डॉक्टर सन्दीप चौधरी को मिली है छूट,जारी गया जारी है, जन औषधि योजना के नाम पर जनता से लूटमलूट
वाराणसी के सीएमओ डॉ.सन्दीप चौधरी की कलंक कथा

~ सीएमओ डॉ. संदीप चौधरी का वरदहस्त, भ्रष्टाचार ने काशी की मर्यादा को किया तार-तार
~ पंजीयन किसी का, संचालन किसी और का
~ जन औषधि के नाम पर बिकती महंगी बाहर की दवाएं
~ चिकित्सकों की मिलीभगत, मरीजों को फंसाने का खेल
~ निरीक्षण महज दिखावा सूचना मिलते ही गायब हो जाती हकीकत
~ काशी की गरिमा पर कलंक जन औषधि में लूट का तांडव
~ काशी में मर्यादा और भ्रष्टाचार का टकराव
◆ आशुतोष शर्मा
काशी, जिसे धर्म, आस्था और मर्यादा की नगरी कहा जाता है। आज वही काशी प्रशासनिक भ्रष्टाचार की गिरफ्त में कराह रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र में अस्पतालों में शुरू की गई प्रधानमंत्री जन औषधि योजना का उद्देश्य था गरीब और निम्नवर्गीय नागरिकों को सस्ती व गुणवत्तापूर्ण दवाएं उपलब्ध कराना। परन्तु सूत्रों की मानें तो यह योजना ‘जनहित’ की जगह ‘जनलूट’ का जरिया बन चुकी है। केंद्र सरकार के निर्देशों के बावजूद स्थानीय स्वास्थ्य विभाग ने इसे ठेकेदारों, मेडिकल माफिया और कुछ भ्रष्ट अधिकारियों के हाथों में सौंप दिया है। कागजों पर सबकुछ पारदर्शी और योजनाबद्ध दिखाया जाता है, लेकिन जमीनी सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत है।
जन औषधि के नाम पर गरीबों को लूटा जा रहा है, चिकित्सक कमीशन पर दवाएं लिख रहे हैं, स्टोरों में बाहर की महंगी दवाएं बिक रही हैं, और सीएमओ कार्यालय से इस खेल को ‘अनदेखा’ किया जा रहा है।
पंजीयन किसी का, संचालन किसी और का नियमों की उड़तीं धज्जियां
जन औषधि योजना के दिशा-निर्देश साफ़ कहते हैं कि जिस व्यक्ति के नाम पर स्टोर का पंजीयन है, वही व्यक्ति उसका संचालन करेगा। परन्तु पीएम के संसदीय क्षेत्र में यह नियम कागज़ों तक ही सीमित रह गया है। सूत्रों की मानें तो सरकारी अस्पतालों में संचालित होने वाले जन औषधि केंद्रों में पंजीयन किसी अन्य के नाम पर कराया गया है, जबकि असल संचालन मेडिकल माफिया या दवा सप्लायर करते हैं। सूत्रों के अनुसार पं.दीनदयाल उपाध्याय राजकीय चिकित्सालय, मानसिक चिकित्सालय, एसएसपीजी हॉस्पिटल कबीरचौरा महिला व पुरुष, भेलूपुर स्थित विवेकानंद अस्पताल, एलबीएस हॉस्पिटल रामनगर सहित सभी सरकारी चिकित्सालयों में सीएमओ को सुविधा शुल्क देकर जनऔषधि केंद्र संचालित किया जा रहा है। स्टोर स्वामी महीने का कुछ निश्चित पैसा लेकर साइनबोर्ड के मालिक बने बैठे हैं, जबकि सारा कारोबार पीछे से चलता है।
योजना की आत्मा ‘आत्मनिर्भरता और सस्ता इलाज’ इन फर्जी पंजीकरणों के बीच दम तोड़ चुकी है।
जन औषधि के नाम पर बिकती बाहर की महंगी दवाएं
जिन स्टोरों के बाहर प्रधानमंत्री जन औषधि केंद्र का बोर्ड लगा है, वहां अंदर जाकर देखा जाए तो सरकारी जेनरिक दवाओं की जगह बाहर की ब्रांडेड कंपनियों की महंगी दवाएं बेची जाती हैं। सूत्रों की मानें तो कई स्टोरों पर जन औषधि का स्टॉक केवल दिखावे के लिए रखा जाता है, ताकि निरीक्षण के समय अधिकारियों को भ्रम हो कि सरकारी स्टॉक उपलब्ध है। असली कारोबार महंगी दवाओं का होता है, जिन पर 200 से 400 प्रतिशत तक का मुनाफा जोड़ा जाता है। मरीजों ने बताया कि कई बार डॉक्टर जन औषधि की बजाय ऐसी दवाओं के नाम लिखते हैं जो सरकारी स्टोर में उपलब्ध ही नहीं। मजबूरन मरीजों को वहीं बैठे कर्मी बाहर की कंपनियों की महंगी दवाएं थमा देते हैं। इस पूरे खेल में न डॉक्टर को नुकसान, न स्टोर को ठगा सिर्फ गरीब मरीज जाता है।
चिकित्सक-माफिया गठजोड़ मरीजों को लूट का शिकार बनाता तंत्र
यह घोटाला केवल स्टोर स्तर पर नहीं है। सूत्रों के अनुसार, कुछ सरकारी अस्पतालों के चिकित्सक इस पूरी साजिश के हिस्से हैं। ये चिकित्सक जानबूझकर ऐसी दवाएं लिखते हैं जो जन औषधि स्टॉक में शामिल नहीं होतीं। इससे मरीज को या तो बाहर की दवा लेनी पड़ती है या उसी जन औषधि केंद्र से महंगी ब्रांडेड दवा दी जाती है। सूत्र बताते हैं कि इन डॉक्टरों को कमीशन के रूप में हर महीने निश्चित रकम दी जाती है। कई केंद्रों के संचालकों ने डॉक्टरों को प्रोत्साहन देने के नाम पर ‘कमीशन कार्ड’ जारी कर रखे हैं। मरीजों की बढ़ती संख्या के साथ यह खेल दिन-ब-दिन बढ़ता जाता है, और किसी ने इसे रोकने की कोशिश नहीं की।
सीएमओ कार्यालय की भूमिका वरदहस्त या मिलीभगत
इस पूरे घोटाले के केंद्र में आता है मुख्य चिकित्साधिकारी कार्यालय। जिसका काम योजना की निगरानी, निरीक्षण और रिपोर्टिंग की जिम्मेदारी यहीं से तय होती है। लेकिन सूत्रों के अनुसार सीएमओ डॉ. संदीप चौधरी के कार्यकाल में इस योजना की पारदर्शिता पूरी तरह खत्म हो चुकी है। स्थानीय स्वास्थ्यकर्मियों का कहना है कि जो भी शिकायत जन औषधि केंद्रों से जुड़ी होती है, उसे जांच के नाम पर दबा दिया जाता है। जांच का आदेश कभी निचले स्तर के अधिकारी को सौंप दिया जाता है, जो पहले से ही संबंधित स्टोर संचालक से ‘संपर्क’ में होता है। अंत में रिपोर्ट में लिखा होता है सब कुछ संतोषजनक पाया गया। सूत्रों का यह भी कहना है कि जिन स्टोरों की शिकायत बार-बार आई, वे सीएमओ कार्यालय में मोटी रकम पहुंचाने के बाद क्लीन चिट पा गए। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि अगर सीएमओ कार्यालय ही संरक्षण देगा, तो भ्रष्टाचार कौन रोकेगा।
निरीक्षण की नौटंकी सूचना मिलते ही सब गायब, प्रक्रिया बनी ‘ड्रामा’
जैसे ही किसी केंद्र पर जांच की सूचना मिलती है, वहां तत्काल सफाई अभियान चल पड़ता है। बाहर की महंगी दवाओं को या तो हटा दिया जाता है, या पीछे के कमरे में छिपा दिया जाता है। जब अधिकारी पहुंचते हैं, तो स्टोर में केवल जन औषधि का सीमित स्टॉक दिखाया जाता है। अधिकारी, जो पहले से ही सूचित होते हैं, एक-दो रजिस्टर देखकर चले जाते हैं। रिपोर्ट में सबकुछ ‘संतोषजनक’ लिखा जाता है। एक सूत्र के शब्दों में जन औषधि केंद्रों की जांच पहले ही तय होती है। किस दिन कौन जाएगा, कौन-कौन सी दवाएं आगे रखनी हैं, सब पहले से तय होता है। ऐसे ‘निरीक्षण’ से भ्रष्टाचार उजागर होने के बजाय और मजबूत होता जा रहा है।
गरीब की जेब पर डाका स्वास्थ्य के नाम पर ठगी
काशी में जन औषधि योजना की दुर्दशा का सबसे बड़ा नुकसान गरीब और मध्यमवर्गीय मरीजों को हो रहा है।
जिस योजना से उन्हें राहत मिलनी थी, वही अब उनकी जेब पर बोझ बन चुकी है। मरीजों से मिली जानकारी के अनुसार, जहां सरकारी जन औषधि दवा की कीमत 30 से 40 रुपए होनी चाहिए, वहां उन्हें 120 से 150 रुपए तक की दवाएं बेची जा रही हैं। वह भी उसी केंद्र से, जहां प्रधानमंत्री के नाम पर सस्ती दवाओं की गारंटी दी जाती है। सूत्रों के अनुसार, कई बार मरीजों को दवा उपलब्ध नहीं कहकर बाहर की दुकानों का नाम बताया जाता है, जो उसी नेटवर्क से जुड़ी होती हैं। इस तरह जन औषधि योजना को सिर्फ ‘ब्रांडिंग बोर्ड’ बनाकर छोड़ दिया गया है, जबकि असली कारोबार बाहर की दुकानों से चलता है।
भ्रष्टाचार की जड़ में राजनीतिक और प्रशासनिक संरक्षण
स्थानीय स्वास्थ्य विभाग से जुड़े सूत्रों का कहना है कि कई केंद्र राजनीतिक संरक्षण में चल रहे हैं। कुछ जन औषधि केंद्रों के पीछे सत्तारूढ़ दल के नेताओं या उनके परिजनों की अप्रत्यक्ष हिस्सेदारी बताई जाती है। ऐसे में इन केंद्रों पर कार्रवाई करने की हिम्मत कोई अधिकारी नहीं जुटा पाता। सीएमओ कार्यालय भी ‘ऊपर के दबाव’ का हवाला देकर हर शिकायत को ठंडे बस्ते में डाल देता है। परिणाम यह है कि प्रधानमंत्री की महत्वाकांक्षी योजना काशी में भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी है और अधिकारी से लेकर डॉक्टर तक, सब इसमें हिस्सेदार हैं।
प्रशासनिक चुप्पी जनता के विश्वास पर आघात
जन औषधि योजना के इस बड़े घोटाले पर जिला प्रशासन और स्वास्थ्य विभाग की चुप्पी भी सवालों के घेरे में है। सूत्र बताते हैं कि पिछले एक साल में कई शिकायतें मुख्यमंत्री हेल्पलाइन पर दर्ज कराई गईं, पर उनमें से ज्यादातर शिकायतें निस्तारित दिखा दी गईं।
न जांच हुई, न कार्रवाई। जिन अधिकारियों से पूछताछ होनी थी, वही जांच कमेटियों में शामिल हो गए। इस तरह यह पूरा तंत्र मरीज की जेब काटने वाले माफिया के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है।
काशी की मर्यादा पर कलंक प्रधानमंत्री की मंशा पर फिर रहा पानी
काशी केवल एक शहर नहीं, यह भारतीय संस्कृति की आत्मा है। लेकिन जब इसी काशी से प्रधानमंत्री की योजना के नाम पर लूट मचाई जाए, तो यह केवल प्रशासनिक नहीं, नैतिक अपराध भी बन जाता है।
सीएमओ डॉ. संदीप चौधरी और उनके मातहत अधिकारियों की चुप्पी इस बात का संकेत है कि भ्रष्टाचार को मौन संरक्षण प्राप्त है। प्रधानमंत्री मोदी ने जब जन औषधि योजना शुरू की थी, तो उसका मकसद था ‘हर गरीब को सस्ती दवा, हर नागरिक को सुलभ इलाज।’ परन्तु वाराणसी में यही योजना हर गरीब से लूट, हर माफिया को लाभ का पर्याय बन गई है।
यह स्थिति न केवल केंद्र सरकार की मंशा पर प्रश्नचिह्न लगाती है, बल्कि काशी की गरिमा को भी कलंकित करती है।
जब धर्मनगरी में नीति मर जाए
काशी, जिसे धर्म, मर्यादा और नीति की नगरी कहा जाता है, वहां अगर सरकारी योजनाएं लूट का अड्डा बन जाएं, तो यह केवल व्यवस्था की विफलता नहीं, बल्कि संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है। प्रधानमंत्री जन औषधि योजना को काशी में जिस तरह लूटा जा रहा है, वह पूरे देश के लिए चेतावनी है कि अगर पारदर्शिता और जवाबदेही नहीं रही, तो हर जनकल्याण योजना माफिया योजना बन जाएगी।
- पंजीयन किसी और के नाम पर, संचालन मेडिकल माफियाओं का।
- जन औषधि स्टोरों में बाहर की महंगी दवाएं खुलेआम बेची जाती हैं।
- चिकित्सक मरीजों को महंगी दवाएं लिखकर कमीशन खाते हैं।
- निरीक्षण से पहले सूचना पहुंच जाती है, सबकुछ दिखावे के लिए।
- सीएमओ डॉ. संदीप चौधरी और जिला प्रशासन की चुप्पी मिलीभगत का प्रमाण।
- काशी की मर्यादा और प्रधानमंत्री की मंशा दोनों पर ग्रहण।




