संघ के 100 साल : पाखण्ड का शतक व साम्प्रदायिकता का जंजाल
गांधी की जयंती पर शस्त्र पूजन और रामधुन का पाखण्ड: संविधान नहीं, पारदर्शिता नहीं फिर भी संगठन कहलाता है!

• धर्मों की एकता का दावा, रोजाना की हिंसा का कारोबार
• स्वतंत्रता संग्राम से गायब, गांधी की हत्या में मौजूद
• देशभक्ति का ढोल, अंग्रेजपरस्ती का सच
अडानी ही राष्ट्र कॉरपोरेट के चरणों में झुका संघ
• फासीवादी गुरुओं की परछाईं हिटलर से नेतन्याहू तक
• लोकतंत्र के सामने चुनौती पाखण्ड का मुकाबला जरूरी
◆ पँचशील अमित मौर्य
देश के सबसे बड़े संत और सत्य के प्रतीक महात्मा गांधी की जयंती पर वह संगठन अपनी शताब्दी मना रहा है जिसके वैचारिक कुनबे ने गांधी की हत्या की थी। यह कोई संयोग नहीं, बल्कि भारत की राजनीति और समाज पर थोपी गई सबसे गहरी विडम्बना है। संघ आज सौ साल का हो गया है। सौ साल पाखण्ड के, सौ साल छलावे के, सौ साल उस जहर को बोने के जिसे अब वह फल-फूल बनाकर परोस रहा है। यह कोई संयोग भर नहीं है, बल्कि भारत की राजनीति और समाज पर थोपा गया सबसे गहरा घाव है। एक तरफ वह शख्शियत जिसने सत्य, न्याय और प्रेम के सहारे दुनिया को रास्ता दिखाया, और दूसरी तरफ वह संगठन जिसने छल, हिंसा और नफरत को अपनी नींव बनाया। आज वही संगठन, जिसे कभी समाज ने शक की निगाह से देखा था, सत्ता की गद्दियों पर बैठा है और सौ साल का जश्न मना रहा है। यह सौ साल ईमानदारी और त्याग के नहीं, बल्कि पाखण्ड और छलावे के हैं। यह सौ साल उस विचारधारा के हैं जिसने भारत की आत्मा पर जहर के बीज बोए और आज उसी जहर को फल-फूल बनाकर परोस रही है। सवाल यह है कि जिस संगठन की नींव ही नफरत पर रखी गई थी, वह आज राष्ट्रवाद और संस्कृति का ठेकेदार बन बैठा है। उससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या गांधी के देश में गांधी के हत्यारे विचार की जीत हो रही है।
गांधी की जयंती, संघ का उत्सव पाखण्ड का चरम
2 अक्टूबर का दिन भारत के लिए हमेशा गांधी की याद का दिन रहा है। लेकिन 2025 ने इसे एक ऐसा मोड़ दे दिया है कि यही तारीख राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शताब्दी का उत्सव भी बन गई। यह वही संगठन है जिसकी वैचारिक प्रयोगशाला से निकला हत्यारा गांधी को मार गिराता है। अब उसी गांधी की प्रतिमा के आगे रामधुन गाकर श्रद्धांजलि का नाटक होगा। और उसी दिन शस्त्र पूजन कर हथियारों को आशीर्वाद दिया जाएगा। यही है संघ की असली पहचान पाखण्ड और हिंसा का संगम।
संविधान नहीं, पारदर्शिता नहीं फिर भी संगठन कहलाता है!
आरएसएस को संगठन कहना लोकतांत्रिक शब्दों का अपमान है। न संविधान, न सदस्यता का खुलापन, न खाता-बही, न जवाबदेही। फिर भी दावा हम राष्ट्रनिर्माण कर रहे हैं। राष्ट्र निर्माण नहीं, राष्ट्र विध्वंस यह संघ का असली काम है।
धर्मों की एकता का दावा, रोजाना की हिंसा का कारोबार
संघ कहता है कि वह मानव जाति की एकता और सभी धर्मों की समानता में विश्वास करता है। हकीकत यह है कि मस्जिदों पर चढ़कर झंडा फहराने से लेकर चर्चों को जलाने तक, दलितों पर हमले से लेकर यात्रियों का धर्म पूछकर गोली मारने तक यही इसकी ‘एकता’ है।
यह जहर केवल अल्पसंख्यकों तक सीमित नहीं है। बौद्ध, जैन, सिख, यहां तक कि हिंदू धर्म के भीतर की सुधारवादी धाराओं को भी संघ ने अपने निशाने पर लिया। उसका असली एजेंडा है सनातन के नाम पर ब्राह्मणवादी ढांचे की बहाली।
स्वतंत्रता संग्राम से गायब, गांधी की हत्या में मौजूद
स्वतंत्रता संग्राम की पूरी गाथा में संघ कहीं दिखाई नहीं देता। उसने न आंदोलन किया, न जेल भरी, न अंग्रेजों से टकराया। तिरंगे का विरोध, संविधान का विरोध, आजादी के दिन काला झंडा। फिर गांधी की हत्या यही है संघ की ‘देशभक्ति’।
देशभक्ति का ढोल, अंग्रेज परस्ती का सच
हेडगेवार और उनके साथी नेताजी बोस से मिलने तक तैयार नहीं हुए। अंग्रेजों की नाराजगी मोल लेने की बजाय अंग्रेजों की सेना में भर्ती कराने का अभियान चलाया। यही थी संघ की ‘रणनीति’। आजादी के बाद भी यही सिलसिला जारी रहा। आईएसआई के लिए जासूसी करते पकड़े गए अधिकांश लोग संघी पृष्ठभूमि से इसलिए निकल गए। यही उनका असली चेहरा है।
अडानी ही राष्ट्र, कॉरपोरेट के चरणों में झुका संघ
आज का संघ राष्ट्रवाद का नहीं, बल्कि कॉरपोरेट का पहरेदार है। देश ही अडानी है, अडानी ही देश।
हिंडनबर्ग रिपोर्ट ने जब अडानी के कारनामे उजागर किए तो सरकार ने मीडिया को आदेश दिया कि अडानी पर खबर मत छापो। भारत में कभी ईशनिंदा का कानून नहीं था, लेकिन अब अडानी की आलोचना अपराध है। यह है नया राष्ट्रवाद कॉरपोरेट राष्ट्रवाद।
फांसीवादी गुरुओं की परछाईं हिटलर से नेतन्याहू तक
संघ की प्रेरणा हमेशा फासीवादी रही है। संस्थापकों ने हिटलर को आदर्श माना। यहूदियों के नरसंहार से सीखने की बात कही। आज वही संघ नेतन्याहू के नरसंहारों और अमेरिकी साम्राज्यवाद की गोद में बैठा है।
भारत को अपमानित करने वाले ट्रंप के लिए नाचने में भी इन्हें संकोच नहीं होता। यही है उनका गौरवशाली राष्ट्रवाद। संघ की पूरी राजनीति एक ही लक्ष्य की तरफ बढ़ रही है। वर्णाश्रम आधारित समाज की वापसी। शिक्षा को अंधविश्वास से भरना, महिलाओं को कैद करना, दलित-पिछड़ों को सत्ता से दूर रखना, अल्पसंख्यकों को हाशिए पर धकेलना। सौ साल से यही हो रहा है। पाखण्ड को राष्ट्रवाद बताकर जनता को छलने की कोशिश की जा रही है। लेकिन जनता अब समझने लगी है। संघी खुद को संघी बताने में शर्माते हैं। यही उनकी सबसे बड़ी हार है। मगर खतरे को केवल समझना काफी नहीं। आंख मूंदने से खतरे नहीं टलते। जरूरी है कि इस पाखण्ड का मुकाबला उसी आक्रामकता से किया जाए जिस आक्रामकता से यह लोकतंत्र को कुचलने निकले हैं।
- गांधी की हत्या करने वाले वैचारिक कुनबे का गांधी प्रतिमा पर रामधुन यह पाखण्ड नहीं तो क्या है?
- संघ संविधान विहीन है, बिना सदस्यता और जवाबदेही के, फिर भी संगठन कहलाता है।
- स्वतंत्रता संग्राम से अनुपस्थित, आजादी के दिन काला झंडा, और फिर गांधी की हत्या।
- अंग्रेजों के साथ साठगांठ, सेना में भर्ती कराना, और आजादी की लड़ाई से दूरी।
- अडानी राष्ट्रवाद का नया चेहरा कॉरपोरेट के लिए भारत को गिरवी रखना।
- हिटलर और नेतन्याहू संघ के असली ‘गुरु’ फासीवाद ही मार्गदर्शक।
- शिक्षा, समाज और महिलाओं को अंधकार में धकेलने का एजेंडा।
- लोकतंत्र और संविधान के लिए सबसे बड़ा खतरा यही पाखंडी संगठन।
सौ साल का पाखण्ड गांधी जयंती पर संघ का विडम्बना पूर्ण सफर
गांधी जिन्होंने अहिंसा को हथियार बनाया, सत्य और न्याय के सहारे करोड़ों भारतीयों को अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा किया। संघ जिसकी वैचारिक प्रयोगशाला से निकला वह जहर जिसने 30 जनवरी 1948 को गांधी की हत्या की। आज वही संघ गांधी की प्रतिमा के सामने रामधुन गा रहा है, और उसी दिन शस्त्र पूजन करके हथियारों को आशीर्वाद दे रहा है। यही है संघ की असली पहचान अहिंसा की आड़ में हिंसा, श्रद्धांजलि की आड़ में पाखण्ड। यह सौ साल के सफर की कहानी है। सौ साल पाखण्ड के, सौ साल छलावे के, सौ साल उस जहर को बोने के जिसे अब वह फल-फूल बनाकर परोस रहा है।
- 1920–30 का दशक अंग्रेजों के खिलाफ कोई सीधी टकराहट नहीं।
- संघ ने अंग्रेजी सेना में भर्ती के अभियान चलाए, ताकि युवा अंग्रेजों की सेवा में लगें, न कि स्वतंत्रता संग्राम में।
- स्वतंत्रता संग्राम की अहम घटनाओं असहयोग आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन में संघ की भागीदारी शून्य।
- संघ का विचार था अंग्रेजों को नाराज नहीं करना, समाज के भीतर ब्राह्मणवादी संरचना मजबूत करना। यह ही उसकी वैचारिक नींव थी।
- गांधी और संघ का विचारधारा में पूरी तरह टकराव था।
- गांधी अहिंसा, सत्य, सामाजिक समरसता को मानते थे।
- गांधी ने हर जगह समानता और संवाद का मार्ग अपनाया। संघ ने हिंसा और नफरत का।
- गांधी ने मुसलमानों और हिन्दुओं के बीच सामंजस्य की कोशिश की।
- संघ ने मुसलमानों पर हमले, दलितों को सताने और सुधारवादी हिंदू धाराओं को दबाने की नीति अपनाई।
- यह द्वंद्व केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि पूरे समाज और राष्ट्र की दिशा पर प्रभाव डालने वाला था।
1925 से 1947 तक स्वतंत्रता संग्राम में अनुपस्थिति और गांधी की हत्या
संघ ने स्वतंत्रता संग्राम में कोई सक्रिय भूमिका नहीं निभाई। तिरंगे का विरोध किया, आजादी के दिन काले झंडे फहराए। संविधान निर्माण के विरोध किया। गांधी की हत्या में वैचारिक भूमिका रही। 30 जनवरी 1948 को गांधी की हत्या संघ और हिंदू महासभा के वैचारिक प्रयोगशालाओं का प्रत्यक्ष परिणाम थी। यह इतिहास का वह पन्ना है जो संघ की देशभक्ति के ढोल की सच्चाई उजागर करता है। संघ के संस्थापक हेडगेवार और उनके प्रमुख सहयोगियों ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस से मिलने से इंकार किया, जबकि उनका दावा था कि वे राष्ट्रभक्त हैं। अंग्रेजों की नाराजगी लेने की बजाय उन्होंने अपने लोगों को अंग्रेजों की सेना में भर्ती कराया। यही थी उनकी रणनीति।
संघ की सौवीं वर्षगांठ और पाखण्ड का चरम
2025 में संघ सौ साल का हो गया और विडम्बना देखिए गांधी की जयंती पर रामधुन, वही दिन शस्त्र पूजन का। यह वही संगठन है जिसे गांधी की हत्या के लिए वैचारिक पाठशाला माना गया। सभी राजनीतिक और सामाजिक विश्लेषक इसे विडम्बना पूर्ण क्षण मानते हैं। यह दर्शाता है कि संघ ने न केवल अपने मूल एजेंडे को नहीं बदला, बल्कि उसे नफरत, पाखण्ड और सत्ता की चाहत के रूप में और अधिक तीव्रता से लागू किया।
संघ और लोकतंत्र का विरोध
आरएसएस को संगठन कहना लोकतंत्र के मूल्यों का अपमान है। संघ में संविधान और नियम-कानून का अभाव, सदस्यता का खुलापन नहीं, खाता-बही और वित्तीय पारदर्शिता नहीं, उत्तरदायित्व और जवाबदेही का अभाव है। फिर भी दावा करते हैं कि हम राष्ट्र निर्माण कर रहे हैं। असल में आरएसएस राष्ट्र का निर्माण नहीं, बल्कि विघटन और विध्वंस कर रहे है।



