैं जो बोलूंगा, वही रिकॉर्ड में जाएगा। ये आपको मालूम होना चाहिए। यह टिप्पणी उस समय की गई जब सभापति धनखड़ स्वयं आसंदी पर मौजूद थे। एक सांसद द्वारा इस प्रकार संसद की कार्यवाही के नियम और गरिमा को तोड़ना ही गंभीर बात है, लेकिन उससे भी बड़ी चिंता का विषय यह था कि खुद सभापति ने इस टिप्पणी पर न तो कोई आपत्ति दर्ज की, न ही तत्काल हस्तक्षेप किया। संवैधानिक विशेषज्ञों का मानना है कि यह न केवल अनुशासनहीनता थी, बल्कि संवैधानिक पद की खुली अवमानना भी थी। इससे भी अधिक हैरानी तब हुई जब विपक्ष की ओर से इस टिप्पणी पर तीव्र प्रतिक्रिया आई, लेकिन सत्तापक्ष चुप रहा।

…और फिर आया इस्तीफा बीमारी बहाना या राजनीतिक दबाव

उसी रात, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को भेजे अपने इस्तीफे में लिखा ‘सेहत की देखभाल को महत्व देने और डॉक्टरी सलाह का पालन करने के लिए, मैं भारत के उपराष्ट्रपति के पद से तत्काल प्रभाव से इस्तीफा देता हूं। धनखड़ ने अपने पत्र में प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और पूरे देश के प्रति आभार प्रकट किया, लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया कि उसी दिन दोपहर हुई राज्यसभा की घटना के प्रति उनका दृष्टिकोण क्या था। उन्हें लगा कि उनकी संवैधानिक हैसियत की अवहेलना की जा रही है। वे स्वयं इस बात से आहत हुए कि उनके रहते एक सांसद ने आसंदी की गरिमा की धज्जियां उड़ाईं।

धनखड़ का इतिहास सत्ता के करीब, लेकिन गरिमा के प्रति सचेत

धनखड़ को उपराष्ट्रपति पद पर लाने का फैसला खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लिया था। वे पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रह चुके हैं और ममता बनर्जी से उनकी टकराहट चर्चा में रही। उन्हें ‘कठोर प्रशासक’ और भाजपा समर्थक माना जाता रहा, लेकिन उपराष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने अपेक्षाकृत संतुलित और गरिमामयी भूमिका निभाई। राज्यसभा की कार्यवाही के दौरान वे विपक्ष को सुनते भी रहे और सत्तापक्ष से अनुशासन की अपेक्षा भी करते रहे। कई बार उन्होंने भाजपा सदस्यों की बात को भी नियमों के तहत रोका, जिसे सत्ता के कुछ रणनीतिकारों ने ‘स्वतंत्र रुख’ मान लिया था। ऐसा माना जाता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय को यह रुख ज्यादा पसंद नहीं आया।

हरिवंश बनाम धनखड़ दो दृष्टिकोण, एक संस्था

ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि जब पिछले कार्यकाल में विपक्षी सांसदों ने विरोध प्रदर्शन किया था, तब उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह ने तत्काल उन्हें निलंबित कर दिया था। लेकिन जे.पी. नड्डा जैसे वरिष्ठ सांसद द्वारा की गई टिप्पणी के खिलाफ कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही नहीं की गई। क्या इसका अर्थ यह निकाला जाए कि कार्यवाही की गंभीरता सत्तापक्ष या विपक्ष के आधार पर तय होती है?

इस्तीफा नहीं, संवैधानिक हत्या

कांग्रेस, तृणमूल, आप, डीएमके समेत कई दलों ने इस पूरे घटनाक्रम को ‘सत्ता की संवैधानिक संस्थाओं पर कब्ज़े की रणनीति’ करार दिया। कांग्रेस प्रवक्ता जयराम रमेश ने ट्वीट किया।

धनखड़ जी का इस्तीफा केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि लोकतंत्र की संस्थाओं पर हो रहे नियंत्रण का नया अध्याय है। तृणमूल सांसद डेरेक ओ ब्रायन ने कहा जब कोई भी सत्ता के विरुद्ध थोड़ा भी खड़ा होता है, वह किनारे कर दिया जाता है। धनखड़ का मौन बिक नहीं पाया, इसलिए उन्हें हटना पड़ा।

अगला उपराष्ट्रपति सत्ता के लिए आज्ञाकारी चेहरा

अब सभी की निगाहें इस पर हैं कि भाजपा किसे अगला उपराष्ट्रपति बनाती है। क्या वह व्यक्ति पूरी तरह सत्ता की बात मानने वाला होगा। राज्यसभा अब विपक्ष को केवल ‘सूचना’ सुनाने का मंच बनकर रह जाएगी। यह सवाल इसलिए ज़रूरी हो गया है क्योंकि धनखड़ जैसे ‘अपेक्षाकृत स्वतंत्र’ उपराष्ट्रपति का हटना यह संकेत देता है कि भाजपा अब किसी भी संवैधानिक पद पर ‘पूर्ण नियंत्रण’ चाहती है।

संविधान के साथ प्रयोग सिर्फ ‘जुमले’ ही नहीं, ‘यथार्थ’

मोदी है तो मुमकिन है का नारा अब सिर्फ जनता को रिझाने का साधन नहीं रहा। यह अब उन संस्थाओं में भी घुसपैठ कर चुका है जो लोकतंत्र की रीढ़ मानी जाती हैं। संसद, न्यायपालिका, मीडिया और अब उपराष्ट्रपति जैसे पद भी इस प्रयोगशाला में शामिल कर लिए गए हैं। यदि संसद की कार्यवाही में सभापति की उपेक्षा कर एक सांसद स्वयं तय करेगा कि क्या रिकॉर्ड होगा, और अगर उसी दिन उपराष्ट्रपति इस्तीफ़ा दे दें, तो इसे केवल संयोग मान लेना लोकतांत्रिक मूर्खता होगी।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button