मासूम मौतें, बेफिक्र सरकार! दवा के नाम पर पिलाया जहर, निकम्मी हो चुकी है डबल इंजन की सरकार
नैमिष प्रताप सिंह

◆ इलाज नहीं, जहर पिलाया और शासन सोता रहा
◆ तमिलनाडु की फैक्ट्री से बच्चों की कब्र तक श्रीसन फार्मास्युटिकल्स
◆ दिल्ली की चुप्पी दवा उद्योग पर सत्ता का साया
◆ बच्चों की मौत के बाद जागी सरकार कार्रवाई का नाटक शुरू
◆ गोरखपुर में ऑक्सीजन कांड से लेकर अब तक नहीं बदला सत्ता का रवैया
◆ मीडिया की खामोशी सत्ता की सबसे बड़ी ढाल
◆ ‘परीक्षा पर चर्चा’ करने वाले प्रधानमंत्री बच्चों की मौत पर खामोश क्यों?
◆ कफ सिरप के नाम पर बच्चों की मौत सड़ी हुई व्यवस्था की गवाही
भारत, जो खुद को दुनिया की फार्मेसी कहकर गर्व महसूस करता है, आज उसी फार्मेसी से मौत की दवा बांट रहा है। मध्यप्रदेश और राजस्थान के सरकारी अस्पतालों में पिछले एक महीने में पंद्रह मासूम बच्चों की मौत ने इस ‘फार्मा गौरव’ की सच्चाई नंगा कर दी है। इलाज के नाम पर बच्चों को कफ सिरप पिलाया गया वो असल में जहर निकला। इन मौतों ने न सिर्फ स्वास्थ्य तंत्र की विफलता उजागर की, बल्कि शासन की वह निर्दयता भी, जो हर बार अपराध को हादसा और लापरवाही को दुर्भाग्य बताकर अपनी जिम्मेदारी से भाग जाती है। जिस देश में एक बच्चे की मुस्कान पर करोड़ों के चुनावी वादे किए जाते हैं, वहां पंद्रह बच्चों की मौत पर न कोई इस्तीफा, न कोई गिरफ्तारी, न कोई पश्चाताप। केंद्र और राज्य सरकारें सहानुभूति के टेलीविजन फ्रेम में सिमट गई। एक मंत्री अस्पताल पहुंचा, दूसरे ने ट्वीट किया, तीसरे ने जांच कमेटी बना दी। जिन घरों में बच्चों की हंसी बुझ चुकी, वहां अब भी खामोशी और सवालों का सन्नाटा है। यह कोई आकस्मिक त्रासदी नहीं थी, बल्कि ‘प्रशासनिक अपराध’ था। जिसे उद्योगपति, अफसर और नेता मिलकर अंजाम दे रहे हैं। तमिलनाडु में बनी जहरीली कफ सिरप की खेप जब मध्यप्रदेश और राजस्थान पहुंची, तो सरकारी तंत्र की नींद टूटने में हफ्तों लग गए। केंद्र सरकार की एजेंसियां खामोश रहीं, जैसे बच्चों की मौतें किसी और देश में हुई हों। यही वह चुप्पी है, जो हर बार भारत की लोकतांत्रिक आत्मा को मारती है। बीते कुछ वर्षों में यह पहला मौका नहीं है जब दवाओं ने जान ली हो गांबिया और उज़्बेकिस्तान में भारतीय दवाओं से सैकड़ों बच्चों की मौत के बाद भी देश के दवा नियामक बोर्ड ने कोई सीख नहीं ली। आज वही जहरीला इतिहास देश के भीतर दोहराया जा रहा है। फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार मरने वाले बच्चे भारतीय हैं और इसलिए शायद किसी को फर्क नहीं पड़ता। पीएम मोदी ‘मेड इन इंडिया’ की बात करते हैं, लेकिन इन मौतों ने ‘डेड इन इंडिया’ का भयावह चेहरा दिखा दिया है। अगर तमिलनाडु सरकार 24 घंटे में जांच पूरी कर सकती है, तो केंद्र सरकार और मध्यप्रदेश-राजस्थान की मशीनरी क्यों सोती रही। वजह क्या थी कि जिस दवा को तमिलनाडु ने प्रतिबंधित किया, वही सिरप अन्य राज्यों में बच्चों को दिया जाता रहा? वह अदृश्य ताकत कौन है जो इन कंपनियों को बचा रही है। यह रिपोर्ट उन सवालों की पड़ताल है जिन्हें सत्ता दबा देना चाहती है कि बच्चों की मौत केवल एक मेडिकल असफलता नहीं, बल्कि शासन की नैतिक और मानवीय विफलता है। भारत में दवा के नाम पर जहर बेचना अब ‘घोटाला’ नहीं रहा, यह अब सामान्य प्रशासनिक रुटीन है। जब समाज इस रुटीन का आदी हो जाए, तब मौतें भी सरकारी प्रक्रिया बन जाती हैं।
मौत का सिरप जब इलाज बना जहर
मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में सितंबर से अक्टूबर के बीच 11 बच्चों की मौत ने पूरे प्रदेश को झकझोर दिया।
इन सभी बच्चों ने एक ही कफ सिरप पिया था — कोल्ड्रिफ। कुछ ही घंटों में उन्हें उल्टी, पेशाब में कमी और सूजन की शिकायत हुई। डॉक्टरों ने जांच में पाया कि उनकी किडनी फेल हो चुकी थी। रिनल बायोप्सी रिपोर्ट ने खुलासा किया बच्चों के शरीर में डायथाइलिन ग्लाइकाल नामक जहरीला रसायन पाया गया।
यह वही रसायन है जो पहले गांबिया और उज़्बेकिस्तान में भारतीय दवाओं से सैकड़ों बच्चों की मौत का कारण बन चुका है। लेकिन भारत में अब तक किसी कंपनी के लाइसेंस रद्द नहीं हुए।
तमिलनाडु से मौत की डिलीवरी तक
कोल्ड्रिफ सिरप का निर्माण तमिलनाडु के कांचीपुरम जिले में स्थित श्रीसन फार्मास्युटिकल्स कंपनी ने किया था। तमिलनाडु सरकार ने जैसे ही शिकायत पाई, उसने 24 घंटे के भीतर जांच कराई परिणाम सिरप में निकला जहरीला रसायन। 1 अक्टूबर 2025 को राज्य सरकार ने बिक्री पर रोक लगा दी। लेकिन केंद्र सरकार और ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया ने ‘कोई कार्रवाई नहीं की’।
यह वही दवा थी, जो केंद्र सरकार की एजेंसी की स्वीकृति से पूरे देश में आपूर्ति हो रही थी। यानि तमिलनाडु में मौत रोक दी गई, लेकिन मध्यप्रदेश और राजस्थान में मौतें चलती रहीं।
केंद्र सरकार की चुप्पी! उद्योगपतियों का दबाव?
दवा उद्योग भारत में हर साल 2.5 लाख करोड़ रुपए से अधिक का कारोबार करता है। इनमें से अधिकांश कंपनियां राजनीतिक फंडिंग और सरकारी संपर्कों के सहारे फलती-फूलती हैं। श्रीसन फार्मा भी अपवाद नहीं। सूत्र बताते हैं कि कंपनी पर कार्रवाई की फाइल केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय में दो हफ्तों तक पड़ी रही ना कोई चेतावनी, ना लाइसेंस निलंबन। केंद्र सरकार ने तमिलनाडु की रिपोर्ट को राजनीतिक स्टंट बताकर खारिज कर दिया। क्या यही ‘डबल इंजन सरकार’ का अर्थ है। जहां एक इंजन मौत रोकने की कोशिश करे और दूसरा इंजन उसे कुचल दे?
प्रदेश सरकारों की नींद देर से क्यों टूटी
मध्यप्रदेश सरकार ने सिरप की बिक्री पर 5 अक्टूबर को रोक लगाई, जबकि पहली मौत 7 सितंबर को हुई थी।
यानि पूरा एक महीना सरकारी फाइलें ‘कार्रवाई के इंतजार’ में बंद रहीं। राजस्थान में भी हालात यही रहे हैं कि चार बच्चों की मौत के बाद स्वास्थ्य मंत्री ने जांच के आदेश दिए, लेकिन तब तक सिरप सैकड़ों बच्चों को दिया जा चुका था। क्या यह संयोग है कि हर बार प्रशासन पहले मौत गिनता है, फिर जांच की याद आती है।
जब मौत पर राजनीति और धर्म का रंग चढ़ा
याद कीजिए, गोरखपुर में वर्ष 2017 में जब ऑक्सीजन की कमी से 60 से अधिक बच्चों की मौत हुई थी। तब योगी सरकार ने एक डॉक्टर को बलि का बकरा बनाकर मामला दबा दिया था। मीडिया ने सवाल उठाने के बजाय घटना में ‘धर्म’ तलाश लिया। अब भी वही पटकथा दोहराई जा रही है। भाजपा शासित राज्यों में जब ऐसी त्रासदी होती है, तो उसे ‘प्राकृतिक हादसा’ बताया जाता है। जबकि किसी गैर-भाजपा राज्य में कुछ घटे तो पूरा तंत्र ‘राजनीतिक जिम्मेदारी’ का नारा लगाने लगता है।
यह दोहरा रवैया न केवल संविधान के प्रति अपमान है, बल्कि लोकतंत्र के प्रति अपराध भी। जहां 15 मासूम बच्चों की मौत पर सड़कों पर गुस्सा उमड़ना चाहिए था, वहां सोशल मीडिया पर चुटकुले चल रहे हैं। टीवी चैनलों के प्राइम टाइम में ‘भारत-चीन’ और ‘बिहार चुनाव’ छाए हैं। कोई नहीं पूछता कि बच्चों की मौत के पीछे कौन जिम्मेदार है? मीडिया की चुप्पी इस शासन की ढाल बन चुकी है। जो चैनल सवाल पूछेगा, उसे विज्ञापन बंद कर दिए जाएंगे, जो चुप रहेगा उसे पुरस्कार मिलेगा।
यही वह नई पत्रकारिता है।‘संवेदना रहित पत्रकारिता’ जहां रेटिंग बच्चों की जान से ज्यादा महत्वपूर्ण है।
प्रधानमंत्री की नैतिक जिम्मेदारी कहां है?
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हर साल ‘परीक्षा पर चर्चा’ में बच्चों को संबोधित करते हैं, उन्हें ‘देश का भविष्य’ बताते हैं। लेकिन जब वही भविष्य दवा के नाम पर जहर पीकर मर जाए, तो क्या केवल ट्वीट कर देना पर्याप्त है? नेहरू और शास्त्री जैसे नेताओं ने एक बच्चे की मौत पर भी नैतिक जिम्मेदारी ली थी। आज मोदी जी बिहार में चुनावी रैली कर रहे हैं। क्या मासूमों की मौत उनके लिए कोई चुनावी मुद्दा नहीं? या अब बच्चों की जान भी ‘वोट प्रतिशत’ के हिसाब से गिनी जाएगी?
मौतों के पीछे का बड़ा सवाल
नोटबंदी में कतारों में मरे लोग, कोविड में दम तोड़ते प्रवासी मजदूर, लॉक डाउन में भूख से मरते बच्चे, और अब जहरीली दवा से मरे मासूम हर बार सरकार ने केवल ‘अफसोस’ जताया। कभी जिम्मेदारी तय नहीं हुई,
कभी किसी मंत्री ने इस्तीफा नहीं दिया। देश का नागरिक अब इस दर्द का आदी हो चुका है। वह मरते बच्चों की खबर को स्क्रॉल कर आगे बढ़ जाता है।
यही सबसे बड़ा खतरा है। जब समाज मौत पर भी खामोश हो जाए, तब शासन तानाशाही में बदल जाता है। मध्यप्रदेश और राजस्थान में बच्चों की मौत केवल एक स्वास्थ्य हादसा नहीं, बल्कि सिस्टम की सड़ांध का आईना है। दवा निर्माण से लेकर वितरण और जांच तक हर स्तर पर भ्रष्टाचार, लापरवाही और संवेदनहीनता का जाल फैला है। तमिलनाडु की जांच रिपोर्ट को दबाने वाली केंद्र सरकार, समय पर कार्रवाई न करने वाली राज्य सरकारें, और सच छिपाने वाला मीडिया तीनों इस ‘मौत की साजिश’ के साझीदार हैं।
* एक महीने में मध्यप्रदेश और राजस्थान में 15 बच्चों की मौत कफ सिरप पीने के बाद हुई।
* कोल्ड्रिफ नामक कफ सिरप में पाया गया जहरीला रसायन डायथाइलीन ग्लाइकॉल, जो किडनी फेल होने का कारण बना।
* सिरप तमिलनाडु की श्रीसन फार्मास्युटिकल्स कंपनी में तैयार हुआ।
* तमिलनाडु सरकार ने जांच कर तुरंत रोक लगाई, लेकिन केंद्र सरकार की एजेंसियां खामोश रहीं।
* राज्य सरकारें बाद में जागी, जब मासूमों की जान जा चुकी थी।
* प्रशासनिक उदासीनता और राजनीतिक मौन इस त्रासदी के असली अपराधी हैं।
* मीडिया और समाज की चुप्पी ने सरकार की जवाबदेही को बचा लिया।
* घटना देश के स्वास्थ्य नियमन और नैतिक शासन दोनों पर गंभीर सवाल उठाती है।




