पत्रकारिता का कत्ल: पत्रकारों की लाश पर बजता ‘गोडसे-गान’, कातिलों के हाथों में मुल्क की कमान ?
कंचन सिंह

~ उत्तराखंड में स्वतंत्र पत्रकार राजीव प्रताप की संदिग्ध मौत ने फिर खोली शासन की पोल
~ बस्तर से उत्तराखंड तक पत्रकारों का गायब होना और फिर हत्या ‘नई परंपरा’ बन गई
~ पत्रकारिता का सच लिखने वालों के लिए अब सिर्फ कब्र है, बाकी सबके लिए ‘प्राइम टाइम’
~ ‘सेलिब्रिटी पत्रकारिता’ के शोर में दब रही असली रिपोर्टिंग और उसका सच
~ वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 151वें पायदान पर लोकतंत्र के लिए शर्मनाक सर्टिफिकेट
~ विज्ञापनों की चापलूसी से चमकते स्टूडियो, मौत के साए में जीते जमीनी पत्रकार
~ साल में औसतन 2-3 पत्रकारों की हत्या आंकड़ा जस का तस, सत्ता की संवेदना शून्य
~ लोकतंत्र की चौथी ताकत को सरकार ने बना दिया दलाली का चौकीदार
भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहने वालों के लिए यह सबसे बड़ा तमाचा है कि यहां पत्रकारिता करना अब मौत को न्यौता देने जैसा हो गया है। राजीव प्रताप की लाश सिर्फ एक पत्रकार की मौत नहीं, लोकतंत्र की असलियत का शव है। यह हत्या कोई पहली नहीं, और अफ़सोस कि आख़िरी भी नहीं होगी। साल-दर-साल औसतन दो से तीन पत्रकार मारे जाते हैं, और यह काला सच हर प्रेस स्वतंत्रता रिपोर्ट में दर्ज होकर दुनिया के सामने भारत का नकाब उतार देता है। भारत में पत्रकारिता का संकट अब किसी ‘विचार-विमर्श’ का विषय नहीं रहा, बल्कि यह जिंदा लोकतंत्र की कब्र पर लिखा हुआ शिलालेख है। उत्तराखंड के स्वतंत्र पत्रकार राजीव प्रताप की रहस्यमयी मौत ने एक बार फिर इस सवाल को जिंदा कर दिया है कि आखिर इस देश में सच बोलने और लिखने की कीमत जान से चुकानी क्यों पड़ रही है।
राजीव प्रताप की मौत एक पैटर्न की पुनरावृत्ति
राजीव प्रताप 18 सितंबर की रात घर से निकले और फिर कभी वापस नहीं लौटे। दस दिन बाद उनकी लाश एक बैराज में मिली। कार में उनकी चप्पलें थीं, शरीर पर अंदरूनी चोटें थीं, पर बाहर कोई निशान नहीं। उनकी पत्नी का बयान साफ़ है कि जिला अस्पताल की बदहाली पर रिपोर्ट प्रकाशित करने के बाद उन्हें धमकियां मिल रही थीं। सवाल यह है कि क्या भारत में भ्रष्टाचार और कुव्यवस्था पर रिपोर्ट लिखना अब ‘आत्महत्या का निमंत्रण’ बन गया है। यह पहली बार नहीं है। छत्तीसगढ़ के बस्तर में पत्रकार मुकेश चंद्राकर ने 120 करोड़ रुपए की सड़क निर्माण परियोजना में घोटाले की रिपोर्ट लिखी थी। उनकी लाश एक ठेकेदार के घर के सेप्टिक टैंक से मिली। यह पैटर्न साफ है कि पहले पत्रकार को गायब करो, फिर उसकी हत्या कर दो, और बाद में पुलिसिया लीपापोती शुरू हो जाती है।
लोकतंत्र की चौथी ताकत या चौकीदारी
आज भारतीय पत्रकारिता दो हिस्सों में बंटी दिखाई देती है। एक ओर हैं ‘सेलिब्रिटी पत्रकार’ जो अब सितारों की तरह जीते हैं। करोड़ों का पैकेज, महंगी गाड़ियां, विदेश यात्राएं, सत्ता के दरबार में सम्मान। ये लोग सरकार के प्रवक्ता की तरह व्यवहार करते हैं। उनके शो में महंगाई, बेरोजगारी, भूख, स्वास्थ्य, शिक्षा, किसान या मजदूरों की समस्याओं का कोई जिक्र नहीं होता। उनके लिए खबर वही है जो सत्ता की स्क्रिप्ट में पहले से लिखी होती है। दूसरी तरफ हैं वे पत्रकार, जिन्हें कहा जा सकता है कि ‘लोकतंत्र के अनाम सिपाही।’ ये जमीनी सच लिखते हैं, सरकार से सवाल करते हैं, घोटालों का पर्दाफाश करते हैं और फिर या तो मारे जाते हैं, जेल में ठूंसे जाते हैं, या पुलिस के डर में जीते हैं।
प्रेस फ्रीडम इंडेक्स लोकतंत्र का आईना
2025 के वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत 151वें स्थान पर है। यह स्थिति किसी एक साल की नहीं है। 2014 के बाद से लगातार भारत की स्थिति गिरती गई है। रिपोर्ट साफ़ कहती है कि भारत ‘अनौपचारिक आपातकाल’ की स्थिति में है। मीडिया का बड़ा हिस्सा कॉर्पोरेट घरानों और सत्ता के गठजोड़ के हाथों बंधक बन चुका है। 70 से अधिक मीडिया संस्थान अंबानी अडानी के हाथ में। विविधता का नामोनिशान मिट चुका है। प्रधानमंत्री प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं करते। सवाल पूछने का अधिकार खत्म कर दिया गया है। यह कोई आरोप नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय संस्था की आधिकारिक रिपोर्ट है। इसमें दर्ज है कि भारत में हर साल औसतन 2-3 पत्रकार अपनी रिपोर्टिंग की वजह से मारे जाते हैं।
पत्रकारिता बनाम सत्ता ‘सत्य की सजा मौत’
पत्रकारिता का मूल काम है सत्ता से सवाल करना। लेकिन आज हालत यह है कि जो पत्रकार सत्ता की चाटुकारिता नहीं करते, उनके खिलाफ ईडी, सीबीआई, आईटी, गैरकानूनी गतिविधियां अधिनियम जैसे हथियार चला दिए जाते हैं। जिन पत्रकारों ने यूट्यूब या सोशल मीडिया पर स्वतंत्र आवाज उठाने की कोशिश की, उन्हें आर्थिक अपराधों के मामलों में फंसा दिया गया। इस दौरान ‘स्टूडियो एंकरों’ की सेना सरकार की ढाल बनकर खड़ी हो गई। उनकी भाषा और भाजपा प्रवक्ताओं की भाषा में कोई फर्क नहीं रह गया। नतीजा यह है कि जनता के सामने असली मुद्दों की जगह हिंदू-मुस्लिम, पाकिस्तान, राष्ट्रवाद, और काल्पनिक दुश्मन पर बहस होती रहती है।
राहुल गांधी की प्रतिक्रिया और विपक्ष की भूमिका
राजीव प्रताप की मौत पर राहुल गांधी ने साफ लिखा कि ईमानदार पत्रकारिता आज भय और असुरक्षा में जी रही है। जो सच लिखते हैं, उन्हें धमकियों और हिंसा से चुप कराया जा रहा है। क्या सिर्फ बयानबाजी से हालात बदलेंगे? विपक्ष जब तक पत्रकारिता की सुरक्षा को अपनी प्राथमिक राजनीतिक मांग नहीं बनाता, तब तक साल-दर-साल पत्रकार मरते रहेंगे और सरकार ‘जांच बैठाने’ का नाटक करती रहेगी।
मौत और डर का आंकड़ा
- बस्तर में मुकेश चंद्राकर हत्या।
- उत्तराखंड में राजीव प्रताप संदिग्ध मौत।
- कश्मीर, बिहार, यूपी, मध्यप्रदेश में हर साल स्थानीय पत्रकार मारे जाते हैं।
- भारत दुनिया के उन देशों में शामिल है जहां पत्रकारिता सबसे खतरनाक है।
यह सब कोई संयोग नहीं है। यह एक संगठित ढांचा है जो लोकतंत्र की आवाज़ को कुचलने के लिए काम कर रहा है। सरकार बार-बार भारत को ‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ कहती है। लेकिन सच यह है कि यहां लोकतंत्र की चौथी ताकत को व्यवस्थित तरीके से खत्म किया जा रहा है। जनता को मनोरंजन और फरेब में फंसाकर असली मुद्दों से भटकाया जा रहा है। पत्रकार की हत्या दरअसल लोकतंत्र की हत्या है। लेकिन यह हत्या अब ‘न्यू नॉर्मल’ बन चुकी है।
- राजीव प्रताप की मौत पत्रकारिता पर हमला, कोई सामान्य घटना नहीं।
- पत्रकारों की हत्या का पैटर्न पहले गायब करो, फिर मारे जाओ।
- सेलिब्रिटी पत्रकार सत्ता के लिए काम करते हैं, असली पत्रकार मौत के मुहाने पर जीते हैं।
- 2025 प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत 151वें स्थान पर लोकतंत्र के लिए शर्मनाक।
- हर साल औसतन 2-3 पत्रकारों की हत्या। यह आंकड़ा वर्षों से जस का तस।
- सत्ता से सवाल पूछना अपराध बन चुका है।
- कॉर्पोरेट और सत्ता का गठजोड़ मीडिया को बंधक बना चुका है।
- पत्रकारिता बचाना ही लोकतंत्र बचाना है।
सच बोलना आज सबसे बड़ा अपराध
भारत में लोकतंत्र की सांसें पत्रकारों के सीने से जुड़ी हैं। जब एक-एक पत्रकार मारा जाता है, तब लोकतंत्र का एक हिस्सा दफन होता है। उत्तराखंड में राजीव प्रताप की हत्या हो या बस्तर में मुकेश चंद्राकर की, यह घटनाएं बताती हैं कि सच बोलना आज सबसे बड़ा अपराध है।
वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स का 151वां स्थान कोई ‘विदेशी साजिश’ नहीं, बल्कि भारत की सच्चाई है। और यह सच्चाई डराती है कि यहां पत्रकारिता का भविष्य मौत और जेल के बीच झूल रहा है। क्या भारत अपने लोकतंत्र को बचाने के लिए पत्रकारिता की आजादी बचा पाएगा? या फिर साल में औसतन 2-3 पत्रकारों की हत्या का यह आंकड़ा हमेशा के लिए हमारी लोकतांत्रिक आत्मा पर लिखा जाएगा।




